mere lafz meri kahaani - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

मेरे लफ्ज़ मेरी कहानी - 4

मैं एक लेखिका हूँ इस नाते ये मेरा दायित्व है कि लोगों की सोच पर पड़ी हुई गर्द को अपने अल्फ़ाज़ से साफ कर दूँ , हो सकता है ये गर्द पूरे तरीके से ना गिरे पर यक़ीनन कुछ तो साफ जरूर नज़र आएगा।
©मोनिका काकोड़िया




सोचती हूँ तुझे हर्फ़ दर हर्फ़ लिख दूँ
फिर सोचती हूँ,जाने कौन कौन पढ़ ले
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जलती धूप में नंगे पांव सड़कों पर भागता बचपन
सर्दी में ठिठुरता, बारिश में भीगता हुआ बचपन
शायद गाड़ियों में अपना भगवान तलाशता है
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बड़ा उल्लास था घर में महीनों से
आज क्यों इतनी ख़ामोसी आ पसरी
लगता है फिर " लक्ष्मी" चली आयी
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रहीने नियाज़ सा है ,ये मज़ाज़ तेरे होने का
अब्र से आफ़ताब करता,ख़्याल तेरे होने का
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बहुत देखें हैं हमने वफ़ा निभाने वाले
पीठ में खंज़र करते, गले लगाने वाले
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रोज़ मिलते हो बात करते हो
फिर भी एक कसक सी दिल में रहती है
यूँ किसी के ख़्वाब में आना अच्छी बात है क्या?
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चाँद तेरा,सेवइयां तेरी, तुझे ही ईद मुबारक
मुफ़लिस का रोज़ा अब भी मुसलसल
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अब बहुत फिक्र है इनको बटन दबाने वालों की
टूटी सड़को और स्कूलों की भी मरम्मत हो गयी
अजी पाँच सालों का आखरी साल जो आ गया
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जाने क्या कहर ढायेगा पहर ए शफ़क़ "जाना"
इक तो लाल रंग,ऊपर से तेरी यादें लिए हुए
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मासूम था बचपन,हर कहानी सच्ची लगती थी
बस वो ही वक़्त था जब हर शय अच्छी लगती थी
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अब कोई इमकाने - वापसी तक नहीं रही
ये राहगुज़र इश्क़ की,कब्र तक जाएगी
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किस तरह माँ सी बहन भाई को बहलाये
माँ लौटेगी दिन ढले, तब तलक आँसू ही पीने हैं
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वो हमसे रूठे, मगर इस कदर भी नहीं
वो ख़बर नहीं लेते, मगर बेफ़िक्र भी नहीं
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ये चकाचोंध तेरे शहर की तुमको मुबारक
मेरे गांव की नीम की छाँव अज़ीज मुझे
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मेरे घर का इकलौता आफ़ताब मैं ही हूँ
बूढी मां की धुँधली नज़रों का ख़्वाब मैं ही हूँ
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यकीं मानो पहचान लेती है भूख, भूख को
ग़रीबी शायद बाँट के खाना सिखाती है
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चलो तुम्हारी बात मान कर, कल से बुर्क़े में निकलेंगें
मग़र तुम लिख कर दोगे ना,फिर बलात्कार ना होंगें
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ज़िन्दगी तुमसे हमें कोई तमन्ना कब थी
हम तो इस आस पर जीतें हैं की रुख़्सत कब है
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माँ अब तुम ही रूप धरो दुर्गा का, ज्वाला का
मुझे लूट के वो महिषासुर,अब भी साँसे लेता है
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और कितनी मासूम चीख़ों की बलि चढ़ेगी
सोई सियासत की नींद उड़ाने को
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कट गयी वक़्त से पहले, रात जो भी थी
भूल जाओ सारी, निहाँ बात जो भी थी
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ज़रूरत नहीं कोई मुझसे मेरा तआरुफ़ करवाए
बख़ूबी जानती हूँ ख़ुदको कौन हूँ कैसी हूँ मैं
