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एक अप्रेषित-पत्र - 2

एक अप्रेषित-पत्र

महेन्द्र भीष्म

विरह गति

प्रिय रेवा,

मेरे जीवन का पल—पल तुम्हें न्योछावर!

तुम्हें रूठकर यहाँ से गये, आज पूरा एक माह होने जा रहा है। कल शाम पापा जी का पत्र मिला था कि तुम अभी कुछ और दिन अपने मम्मी—पापा के पास देहली में ही रहना चाहती हो। रेवा! तुम क्यों नहीं आयीं ? मैं जब तुम्हें लेने गया था, तब भी मेरे साथ आना तो दूर तुम मुझ से मिली भी नहीं थीं। अभी तो हमारे विवाह को हुए एक वर्ष भी नहीं बीता है......। आगे लम्बी जिन्दगी पड़ी है। ऐसे कैसे चलेगा... भाई!

मैं मानता हूँ कि मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। साथ ही यह भी स्वीकार करता हूँ कि मैंने अपनी शारीरिक कमजोरी छिपा कर तुम से विवाह किया; परन्तु वास्तव में मैंने ऐसा क्यों किया शायद तुम समझ सको। जो तुमसे कह नहीं सका, वह इस पत्र से सम्भवतः स्पष्ट हो पाए। जब सर्वप्रथम मुझे अपनी शारीरिक कमजोरी का पता चला कि मैं किसी को शारीरिक सुख दे पाने मै पूर्णतया असमर्थ हूँ, तब मैंने तमाम नामी गिरामी डॉक्टरों, वैद्यों यहाँ तक कि तथाकथित नीम—हकीमों को भी दिखाया। उनके बताये तमाम नुस्खों का प्रयोग कर डाला; परन्तु कोई लाभ नहीं पहुँचा। थकहार कर, मैंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में केन्द्रित कर आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प ले लिया। फलस्वरूप फिजिक्स से एम.एस—सी. में यूनिवर्सिटी टॉप करने के बाद ही मुझे बंगलौर में वैज्ञानिक के पद पर नियुक्ति मिल गयी थी। तब मेरी उम्र यही कोई बाइस वर्ष की रही होगी। नौकरी मिलने के बाद से ही मेेरे मम्मी डैडी ने मुझे विवाह कर लेने के अनेक दबाव डाले, जो आज भी इस बात से अनभिज्ञ हैं कि उनका बेटा नपुंसक है। प्रारम्भ के दिनों में मैं उन्हें अपने कैरियर का वास्ता देकर टालता रहा, फिर दो साल के लिए मुझे अमेरिका रिसर्च करने के लिए मेरे विभाग द्वारा भेजा गया। अमेरिका में भी मैंने अपना मेडिकल चेकअप कराया; किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ और जब वहाँ के डॉक्टरों ने हार—सी मानते हुए यह कहा कि कुछ नहीं हो सकता, तब मैंने इस ओर सोचना ही बन्द कर दिया।

भारत वापसी के तुरन्त बाद मेरे ऊपर विवाह कर लेने का दबाव पड़ने लगा। मैं पच्चीस वर्षीय सुदर्शन नवयुवक था। अच्छी नौकरी होने के साथ—साथ मेरे आशावान भविष्य की ओर सभी की निगाहें टिकी हुई थीं। फलस्वरूप मेरे विवाह के लिए एक से एक अच्छे रिश्ते आने शुरू हो गये; किन्तु मैं अपनी शारीरिक असमर्थता के कारण किसी लड़की का जीवन तबाह नहीं करना चाहता था। साथ ही यह भी नहीं चाहता था कि किसी को मेरी इस शारीरिक कमजोरी का पता चल सके। आकर्षक व्यक्तित्व, गोरा रंग, ऊँचा कद, भरा—पूरा शरीर देखकर किसी के मन में मेरे नंपुसक होने की कल्पना तक नहीं थी। सभी अपने—अपने अनुसार मेरे विवाह न करने के विषय में अपना—अपना विचार प्रकट करते रहते। कोई कहता, ‘अभी तक मन पसन्द लड़की नहीं मिली।' कोई कहता, ‘कैरियर की ओर ध्यान दे रहा है।' तो कोई कहता, ‘विदेशी मेम से शादी करेगा।' जितने मुँह उतनी बातें।

