Aadhi duniya ka pura sach - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

आधी दुनिया का पूरा सच - 1

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

1.

रानी प्रतिदिन अपनी बेटी लाली को अपनी आपबीती कहानी का एक छोटा अंश सुनाती थी और बीच-बीच में उस अंश से सम्बन्धित कई प्रश्न पूछकर उसकी स्मरण शक्ति तथा बौद्धिक क्षमताओं का विकास कर रही थी । कई बार कहानी का कोई पात्र किसी छोटी-मोटी समस्या या गम्भीर विपत्ति में फँसता, तो रानी कहानी से अलग लाली से उस समस्या से निकलने के अन्य संभावित विकल्प ढूँढने के लिए कहती और स्वयं भी ऐसी समस्याओं से निकलने के रास्ते सुझाने में लाली की सहायता करती थी ।

माँ की कहानियों में नाटकीय संघर्ष होता था और सात्विक गुण धारण करने वाले सद्पात्रों तथा तामसिक वृत्ति वाले कुटिल पात्रों की संयुक्त उपस्थिति उन कहानियों को जीवंत और रोचक बनाती थी । इसलिए माँ की कहानियाँ नन्हीं बच्ची लाली के लिए एक ओर जहाँ उसके मनोरंजन का साधन बनती थी, वहीं दूसरी ओर वह बच्ची उन कहानियों को सुनकर विषमताओं- विकृतियों से भरे समाज के छद्म और क्रूरतम रूपों से सहज ही अवगत हो रही थी। दुनिया के काले- उजले पक्षों का जो कुछ अंश माँ की कहानियों से बचता था, उसे वह टेलीविजन की स्क्रीन पर देखकर सीख रही थी।

रानी ने लाली को कहानी सुनाना शुरु किया -

एक रानी थी । परियों जैसी बहुत प्यारी-सी और बहुत सुन्दर । एक ओर जहाँ उसको छोटे-छोटे बच्चों के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता था, वहीं किसी जरूरतमन्द की सहायता और बुजुर्गों की सेवा करना भी उसको खूब भाता था ।

वह ऐसी रानी थी, जिसका रानी होना किसी अधिपति राजा के होने पर निर्भर नहीं करता था । राजा के होने पर निर्भर करना तो छोड़िए, उसके जीवन में कभी कोई राजा आया ही नहीं, जो उसके हृदय-प्रदेश पर शासन कर सके । न ही उसकी कोई प्रजा थी, जो उसको अपने श्रद्धा-सिंहासन पर आरूढ़ करे । फिर भी वह रानी थी । साहसी रानी ! स्वाभिमानी रानी ! अपने मन की स्वामिनी रानी !

जब तक रानी अपनी माता-पिता के साथ थी, तब तक संसार के कष्टों से अनभिज्ञ वह उनकी लाडली राजकुमारी थी । किंतु किशोरवय: की दहलीज पर कदम रखते ही ईश्वर का ऐसा कोप हुआ कि उसके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। तब रानी का पहली बार दुनिया के नग्न कटु यथार्थ से परिचय हुआ । इसके बाद उसके समक्ष दुनिया की बंद पुस्तक का नित्यप्रति एक नया पृष्ठ खुलता गया। उसने देखा, उसके चारों ओर धूर्तों की भीड़ है। कौन शत्रु है ? और कौन मित्रॽ ? यह पहचान करना कठिन हो गया । शत्रु किस रूप में कहाँ आक्रमण कर दे, यह अनुमान लगाना कठिन था । रानी के अस्तित्व को मिटाने के लिए कितने शत्रुओं ने किस-किस रूप में कितनी बार आक्रमण किया, इसका स्मरण-वर्णन करना उसके लिए न सरल था और न ही आवश्यक था । उसके लिए यदि कुछ आवश्यक था, तो वह था अपने स्वतंत्र अस्तित्व की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष करना और इस संघर्ष में अपने अनुकूल परिणाम प्राप्त करके विजयश्री का वरण करना । युयुत्सु प्रवृत्ति थी उसकी ! उसके अंतःकरण में सुरक्षित युयुत्सु भाव ही तो उसे रानी बनाता था ।

