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कुदरत से पंगा

कुदरत से पंगा'

देवाशीष उपाध्याय
‘कितने आदमी थे, छोटे?’ कोरोना सरदार ने अपने सिपहसालार से पूछा।
‘सरदार, बाहर तो कोई आदमी नहीं दिखाई दे रहा था! सब डरपोक हैं, हमारे खौंफ से दुबकर घरों में छुपे हैं। सड़कों पे तो मातम सा सन्नाटा पसरा है। केवल पुलिस और एम्बुलेंस ही दिखाई दे रहे थे।’
‘वाह! तुम लोगों ने तो इंसानों को घरों मे कैद होने को मजबूर कर दिया है। अरे तुम लोगों ने इंसानों को ललकारा नहीं, क्या? ये तो बहुत काबिल बनते फिरते हैं। उन्होंने पूरी धरती पर आंतक मचा रखा है। अपने स्वार्थ के लिए पूरे नेचुरल सिस्टम को तहस-नहस कर डाला है।’
सरदार हमारी वायरस टीम गलियों, मुहल्लों में जाकर इंसानों को ललकार रही हैं। ‘अरे कहाॅं छुप गए हो कायरों? क्या तुम्हें भी मौत से डर लगता है? तुम लोगों ने तो पूरी दुनिया में मौत का तांडव मचा रखा है। हर तरफ बर्बादी ही बर्बादी का आलम बना रखा है। प्रकृति की सारी व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न कर डाले हो। अपने को सबसे ज्यादा सुपर समझते थे। कहाॅं चली गई तुम्हारी साइंस? जिसके बल पर तुम लोग उड़ रहे थे। डरपोक, बुझदिल, कायर कहीं के, अब अपनी जान पर बनी तो घरों में दुबक कर बैठे हो। हिम्मत है तो बाहर निकलो। आओ हमसे मुकाबला करो। हम कोरोना तुम्हारा काल बनकर आये हैं। तुम लोगों ने दुनिया भर में कहर बरपाकर प्रकृति को चुनौती दिया है। प्रकृति से पंगा लेने का नतीजा तुम्हें पता भी है? अब क्यों जिन्दगी की भीख मांग रहे हो?’ सरदार हम लोग इंसानों को बाहर निकालने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। लेकिन वे तो बाहर ही नहीं निकल रहे हैं।
‘अरे इ अमेरिका के समझ में नहीं आ रहा है क्या? यह हमसे पंगा लेने की जुर्रत क्यों कर रहा है। पूरे एशिया और यूरोप को हम लोगों ने बर्बाद कर दिया है। दो तिहाई विश्व को बंधक बनाने के बावजूद यह हमको हल्के में ले रहा है।’
‘सरदार, रस्सी जल गयी ऐंठन नहीं गयी। खुद को दुनिया की महाशक्ति समझने वाला अब दूसरों से मदद मांग रहा है। फिर भी दंभ भरने से बाज नहीं आ रहा है। हमारी फौज ने सबसे ज्यादा तबाही अमेरिका में ही मचायी है। आगे स्थिति और बदतर होने वाली है। धरती पर अपनी बादशाहत स्थापित करने वाले इंसानों को हम लोगों ने लाचार और बेबस बनाकर रख दिया है।
‘सरदार खुश हुआ! मेरे प्यारे सिपहसालार, हाॅंऽऽऽहाॅ........! इन इंसान पर मौत का ऐसा खौफनाक कहर बरपाओं की इनकी आने वाले नस्लें भी कुदरत से पंगा लेने की हिम्मत न करें।’
‘सरदार सबसे खुशी का बात यह है कि, सदियों से बेजुबान जीव-जंतुओं को अपनी कैद रखने वाला इंसान आज खुद ही कैद हो गया है। जबकि दूसरे प्राणी आजाद घूम रहे हैं।’
‘छोटी आॅंख वालों का क्या हाल है, मेरे शेर? सबसे ज्यादा उत्पात तो वही मचाये थे?’
‘सरदार, शुरू में तो हमने उन पर भयानक कहर बरपाया लेकिन अब वे सर्तक हो गये हैं। उन्होंने सोशल डिस्टेंसिंग का कड़ाई से पलान किया है। जिसके कारण वहाॅं हमारे प्रसार में कमी आ गयी है। संभवतः उन्होंने चोरी-छिपे दवाइयां और वैक्सिन भी बना लिया है। हालांकि अभी वो दवाइयों और वैक्सिन के बारे में दुनिया में किसी को बता नहीं रहे हैं। अब हम वेट एण्ड वाॅच की रणनीति पर काम कर रहे हैं और वायरस के सेकेंड जनरेशन पर काम कर रहें हैं। जो पहले से भी ज्यादा खतरनाक होगा। जिस पर उनकी दवाइयां और वैक्सिन बेअसर साबित होंगी।’
‘अरे वाह! और बताओं इंसानों का भयभीत चेहरा कैसा लग रहा है? उनके आंतकित मन, मस्तिष्क में क्या चल रहा होगा? उनकी औद्योगिक फैक्ट्रियों का क्या हाल है?’