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नोंच कर दोनों रुख़सारों को मेरे
शर्त रखता है मुस्कराने की मुझसे
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मुझे तोड़ कर, मुझे बिखेर कर
दम भरता है ज़माना ,मुझे तराशने का
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एक कप गर्म चाय उसके साथ तेरी कुरमुरी यादें
इससे बेहतर नाश्ता , अजी नामुमकिन
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उलझन में हूँ कबसे तुम ही कहो क्या किया जाए
मातम मनाऊं मरते इश्क़ का
या दो वक़्त की रोटी का इंतेज़ाम किया जाए
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अपने लाल की भूख मिटाने को
निवाला बनेगा दूध के बाद अब
माँ के लहु का कतरा कतरा
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मुझे निजात मिले इन ज़ीस्त के लतीफ़ों से
बस इस तरहा की दोस्तों दुआ कीजिए
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मिटे ये गर्दीशें जिंदगी से मौत तक की
तो दिल भी सुकूँ से बैठे, ज़रा आराम करे
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ज़िन्दगी से बढ़कर जो मुझे ज़िन्दगी कहता था
इक ज़िन्दगी हुई अब जिये हुए उसे
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जगा कर नींद से, मेरे ख़्वाब पूछते हो
और फिर दम भी भरते हो,की हाल पूछते हो
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यहां दिल की सिली लकड़ियों से धुँआ उठता रहा
और लोग ऐसे की ज़बां से चिंगारी देते रहे
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तमन्ना रोज़ जगती है, ख़्वाहिश भी रोज़ उठती है
मगर हम भी पक्के क़ातिल हैं, क़त्ल हर रोज़ करते हैं
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तेरे दिल की गलियों में बड़ा बोशीदा मकां मेरा
ज़रा ख़्याल रखना, ना ख़िशतें ये हिल जाएं
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हाल मेरा पूछते हो , मुझसे तुम जिस तरह
इक दो बात अपने दिल से भी पूछा करो कभी
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ना देखने का हक तुम्हें ना बोलने का अधिकार है
ये रंग नये सियासती ये नया ही राष्ट्रवाद है
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कड़वी मोहब्बत उसकी
नमक उसपे मेरे अश्क़ का
ज़ायका बढ़ रहा है रोज़ मेरे इश्क़ का
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इस नक़्शे में अब रंग भरो ये सपना मेरा साकार करो
मैं भारत हूँ, भारत रहने दो ना वोटों का मैदान करो
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हर रोज़ जो हमको ख़ुदा का अक्स कहते थे
इक शब बातों बातों में ठुकरा के चल दिये
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फूँक दो ये वरक़ अखबारों के ,ठोक दो ताले इसके ठेकेदारों के
ना...ख़बरें तो जरा नहीं ,ये सियासत छापते हैं आजकल
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इंकलाबी बोल बोले कतरा कतरा लहु का
इंतज़ार-ए-आज़ादी में फिर मुल्क़ मेरा
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वतन की मांग है कि अब आँखे खोली जाएँ
बंद पलकों से तरक़्क़ी के ख़्वाब काफ़ी नहीं अब
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आम आवाम को गिर्दाब में कसती सियासत मंज़ूर नहीं
रंज और इज़्तिराब से परे पुर-सुकूँ मुल्क़ इंतिख़ाब करो
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तबस्सुम- ए -पिन्हाँ से तरन्नुम- ए -नग़मों तक हर शय
शब-ए-हिज़्र से नूर-ए-फ़िरदौस तक फ़क़त तेरा कब्ज़ा
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तू
गुरु
रक्षक
वात्सलता
करूणामयी
सृष्टि संचालक
परमात्मा तुल्य माँ
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दुहाई कभी रिवाज़ों की कभी चलन की
बनके निशाँ उभर आई है बदन पर मेरे