रानी होने का यह भाव उसमें होश सम्हालते ही प्रस्फुटित हने लगा था । यह भाव उसमें कब और कितना विकसित हुआ ॽ इसका केवल इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस अनुपात में यह भाव माँ के गर्भ में रहते हुए अंकुरित हुआ होगा, उससे कहीं अधिक उसकी परिस्थितियों ने उसमें रानी-भाव को पोषित-पल्लवित किया था ।

उस दिन रानी का जन्मदिन था । अपने सहपाठियो और अध्यापकों को बाँटने के लिए एक दिन पहले ही उसने अपने पापा से टॉफियाँ लाने के लिए कहा था । जब वह ड्रेस पहनकर स्कूल छलने के लिए तैयार हो गयी, तब पापा ने रानी की ओर टॉफियों के दो पैकेट बढ़ाते हुए कहा -

"रानी ! ले बिटिया ! तूने एक पैकेट मँगाया था, मैं दो पैकेट ले आया !"

"थैंक्यू पापा जी ! वैसे तो एक ही पैकेट काफी था ! पर कोई बात नहीं ! अब मैं सबको चार-चार टॉफियाँ बाँटूँगी !" रानी दौड़कर पापा के सीने से लग गयी ।

"आज हम हमारी बेटी का जनम दिन खूब शान से मनाएँगे ! सब मोहल्ले वालों की दावत करूँगे ! तेरी माँ ने तुझे बताया नहीं !"

"बताया है !" रानी ने रुआँसी मुद्रा बनाकर कहा ।

"अरे ? मेरी रानी बिटिया किस बात से नाराज़ हो रही है ?"

"माँ ने मुझे मेरी नयी ड्रेस पहनने से मना कर दिया कि नयी ड्रेस शाम को पहनना है !"

"माँ कह रही है, तो शाम को पहन लेना ! अब स्कूल में तो तुम उस ड्रेस को पहनकर नहीं जा सकती न !"

"पापा, आज स्कूल की छुट्टी कर लूँ ?"

"श्-श्-श्-श्... ! स्कूल की छुट्टी नहीं करते ! माँ ने सुन लिया, तो हम दोनों को डाँट पड़ेगी !"

रानी को पापा समझा ही रहे थे, तभी तेज गति से आकर माँ ने रानी को स्नेहपूर्वक कहा -

"चल बेटी, जल्दी कर ! पहले ही बहुत देर हो गयी है ! तुझे स्कूल में छोड़कर मनसा काकी को तेरे जन्मदिन में आने के लिए न्योता देने भी जाना है और लौटकर आज घर के बहुत से काम निबटाने हैं !"

रानी ने अपने कंधे पर स्कूल बैग लटकाया और माँ के साथ-साथ चल पड़ी । घर से निकलकर कुछ कदम चलते ही रानी ने माँ से कहा -

"थैंक्यू माँ ! माँ तू सच्ची में बहुत-बहुत-बहुत अच्छी है ! घर में रुपये नहीं थे, फिर भी मुझे परियों वाली इतनी अच्छी ड्रेस दिलवायी है ! पर जब रुपये नहीं हैं, तब दूसरों से कर्ज लेकर दावत मे खर्च करने की क्या जरूरत है ?"

"तू अपनी क्लास में पहले नम्बर पे आयी है, इसलिए ...!"

"अच्छा माँ, मेरे स्कूल से लौटते ही मुझे मेरी नयी ड्रेस पहनने दोगी ?"

"हाँ, बिल्कुल ! अपनी लाडो को मैं शाम को अपने हाथों से परियों वाली ड्रेस पहनाऊँगी !"

