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मेरी माँ


तीज आने वाली है। हर सुहागन का एक ख़ास और ख़ुबसूरत त्यौहार। पहली बार तीज या युँ कहुँ तो पूरा सावन - भादो बहुत कुछ याद दिला गया .....रूला ही गया।

" माँ" ये शब्द मुझे बहुत पसंद है , बचपन से ही। कुछ बच्चों को जब अपनी मम्मी को माँ पूकारते देखती तो जी करता मैं भी अपनी मम्मी को माँ बुलाऊँ। पर इस "मम्मी " शब्द ने जैसे जकड़ ही लिया था "माँ" निकल ही नहीं पाता।
ससूराल आई तो सोचा यहाँ उस शब्द को ही अपनाऊँगी पर यहाँ भी सबकी ज़बान पर " मम्मी" का ही पहरा था।

जब हार गयी तो एक तरीका अपना लिया कि जिस शब्द से सीधे संबोधित नहीं कर पा रही उसे अप्रत्यक्ष रूप से जीवन में अपनाऊँगी । और आज वही करती हुँ या कर रही हुँ। किसी से भी बात करते समय " मेरी माँ" कहकर ही मम्मी को संबोधित करती हुँ लगता है जैसे दिल को सुकून मिल गया।

माँ....मेरी माँ को गए पूरे 8 महीने हो गए पर लगता है जैसे अभी कहीं से आवाज़ आएगी उसकी। आवाज़ की बात इसलिए कही क्योंकि शादी के इतने सालों में मेरी माँ से लगभग मेरी रोज़ ही बात होती थी। कभी मैं फोन न कर पाऊँ तो अगले दिन सूबह ही फोन आता " काल्ह फोन ना नू कईलू हा एहिसे फोन क देनिहा हम" ।
मेरी फोन पर गप्पे मारने की आदत नहीं है पर एक मेरी माँ ही थी जिससे दिन में एक बार तो बात होती ही थी और मम्मी अपना पूरा दिल खोलकर बात करती जैसे सहेली से बतिया रही हो। माफ किजियेगा कहीं - कहीं भोजपूरी शब्दों का इस्तेमाल कर रही हुँ वो इसलिए कि भोजपूरी और मेरी माँ का अटूट नाता रहा है.....उसने कभी भी , कहीं भी हिंदी नहीं बोला। मरते समय तक नहीं।

वैसे तो हर पल याद आती है उसकी पर इस सावन - भादो ने तो जैसे .....सावन शुरू होते ही माँ का फोन आने लगता " आज सोमारी नु ह...कईले बाड़ु नू। कुछ खईलूहा"
" परसों तीज ह , काल्ह लहसून - पियाज मत खईह " तीज की अगली सूबह " पानी पियलू हा..जा आराम कर "।

इतने सालों से सारे तीज - त्यौहार कर रही हुँ , खुद भी सब समझती हुँ ...जानती हुँ पर माँ हर साल हर त्यौहार पर अपनी हिदायत देना नहीं भूलती थी। पर इस साल सब खतम हो गया।

सब खतम।

एक लड़की जो एक बीवी से बहु और बहु से माँ तक का सफ़र तय करके दादी माँ तक जाती है पर उसके अंदर की बेटी सदैव उसके अंदर जीवित ही रहती है। अपनी ज़िम्मेदारियों और आगे बढ़ने के सफ़र में कई सतहों पर एक परत सी तो पड़ जाती है पर जब कभी वो परत हटती है तो सब कुछ एक दम साफ़ नज़र आता है। माँ बिना जीवन और मायका दोनों ही शुन्य हो जाते हैं। बच्चों के जीवन में माँ - बाप उस उपहार स्वरूप हैं जो जब तक रहते हैं जीवन भरा - पूरा लगता है ......उनके चले जाने से हमारी दिनचर्या भले ना बदलती हो पर जीवन के एक अहम् हिस्से पर विराम ज़रूर लग जाता है।

माँ कि हिदायतें , माँ कि फटकार
याद आता है , माँ का वो दूलार
वो बातें उसकी , वो समझाना उसका
मेरी ज़रा सी चिड़चिड़ाहट पर
वो घबरा जाना उसका।

बेटी से सहेली बनना
वो हर बात बताना उसका
मैं बड़ी होती चली गयी
बो बालपन में जाना उसका
सब याद है , वो प्यार भरा मनुहार।
याद आता है , माँ का वो दूलार।

वो उसका धीरे-धीरे क्षीण होना
वो शरीर का मुरझाना उसका
मेरे पास , बहुत पास होकर
वो दूर चले जाना उसका
बता नहीं पायी, कितना करती हुँ उससे प्यार
ये रिश्ता यहीं थम गया, थम गया मेरा संसार
याद आता है हमेशा , मेरी " माँ" का वो दूलार