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महारथी कर्णःभाग-१-(विषय प्रवेश एवं गुरु परशुराम द्वारा कर्ण का अभिशापित होना।)

कौन कर्ण सा दानवीर है,इस अम्बर,धरा, रसातल में।
सदा पार्थ से श्रेष्ठ रहा,वह धनुष-बाण या भुजबल में।।
मधुसूदन सारथी न होते, माया अपनी ना दिखलाते।
तो पार्थ जैसेे योद्धा भी,रण उससे जीत नहीं पाते।।
अमर कर्ण की दानवीरता,याचक को इच्छित दान दिया।
कवच और कुंडल देकर भी, था देेवराज का मान किया।।
जब करी याचना कुन्ती ने, आदेश मातु का मान लिया।
पार्थ छोड़कर शेेष पांडव, था सबको जीवन दान दिया।।
सूर्यदेव के सुत को जग में, था सूतपूत का नाम मिला।
उसको ठुकराया माता ने, गुरू से नहीं वरदान मिला।।
लाख विघ्न आये थे पथ में, सबको ही उसने पार किया।
महाकाल भी आड़े आया, तो प्रबल प्रचंड प्रहार किया।।
सूतपुत्र के नाम से उसको, इस जग में जाना जाता था।
परन्तु कर्ण के कर्ण को बस,राधेय नाम ही भाता था।।
उसने झेले व्यंग्य बाण, पर मुख से निकलीं आह नहीं।
सर्वस्व लुटाकर भी उसने, बदले में की थी चाह नहीं।।
त्रिभुवन का सुख था ठुकराया ,कुरुपति का साथ नहीं छोड़ा।
जीवन भले मिटा डाला पर, मित्र का साथ कदापि न छोड़ा।।
वीर कर्ण ने निज जीवन में,वीरोचित ही हर काम किया।
महामरण के अवसर पर भी, निज दांत तोड़कर दान दिया ‌।।‌‌‌
कुछ बड़े हुये जब वीर कर्ण, रुचि धनुष-बाण में थी पायी।
गुरु खोजता फिरता था वह, तभी खबर उसने थी पायी।।
वह परशुराम के शिष्य द्रोण, जो धनुर्वेद के ज्ञाता हैं।
उनके सम्मुख समरभूमि में, यमराज नहीं टिक पाता है।।
इन्द्र, कुबेर, वरुण भी कोपें, तो भी विजय कदापि न पायें।
भरतभूमि के सारे योद्धा,उन चरणों में शीश झुकायें।।
कौरव और पांडवों को वह, शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा देते।
स्वाभिमानी हैं गुरू द्रोण, वह नहीं द्रुपद से भिक्षा लेते।।
सूर्यपुत्र ने सुनी प्रशंसा,तब विचार यह मन में आया।
कोई जगत में कह न पाये,कर्ण प्रयास नहीं कर पाया।।
अतः उसे अब इसी समय ही, गुरुवर के आश्रम जाना है।
कैसे भी हो किसी तरह से, गुरु द्रोण से विद्या पाना है।।
चलकर आया वह द्रोण पास, अपने परिचय को बतलाया।
कर्ण बड़ा बड़भागी होगा, जो शिष्य आपका कहलाया।।
गुरुवर के चरणों की रज भी, इस सूतपूत को मिल जाये।
कृपा-दृष्टि से मेरा सोया, भाग्य-प्रसून भी खिल जाये।।
ऐसे विनम्र शिष्य को लखकर, द्रोणाचार्य ने वचन कहे।
नहीं भाग्य में कर्ण तेरे, जो बनकर मेरा शिष्य रहे।।
मैं केवल राजकुमारों को, शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा देता।
या फिर ब्राम्हण-क्षत्रिय होते, मैं अपना शिष्य बना लेता।।
दोनों मानक पर सुनो वीर,बस खरे नहीं तुम उतर सके।
अतः विवश हूं भाग्य तेरा, मुझसे तो कैसे सुधर सके।।
पर अति प्रसन्न मैं तुमसे हूं, तो राह एक बतलाता हूं।
यश तेरा फैलेगा जग में, कुछ कारण मैं बन जाता हूं।‌।
मुझसे श्रेष्ठ वीर धनुर्धर, इस जग में माने जाओगे।
तुम परशुराम के शिष्य बनो,सर्वत्र ख्याति को पाओगे।।