माँ-बेटी बातें करते-करते अब तक विद्यालय के मुख्य द्वार के निकट पहुँच चुकी थी । विद्यालय में प्रार्थना की घंटी बज रही थी । घंटी का स्वर सुनते ही माँ को नमस्ते करते हुए रानी तेजी से दौड़ते हुए विद्यालय प्रागण में प्रवेश कर गयी और कुछ ही क्षणों में माँ की आँखों से ओझल हो गयी ।

अपराह्न दो बजे छुट्टी की घंटी बजते ही धक्का-मुक्की करते हुए स्कूल के अधिकांश बच्चे अपने-अपने घर के लिए रवाना हो चुके थे। कोई रिक्शे से जा रहा था, तो कोई अपने माता-पिता, बहन-भाई या अन्य किसी अभिभावक के साथ उनका हाथ पकड़े हुए पैदल अपने घर की ओर जा रहा था । रानी को भी प्रतिदिन उसकी माँ लेने के लिए आती थी, इसलिए छुट्टी होने के पश्चात् वह विद्यालय के मुख्य द्वार के निकट सड़क पर अपनी माँ की प्रतीक्षा में आँख गड़ाए हुए खड़ी थी । विद्यालय की छुट्टी हुए अब लगभग दस मिनट हो चुके थे और अब तक अधिकांश छात्र-छात्राएँ विद्यालय से निकलकर गंतव्य स्थान अपने घर की ओर बढ़ चुके थे । लेकिन, रेणु को दूर-दूर तक कहीं माँ नहीं दिखायी पड रही थी । वह सोचने लगी -

"आज से पहले तो माँ ने कभी इतनी देर नहीं की थी ! जब मैं स्कूल से बाहर निकलती थी, हमेशा माँ स्कूल के बड़े दरवाजे पर मेरी प्रतीक्षा करते हुए खड़ी मिलती थी ! माँ आज अब तक मुझे स्कूल से लेने क्यों नहीं आयी ? सुबह माँ स्कूल छोड़कर गई थी, तब माँ ने नहीं बताया था कि वह छुट्टी के समय लेने के लिए नहीं आएगी ! इसलिए माँ आएगी तो जरूर !"

स्कूल के बाहर सड़क पर खड़े-खड़े माँ के आने की आशा में सोचते-सोचते राह तकते- तकते रानी की आँखें थकने लगी थी । रानी को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे ? उसी समय उसके निकट एक कार आकर रुकी और उसके कानों में चिर-परिचित स्वर गूंजा -

"रानी !"

'रानी' स्वर कानों में पड़ते ही रानी ने मुड़कर गाड़ी की ओर देखा । रानी ने देखा, उनके पड़ोसी अंकल, जो उसके पिता के मित्र भी थे और प्राय: घर पर आते-जाते रहते थे, गाड़ी का शीशा खोलकर रानी को अपनी ओर आने का संकेत कर रहे थे । संकेत समझकर रेणू गाड़ी के निकट आयी, ताकि अंकल के कहे शब्दों को आसानी से सुन-समझ सके । तब तक गाड़ी की पिछली खिड़की खुल चुकी थी और पडोसी अंकल संकेत से रानी को पिछली सीट पर बैठने के लिए कह रहे थे । रानी ने देखा, अंकल के बगल वाली सीट पर एक अपरिचित महिला बैठी है । यह देखकर रानी ठिठक कर रुक गयी और सोचने लगी -

"माँ ने कहा था, चाहे जितनी भी देर हो जाए, मेरी प्रतीक्षा करना ! मेरे और अपने पापा के अलावा किसी पर भरोसा नहीं करना और किसी गैर के साथ नहीं जाना है !"

माँ द्वारा दी गयी चेतावनी का स्मरण करके रानी बोली-

"नहीं अंकल ! आप जाइए ! मम्मी आ ही रही होगी ! वे हमेशा टाइम पर मुझे लेने के लिए आती है, बस आज थोड़ी देर हो गई है !