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ना डरूँगी, ना झुकूंगी , ना हटूँगी पीछे
आज वक़्त तेरा है, इक दिन तो मेरा भी होगा
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गोरा हूँ या काला हूँ , काया के रंग से मैं चाहे जैसा हूँ
ज़रा फ़र्क नहीं यकीं मानो,मैं भी इंसां तेरे ही जैसा हूँ
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मैं मजदूर हूँ,सबके सपनों के आलीशान आशियां बनाता हूँ
साहब का बंगला बनते ही,बेघर फिर शहर में भटकता हूँ
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अपनी ज़िंदगी की किताब के बचपन वाले अध्याय में
सीखा था हमने,ऊँची मुश्किलों को यूं ही हँसके लाँघ जाना
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बात यूं है कि बात कुछ नहीं अब कहने को दरमियाँ
लेकिन मानो तो यही है बात बहुत बड़ी समझने को
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एक दौर, एक वक्त था कभी अपना भी
शहर में बस अपने ही चर्चे हुआ करते थे
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बड़ा बेमिसाल लगता है मुझे, दो जगह अपना नाम
एक तेरे हाथ पर , दूजा अपनी ही किताब पर
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तुम्हारी हर उम्र में तुम्हें हक़ किसने दिया
मेरी हर उम्र को यूँ तबाह करने का
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प्रथाओं के नाम पर कहीं चाल तो नहीं पुरूषप्रधान समाज की
ये घूँघट हैं बस लाज का मेरे चेहरे पर,या बेड़ियाँ मेरे पाँव की
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बदला भले मेरा रूप , तेज़ाब की कुछ बूंदों ने
मेरी रूह का हर एक पहलू अब भी खूबसूरत है
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टूटा सा है कुछ तुझमें, बिखरा हुआ सा मैं हूँ
मिल जाएं हम तुमसे तो मुक़म्मल दास्तां होगी
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जीवन का सबसे अनमोल धन,दे तो दिया मेरे बाबा ने
अब भीख में, क्या बची हुई हर स्वास ले कर जाओगे
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अब भी वक़्त है कि सीलें जाएं उजड़े हुए दश्त सभी
कभी यूँ ना हो बिकने लगें, साँसे भी ऊँचे मकानों में
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लबों को मेरे सील कर कहते हैं,उठ हक की बात तो कर
बाँध कर जंज़ीरें परों पर, दिखाते हैं आज़ाद आसमाँ मुझको
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क्या जाने क्या बात थी, उस बचपन में मेरे
कद छोटा मगर ज़िंदगी मुकम्मल लगती थी
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हृदय में अंकुरित ये भावुकता प्रदर्शित करती आज भी
मृत, संवेदनहीन समाज में,मानव तुम जीवित आज भी
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सामने आ गया वो शख़्स जो,आँखों के किनारों में पिन्हा रहता था
और क़यामत देखो कि मुझ ही से आकर पूछता है 'मुझे पहचानते हो तुम '
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भूख ऐसी कि चाँद भी लगता है निवाले जैसा
उठाऊँ हाथ, तोड लूँ, और गटक जाऊँ सारा
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तुम्हारी ज़बाँ से अगर सुनूँ, वो बस मेरा ही ज़िक्र हो
मेरा ख़्याल हो, मेरी फ़िक्र हो, और सूझे तुमको कुछ नहीं
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मेरा ज़िस्म, मेरी रूह बेदाग़ होते बाबा
कच्ची उमर, मोहे ना ब्याहे होते बाबा
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चलो , मैं आज अपनी उलझनों का हल तुम्हें बता देती हूँ
देखती हूँ उसकी आँखों में और सारी मुश्किलें भुला देती हूँ
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जाने किस दौड़ में हूँ कि ना हारी ना जीती खुदसे
मुड़कर देखा तो जाना मुझ जैसों की कतार लंबी है
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पैनी नज़रों से ना नोंचा कर मेरे तन बदन को