मेरे आई.ए.एस. माता—पिता विभिन्न सरकारी विभागों में उच्च पदों में रहने के बाद अवकाश प्राप्त कर देहली में रहकर रात—दिन अपनी पुत्रवधू एवं पोते—पोती के सपने देख रहे थे।

मेरे विवाह के लिए बीसियों लड़कियों के फोटो—बॉयोडाटा सहित वह कोरियर डाक से मेरे पास भेजते और जब कभी बंगलौर आते तो स्वयं साथ में लेकर आते; परन्तु मैं विवाह न करने का दृढ़ संकल्प किये हुए था। ‘अभी मेरी उम्र ही क्या है..... मुझे मेरा कैरियर देखने दीजिये।' इत्यादि बहाने बनाकर उन्हें टालता रहता।

नपुंसक होने का मतलब यह नहीं था कि मैं सुन्दरता का प्रेमी नहीं था। मम्मी—डैडी द्वारा भेजी जाने वाली लड़कियोें की फोटो पर एक दृष्टि डालने के उपरान्त घण्टों अपने भाग्य को कोसता रहता। समय बीतता गया। मैं उन्तीस वर्ष का हो गया। इस बीच मेरी पदोन्नति भी हुई और दो बार मुझे विदेश जाने के अवसर भी प्राप्त हुए। मैं अपने कार्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित था। मैं विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित करना चाहता था। मैं विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे—ऐसे आविष्कार करना चाहता था, जिससे हमारे देश का नाम विश्व पटल पर छा जाए। मुझे सेमिनारों में बुलाया जाता। मेरे आर्टिकिल विभिन्न वैज्ञानिक पत्र, पत्रिकाओं, मैनुअलों में छपने लगे। मुझे दो बार डॉक्टर की मानद उपाधियों से सम्मानित भी किया गया। मेरे आविष्कारों और मेरे बारे में विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में छपने लगा। मुझे धीरे—धीरे ख्याति मिलने लगी। मैं अपनी धुन में मस्त था।

मैंने अपने जीवन का लक्ष्य तय कर लिया था और उस दिशा पर चल भी पड़ा था। विवाह का विचार अपने मन मस्तिष्क से पूर्णतया निकाल चुका था। जब कभी मम्मी—डैडी लड़कियों के रिश्ते लेकर मेरे पास बंगलौर आते या मैं उनके पास देहली पहुँचता, तो लड़कियों के फोटो या बॉयोडाटा में कुछ—न—कुछ कमी बताकर उन्हें टाल देता।