आदेश द्रोण का मान लिया, परशुराम से मिलने जाते।
परशुराम के प्रण को सुनकर, वीर कर्ण मन में सकुचाते।।
विष्णु अंश ने इक्कीस बार, क्षत्रियों का वंश मिटाया था।
रणभूमि में वीर भीष्म ने,उनका भी मान घटाया था।।
परशुराम ने प्रण ले डाला, क्षत्रियों को शिक्षा नहीं दूंगा।
केवल विप्रों को शिक्षित करके, धरती के संकट हर लूंगा।।
अतः कर्ण ने मन में ठाना,विप्रों का भेष ही धरना है।
किसी भांति भी परशुराम से, मुझे विद्या अर्जित करना है।।
बाना विप्र का धारण करके, महेंद्र शैल पर आते हैं।
परशुराम की कुटिया लखकर, वह अति प्रसन्न हो जाते हैं।।
परशुराम के सम्मुख जाकर, सूर्यपुत्र ने शीश नवाया।
मुझको शिष्य बनायें गुरुवर, अनुकम्पा की देकर छाया।।
वीर कर्ण की देख विनम्रता, थे परशुराम ने वचन कहे।
मैं अति प्रसन्न हो गया वत्स, तुम परशुराम के शिष्य रहे।।
सारे रहस्य धनुर्विद्या के, मैं तुमको सब सिखलाऊंगा ‌।
तेरे समान वीर न होगा, इस दुनिया को दिखलाऊंगा।।
अतः देर अब करो नहीं तुम,शर का संधान सीखने में।
तुम पर विजय असम्भव होगी, अब रण में तुझे जीतने में।।
वीर कर्ण कुछ ही मासों में,सब दिव्य अस्त्र थे सीख लिये।
उसने निर्णय था ले डाला,निज गुरु की दिल में प्रीत लिये।।
गुरुवर के चरणों में अपना,अर्पण जीवन मैं कर दूंगा।
करके सेवा उन चरणों की,निज नाम अमर मैं कर लूंगा।।
ऐसा स्नेह गुरु से पाया, मानों वह उनके बेटे थे।
एक दिवस गुरु परशुरामजी, कर्ण की गोद में लेटे थे।।
गुरु परशुराम थे थके हुये, अतः उन्हें थी निद्रा आयी।
तभी एक मांसभक्षी कीड़ा, वीर कर्ण को पड़ा दिखायी।।
रेंगते हुये वह वीर कर्ण की,जंघा पर चढ़ता आता है।
वह वीर कर्ण का मांस काट,बस उसको खाता जाता है।।
पीड़ा होती सूर्यपुत्र को,आसन से अपने डिगा नहीं।
निद्रा भंग ना हो गुरुवर की,बस इसीलिए वह हिला नहीं।।
तन हुआ रक्त से लथपथ था, पर की उसने थी आह नहीं।
स्वयं विधाता ने भी अब तक,ऐसी देखी थी चाह नहीं।।
जब भीग गया तन गुरुवर का,बहती हुई रक्त धारा से।
गुरुवर की दृष्टि पड़ी उस पर, जैसे चीरा हो आरा से।।
तत्क्षण थे गुरुवर उठ बैठे, ‌‌‌‌‌‌‌वह वीर कर्ण पर चिल्लाये।
है कौन वीर ऐसा जग में,तुझ पर प्रहार जो कर जाये।।
तुम तो सक्षम हर विद्या में थे, फिर भी उत्तर ना दे पाये।
ऐसा कौन रहा वह कारण, जो तुमको विचलित कर जाये।।
ऐसा कौन वीर धरती पर, जो आश्रम पर आघात करे।
किस मां ने ऐसा पूत जना,जो परशुराम से बात करे।।
ऐसा प्रतीत अब होता है, तुमने गुरु का नाम लजाया।
घटना जो घटित हो चुकी थी, वीर कर्ण ने उसे बताया।।
गुरुवर की निद्रा न टूट जाय, बस इसीलिए खामोश रहा।
तब परशुराम उनसे बोले,विप्रों में नहीं यह जोश रहा।।
इतनी पीड़ा इस धरती पर, क्षत्रिय रक्त ही कर सके सहन‌।
परशुराम सब कुछ सह लेगा, कदापि झूठ नहीं करे वहन।।
और कोई पाप तुम करते, तो क्षमादान मैं दे देता।
पर विवश आज हूं वीर कर्ण,तो तुझे शाप हूं अब देता।।
धनुष-विद्या जो छल से सीखी, वह तेरे काम नहीं आये।
तुझे जरूरत उसकी होगी, तुझे हार का मुख दिखलाये।।