उभार है बदन पर की सींचना हैं तेरी रगों को
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तल्ख़ी ग़र मेरी ज़बाँ की तुम्हें रास नहीं आती तो जाओ
तुम्हारी झूठ कहने ,सुनने की आदत तुमको मुबारक हो
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ख़ल्वत ऐसी की दश्ते-जुनूँ मीलों तलक चार-सू मिरे
आज फ़ुर्सत में हैं तो ज़रा सुलझा लिया जाए ख़ुदको
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ज़िन्दा हो अभी तक तो साबित तो करो
या मर चुके जो आह तक नहीं उठती
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मन्दिरों, मस्जिदो, गिरिजाघरों पर आज लग गए ताले
भूलकर भेद सारे एकरूप ईश्वर सबके मन में आ बसा
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उस ईश्वर ने मुझे इंसां बनाया था
पेट की भूख ने फिर ईश्वर बना दिया
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अलग बर्तन, अलग कमरा,अलग बिस्तर मुझे देकर
क्यों इस वरदान को रिवाज़ों में अभिशाप करते हो
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खुलेंगें जब दर मेरे हिस्से के आसमानों में
देखना मेरा भी अपना इक मकाँ होगा
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मकतब-ए-मुक़द्दर ने ही सिखाया है मुझको
किस तरह मुस्कुराते है पेट पर गाँठे लगाकर
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ये ही होता आया है,ये ही तो करते हैं सब ,इस तर्क के साथ
भला कब तक हमें ढोनी है इन मृत रीत रिवाज़ों की लाश
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बचपन के किस्सों में वो ब-ज़ाहिर मुस्काते चेहरे
इस बे-हिस ज़माने में कहाँ बे-ख़ौफ़ शहज़ादी
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बरसा है कुदरत का क़हर बशर पर वबा बनकर
लौट आया है ख़ुदा भी तबीब का चेहरा बनकर
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इक सफ़र-ए-आफ़ाक़ मेरी आँखों में पिंहां
कभी गिर्दाब-ए-अफ़कार के उस ओर तो देखो
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एक दो बोल कन्ठ से निकलें,बगावत हो ही जाने दो
जूतों की नोंक पर कब तलक ज़िन्दगी बसर होंगी
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दरख़्वास्त मेरी उस मेहताब तक पहुंचाए कोई
की वो आये तो हमें भी दीदार ए यार हो जाए
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असीर हुए हैं तेरे तसव्वुर तेरे तज़बूब में ऐसे
कि रिहायी की हमें कोई ख़्वाहिश भी नहीं
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आँखो की नमीं से पीठ की उभरी नील तक
दास्ताँ कह रही मेरी मजबूरी और भूख की
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ज़रा एहतियात बरतें जबां से अल्फ़ाज़ों की रिहाई में
कि खुल नहीं सकती एक बार कसी हुई गिरह धागों से
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तुम सुन रहे हो महज़ मेरी जबाँ का सुकूत
इस दिल के शोर पर तो कभी गौर करो
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घिन्न खाते हो तुम भले, मगर मेरा ये काम है
बदन पर कीचड़ मेरे,पर मन ख़ुदा सा पाक है
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वो जो ज़िन्दगी कह कह कर रोज़ क़त्ल करता था
अब मर मर के हर पल मुझ ही को जीता है
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दो घड़ी को उसके पहलू में बैठूँ रो लूँ जी भर के
इस तरह की मेरे वास्ते तुम दोस्तों दुआ करना
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समेट कर सारा जहान अपने दामन में
देखना है हवा का रुख़ किस ओर का है
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आशिक़ कहाँ जाएं अब छिप कर मिलने
शजर मेरे शहर के काट दिए गए सारे
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कोई तो शरारे इश्क़ लगाओ उसके भी दिल में