इसी तरह एक बार जब मम्मी—डैडी पन्द्रह—सोलह लड़कियों के फोटो—बॉयोडाटा सहित, बंगलौर मेरे पास आए, तो मैंने हमेशा की तरह उनका दिल रखने के लिए बॉयोडाटा व लड़कियों के फोटो देखने शुरू कर दिये। मैं पहले की भाँति उनमें कोई—न—कोई कमी बताने लगा। तभी नवीं या दसवीं लड़की की फोटो को देखकर मैं उस पर मुग्ध—सा हो गया। वह फोटो मैं अपने हाथ से हटा न पाया। अपलक उस अप्रतिम मुख—मंडल को निहारता चला गया। मैं भूल गया कि मुझे इसमें भी कोई कमी बतानी है। मेरे पास बैठे मेरे मम्मी—डैडी के मन में खुशी समाने लगी। वह सोचने लगे कि मैं अटका यानी फँसा यानी लड़की पसन्द आ गयी। मैं उस फोटो को देख ही रहा था कि मम्मी ने उस लड़की की विभिन्न कोणों में खिंची तीन—चार फोटो और मुझे देखने के लिए दी। मैं उन फोटों को देखते हुए किसी दूसरे लोक में पहुुँच गया। वह अप्रतिम सुन्दर फोटो तुम्हारा ही था रेवा! जिसने मेरे होश उड़ा दिये, मेरी प्रतिज्ञा भंग कर दी। मेरे हृदय में प्रेम का बीज रोपित कर दिया। मेरा निश्चय भंग कर दिया। तुम मुझे पहली ही दृष्टि में न केवल भा गयी; बल्कि मेरे हृदय की गहराइयों में उतरती चली गयी थीं। मैंने अपने आप को नियंत्रित करने की बहुत चेष्टा की; परन्तु असफल रहा। मैं तुम्हें साक्षात्‌ देखने के लिए बेहाल हो उठा। ‘हाँ' के सिवाय मेरे पास कुछ कहने को नहीं था। मेरे हृदय में तुम्हें पाने की तीव्र इच्छा होने लगी। मैंने स्वयं को बहुत समझाने की कोशिश की; परन्तु तुम्हारे रूप और बॉयोडाटा में कोई कमी बता पाने में मैं असमर्थ हो गया। तुम्हारे प्रति जन्में अचानक प्रेम ने तर्क और विवेक दोनों का हरण कर लिया था। मैं भूल गया कि मैं नपुंसक हूँ। मैं भूल गया कि मैं शारीरिक सुख दे पाने मै पूर्णतया असमर्थ हूँ। तुम्हारे प्रति जन्मे प्रेम ने हृदय में हिलोरें लेना शुरू कर दीं। निश्चय को प्रेम ने डिगा दिया। हृदय के किसी कोने से आवाज आयी कि ‘क्या शारीरिक सुख ही सब कुछ होता है ?' मैं अपनी पत्नी को अपने प्यार से इतना अभिभूत कर दूँगा कि वह शारीरिक सुख को भूल जायेगी, उसे अपना सच्चा प्यार दूँगा, उसे जी—जान से चाहूँगा, संसार भर के सारे सुख उसे उपलब्ध कराऊँगा।

......और फिर जब मैं अपने मम्मी डैडी के साथ पहली बार तुम्हें देखने तुम्हारे घर पहुँचा था, तब तो मेरे अन्दर का रहा सहा धैर्य भी जवाब दे गया। तुम्हें देखने के बाद मैं तुम्हें अपना जीवन साथी बनाने के लिए उतावला हो उठा। मैं तुमसे उसी पल से बेइन्तहा प्रेम करने लग गया। तुम्हारे मम्मी—डैडी की इजाजत के बाद देहली में तुम्हारे साथ बिताये वह अविस्मरणीय पल क्या मैं कभी भूल सकता हूँ ? विवाह पूर्व का तुम्हारा साथ, तुम्हारी बातें, तुम्हारे मोहक सौन्दर्य की समीपता, तुम्हारा वह शायराना अन्दाज मुझे अपनी नपुंसकता भुला पाने के लिए पर्याप्त था। तुम्हारी बातों से, तुम्हारे अन्दाज से मुझे संबल मिला था कि शायद तुम शारीरिक सुख की भूखी नहीं; बल्कि सच्चे प्यार की भूखी हो। मैंने तब सोचा था कि हम दोनों विवाह के बाद इस सुख के अलावा अन्य सुखों को भोगते हुए आनन्दमय जीवन बितायेंगे। मैं चाहते हुए भी तुम्हें अपनी शारीरिक कमी का बताना छिपा गया......।

.......शायद यही मेरी गलती थी; परन्तु तब मुझे भय था कि कहीं तुम मुझसे विवाह करने के लिए मना न कर दो। मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता था......रेवा।

प्रिय रेवा! मैं तम्हें अभी भी किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता हूँ। तुम मेरे जीवन का आधार और संबल हो। तुम्हारे बिना अब इस जीवन का एक पल भी मेरे लिए काटना असंभव हो गया है। जिस पल हम दोनों एक सूत्र में बंधे थे। वह मेरे लिए कितना अविस्मरणीय पल था। विदाई के बाद कार में तुम मेरे पहलू में थी। तुम्हारे मेंहदी से रचे हाथों को मैं थामें हुए था। तुम्हारा स्पर्श पाकर उस समय मैं अपने आप को संसार का सबसे भाग्यशाली व्यक्ति समझ रहा था। वास्तव में यह सत्य है कि मैं तुम्हें पाकर आज भी स्वयं को संसार का सबसे भाग्यशाली व्यक्ति मानता हूँ।