‘सरदार, इंसानों को कोरोना फोबिया हो गया है। दूसरी औरतों के साथ गलबहियाॅं डाले रात गुजारने वाले आदमी, अब मौत के डर से अपनी बीबियों तक से मिलने में गुरेज कर रहे हैं। फैक्ट्रियों की तो हालत भी न पूछो, सरदार। दिन-रात जहरीली गैस उगलने वाली औद्योगिक इकाइयाॅं एकदम से ठप्प पड़ी हैं। उसमें ताला लगा पड़ा है। जिसके कारण धरती पर प्रदूषण का लेवल बहुत कम हो गया है। इतना ही नदियों, तालाबों, झीलों और झरनों का जल भी बिल्कुल शुद्ध हो गया है। हर तरफ रामराज्य की स्थापना हो गयी है।’
‘बहुत खूब मेरे भाई, सरदार खुश हुआ! यह आंतक कायम रहना चाहिए। प्रकृति ने इंसानों को धरती पर सबसे बुद्धिमान प्राणी बनाकर भेजा था। इंसानों से उम्मीद थी कि, प्रकृति के संरक्षण और विकास में सहगामी बनेगें। प्रकृतिक धरोहर को सहेजने और संरक्षित करने की दिशा में प्रयास कर संतुलन स्थापित करेंगे। लेकिन ये लोग तो अपने संकीर्ण हितों, स्वार्थों और लालच के चक्कर में पूरी व्यवस्था पर ही आधिपत्य जमाने की कोशिश करने लगे। जब अति हो गयी तब प्रकृति ने दंड देने के लिए हमें चुना।’
‘सरदार इंसान तो इतने निकृष्ट प्राणी हैं कि, धर्म, जाति, मजहब, यहाॅ तक कि आर्थिक क्षमता के आधार पर आपस में बंटे हुए है। ये लोग तो एक-दूसरे का ही शोषण करते हैं। कमजोर इंसानों पर जुल्म और ज्यादती ढ़ाहते हैं।’
‘अब उनके क्या हालात हैं?’ सरदार ने पूछा।
‘सरदार हमने सबको बराबर कर दिया है। अब तो शेर और बकरी सभी एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं। सभी अपने-अपने घरों में दुबके पड़े हैं। क्या अमीर क्या गरीब किसी के पास कोई काम नहीं है। हमने सबकी ऐंठन ढ़ीली कर दी है और सारे भेदभाव समाप्त कर दिये हैं। इतना ही नहीं हम लोगों ने तो उनके सारे धार्मिक स्थलों पर भी ताला लगवा दिया है। दुनिया में अस्पतालों से ज्यादा तो धार्मिक स्थल बन गये थे। अब इनको पता चल गया होगा कि अस्पताल, धार्मिक स्थलों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण हैं। जिस औद्योगिक क्रांति का दंभ भरके मनुष्य विकास के बड़े-बड़े मानक स्थापित कर रहे थे। हमारे खौफ से उन सभी में लाॅक डाउन हो गया है। कृषि क्षेत्र और किसान को हमेशा से उपेक्षित समझा जाता रहा है। आज वही किसान और कृषि उत्पाद इंसानों के जीवन की नैया पार लगा रहे हैं।’
‘इन जाहिल इंसानों को समझा दो कि, ये सुधर जायें। अभी भी इनके पास वक्त है, वरना प्रकृति के कोप से अनेकों सभ्यतायें नष्ट हो गयी हैं। धरती के विशालकाय जानवर तक विलुप्त हो गये हैं। प्रकृति न्याय जरूर करती है। जो जुल्म करता है, उसे दंडित करने में कुदरत कोई मुरव्वत नहीं करती है। इनकी हस्तियाॅं हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जायेगीं। आने वाली पीढ़ियां ऐतिहासिक खुदाई में इनके बारें में पढ़ेगीं। प्रकृति के साथ मजाक करना बंद कर दें, वरना यह मजाक इनको बहुत भारी पड़ने वाला है।’
‘सरदार ये हिन्दुस्तानी हमारा बहुत मजाक उड़ा रहे हैं।’
‘क्या, इनकी इतनी जुर्रत? हिन्दुस्तान वालों तूने अपनी आंखों से अभी मौत का खौफनाक मंजर नहीं देखा है। न्यूज देखकर तुम्हें हमारी ताकत का एहसास नहीं हो रहा है। मौत तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक दे रही है। हमारा मजाक बनाना बंद कर दो और सुधर जाओ, वरना यह मजाक तुम्हारे लिए सजा बनने वाला है। निर्णय तुम्हें लेना है, जिंदगी और मौत के बीच किसे चुनना है, फैसला तुम्हारे हाथ में है।’
‘सरदार, ये इंसान बहुत ही बेहया किस्म के प्राणी हैं। वे हमारे पतन का इंतजार कर रहे हैं।’
‘देख भाई, प्राकृतिक व्यवस्था में सबका एक निर्धारित टाइम होता है। एक दिन सबको खत्म होना है, चाहे वह जो भी हो। लेकिन इसका मतलब यह कदापि नहीं कि, इंसान सर्वोपरि है। प्रकृति इंसानों को सचेत कर रही है। सुधरने का मौका दे रही है। ये लोग सुधर गये तब तो ठीक है, वरना प्रकृति किसी दूसरे रूप में फिर हमला करेगी और एक झटके में सारी प्राकृतिक व्यवस्था को सुधार देगी। प्राकृतिक व्यवस्था बिगाड़ने वालों को दण्ड जरूर मिलेगा। अलबत्ता उसका स्वरूप बदल जायेगा। हर साल आने वाले भूकम्प, सूखा, बाढ़ जैसी विपदाये प्राकृतिक प्रकोप का ही नतीजा है। इन जाहिल इंसानों को समझा दो, ‘कुदरत से पंगा, पड़ेगा मंहगा!'
देवाशीष उपाध्याय!