कब तलक तन्हा हम, जलें इस आतिशबाजी में
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मेरी आँखों के फ़रेब के तालिब बहुत हैं
वाहिद तुम ही नहीं मुक्कदर आज़माने वाले
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उभर आती है पेशानी पर शिकने बनकर
ये भूख बस पेट मे ही दबकर नहीं रहती
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मशहूर बहुत है तेरा नाम मेरे शहर में
ये वो ही है जो आंखों से जान लेते हैं
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मुझ सा , मुझे कोई दौलतमन्द नहीं लगता
खाली जेबों में कनाअत यहाँ कौन रखता है
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बह ना जाए किनारे सारे पिघल कर इसमें
कहाँ ले जाऊं मैं इन अश्क़ों के दरिया को
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शायद लगे हैं ताले नसीब पर मेरे
लौट जाती हैं ख़ुशियाँ दस्तक़ दे कर
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इतने आसां भी नहीं ये सबक़ ज़ीस्त के "जाना"
चार दिन का मग़र सफ़र मुश्किल बहुत है
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मिरे अब्सार भी किसी वीराँ मकाँ जैसे अहमक़
सराब रखते हैं कि हाक़िम लौट आएगा इक रोज़
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दानिस्ता मुझे पाश पाश करता है,लेकिन
ये तो बता मेरी खता और तेरी रज़ा क्या है
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तू मुन्तज़िर किसी फ़िरदौस का शायद
मिरे अब्सार की कहते-सुकूँ, दश्ते-जुनूँ
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बंद कमरों में कहाँ मिलती है परवाज़ पंछी को
पंख सीखते हैं फड़फड़ाना खुले आसमाँ तले
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हर्फ़ मेरे उड़ने लगे हैं बनकर परिंदे
ये शहर में बस तेरा ही मकाँ ढूंढेंगे
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चंद सिक्कों और तालियों के बीच
भूख रह गयी मेरी, तमाशा बनकर
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अब जहाँ से काला नाला निकलता है,यकीं मानो
बहुत मीठा हुआ करता था इस झील का पानी
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ज़रा नजदीक से भी गुज़रे तो साँसे रोक लेते हो
और मैनें साँस लेना तक इसी बस्ती में सीखा है
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अदम हुए जाते हैं यूँ जिस्म ओ जाँ मेरे
और भला इश्क़ से उम्मीद भी क्या करते
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गलतफहमी तुम्हें कि ख़ज़ाने सारे तुम्हारी तिजोरी में
मैं ढूंढ़ लेता हूँ उन्हें हर रोज सड़क के किनारों पर
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मशाल जलती है कब अपने लिए ,अपनो के लिए
ये जलती है कि ,जिंदगानी सबकी रोशन हो
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मेरी बिंदिया, मेरी सुर्खी अपने नाम करके
तू समझता है मेरे जिस्म का हाक़िम खुदको
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एक बन्द कमरा है और कुछ किताबें है
तुझसे इश्क़ जुरअत का और अंजाम क्या होता
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लौट आते हैं जैसे ये ज़माने जुदाई के
वक़्त वस्ल-ए-यार क्यों नहीं आता
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फ़क़त जिस्म नहीं, मेरी रूह तक तेरे हवाले थी
तूने यकीं का इक इक पल, बजारु बना डाला
✍️
ये उजली धूप आँखों से रूह में उतरने लगी
अब मोहब्बत मेरी तेरे इश्क़ में बदलने लगी
✍️
पुरानी किसी इमारत सा इश्क़ अपना
गुज़रते वक़्त में बेमिसाल होता गया
✍️
कैसा पागल, कैसा दीवाना,है ये आशिक़ मेरा
बांहों में कसता है और फिर पूछता है ज़न्नत मेरी
✍️
मैं वाहिद गुम अपने ही ख़्यालों में था
और बेबाक़ धूप मुझसे इश्क़ कर बैठी
✍️
"बेबाक शायरा"