"रानी, मम्मी आने की हालत में होती, तो तेरी छुट्टी होने से पहले ही आ जाती। सुबह तुझे छोड़कर लौटते समय एक गाड़ी ने तेरी माँ को टक्कर मार दी थी। वह गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती है। बिस्तर पर लेटे-लेटे भी उसको तेरी चिंता हो रही है। इसलिए तुझे लेने के लिए मैं वहीं से आ रहा हूँ !"

पडोसी अंकल की सूचना से रानी घबरा गयी । वह शीघ्रातिशीघ्र माँ के पास पहुँचकर माँ को निश्चिन्त कर देना चाहती थी। माँ के पास पहुँचने के लिए पडोसी अंकल के प्रस्ताव के साथ गाड़ी की पिछली खिड़की खुली हुई और खाली सीट उसके समक्ष थी । अतः उसने गाड़ी में बैठने को कदम आगे बढ़ाया । लेकिन, तुरंत ही उसने अपना कदम वापिस पीछे रोक लिया -

"माँ हमेशा समझाती है, कभी किसी पर भरोसा मत करना ! माँ के हर रोज समझाने के बाद भी क्या मुझे अंकल पर और अंकल द्वारा दी हुई सूचना पर भरोसा करना चाहिए?"

"अरे, रानी ! गाड़ी में बैठने में इतना टाइम क्यों लगा रही है? क्या सोच रही है? अब तक तो हम तेरी माँ के पास पहुँच जाते !" घायल माँ के पास अस्पताल में शीघ्र पहुँचने की बेटी की अधीरता के मर्म पर चोट पड़ चुकी थी । उसने अनिर्णय की शैली में उत्तर दिया -

"कुछ नहीं अंकल !"

"कुछ नहीं, तो बैठ जल्दी ! जल्दी कर !"

पड़ोसी अंकल की आदेशात्मक मुद्रा देखकर रानी ने गाड़ी में बैठने के लिए कदम आगे बढ़ा दिया । किंतु, अभी भी उसकी आँखें सड़क को दूर तक नापते हुए माँ को तलाश रही थीं और अंतःकरण में बार-बार माँ का मूक स्वर गूँज रहा था -

"कभी किसी पर भरोसा मत करना ! चाहे कितनी भी देर क्यों न हो जाए, मेरी प्रतीक्षा करना !"

दुविधा में फँसी रानी के बालमन ने अपनी क्षमतानुसार परिस्थिति के अनुरूप स्वयं ही समस्या का समाधान करके उत्तर दिया -

"अंकल कोई गैर थोड़े ही हैं ! पापा के दोस्त ही तो हैं ! मम्मी को गंभीर चोटें लगी हैं और वह अस्पताल में भर्ती हैं, तो वे देर से भी कैसे आ सकती है ?"

"ऐसा भी तो हो सकता है, माँ को चोट न लगी हो ! अंकल झूठ बोल रहे हों ?" रानी के अन्तः के अविश्वास का मूक स्वर गूँजा । तभी रानी की माँ के प्रति संवेदना को सम्बल देते हुए उसके बालमन का विश्वास धीरे से बोला -

"अंकल झूठ क्यों बोलेंगे ? और यदि यह झूठ कह रहे हैं, तो मम्मी अब तक क्यों नहीं आयी ? अंकल की सूचना सत्य भी हो सकती है ! सच में माँ को चोट लगी हो सकती है ! इसलिए वह मुझे लेने के लिए नहीं आ सकी है !"

सच-झूठ के इसी अंतर्द्वंद्ध में फँसी रानी गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ गयी । यद्यपि अभी तक भी अपनी माँ के निर्देशों को याद करके वह न तो पड़ोसी अंकल पर विश्वास कर पा रही थी और न ही उसका अंतर्मन यह स्वीकार कर सका था कि माँ उसको लेने के लिए नहीं आएगी !

क्रमश..