तुम्हे याद है अपनी सुहागरात में हम दोनों एक दूसरे से कितनी बातें करते रहे थे। उस रात तुम्हारी बात—चीत से मैंने निष्कर्ष निकाला था कि तुम भी मुझे उतना ही चाहती हो, जितना मैं तुम्हें। मैंने तय किया था कि तुम्हारे लिए शारीरिक सम्बन्ध गौण है। आत्मिक सम्बन्ध ही सब कुछ है। उस रात के बाद अगली दो रातों में मेरे मस्तिष्क में यह बात नंगी तलवार की भाँति मेरे सिर पर लटकती रही थी कि कहीं तुम मेरे नपुंसक होने से भड़क न उठो। तमाम कोशिशों के बाद मैं अपनी कमी को तुम्हारे ऊपर प्रकट न कर सका। इन तीन रातों में तुम कितना खुल चुकी थीं। ऐसा मैं सोच भी नहीं सकता था कि कोई लड़की अपने विवाह के कुछ ही घंटों बाद अपने पति के सामने इतनी सहज और बेतकल्लुफ हो जाती है। चौथी रात तुम ने अपने शरीर को न केवल मेरे हवाले कर दिया था। बल्कि मुझे यह एहसास भी दिला दिया था कि अब तुम प्रेम भरी वार्ता से ऊब चुकी हो..... तुम्हें प्यार भरी बातों के अलावा भी मुझसे कुछ और चाहिए ; जो मेरे पास नहीं था। पेट दर्द का बहाना कर उस समय तो मैंने तुम्हारी इस माँग से छुटकारा पा लिया था; किन्तु अगले दिन से ही अपने हनीमून टूर में मेरी सख्त परीक्षा शुरू होने वाली थी।

शिमला की हसीन वादियो से ज्यादा अच्छा तुम्हें चायल में लगा था। विश्व के सबसे ऊँचे स्थान पर स्थित क्रिकेट के मैदान पर वहाँ नन्हें—मुन्ने बच्चों के साथ हम दोनों कितनी देर तक क्रिकेट खेलते रहे थे। महाराज पटियाला का कभी गर्मियों का पैलेस रहे वर्तमान होटल में हम दोनों रुके थे। शाम चायल की छोटी बाजार से तुमने हिंमाचल प्रदेश का कितना सुन्दर पहनावा खरीदा था। वहीं पोस्ट ऑफिस में कुछ पत्र पोस्ट करने के बाद शाम सात बजे ही खाना—पीना खत्म कर हम दोनों होटल के अपने रूम में आ गये थे।

मैं तुम्हें अपनी स्वरचित कविताएँ सुनाता रहा था..... तुमने कविताओं में रुचि लेनी बन्द कर दी, मैंने सोचा तुम थक चुकी हो। तुम्हारी बन्द पलकों को चूमने के बाद मैं तुम्हें अपनी बाँहों में बाँधे सोने की तैयारी करने लगा, तभी भूचाल—सा आ गया। तुमने मुझे झकझोर डाला और एकाएक मुस्कराकर पुनः आँखें बन्द कर लेट गयीं। मेरी नींद हिरन हो चुकी थी। मैं तुम्हारा संकेत समझ गया था। तुम्हें तुम्हारा हक चाहिए था। मैं भी अपने अन्दर एक अजीब सी उत्तेजना महसूस करने लगा। इतनी अधिक उत्तेजना मुझे पहले कभी नहीं हुई थी, उसी उत्तेजना के वशीभूत मैंने तुम्हारे शरीर से कपड़े हटा दिये थे। तुम शान्त अपने चेहरे पर लज्जावश तकिया रखे जाग रही थीं। दूधिया विद्युत प्रकाश में तुम्हारे सुगठित संगमरमरी देह के अंग—अंग से यौवन छलक रहा था। मैं सब कुछ भूलकर तुम्हें चूमने लगा। मैं यह महसूस कर रहा था कि मेरी हरकतें तुम्हें सुख देती हुई उत्तेजना से भर रही हैं। साथ ही मैं अपनी शारीरिक क्षमता जानते हुए भी उस समय पौरुष से भरा तुम्हारी संगमरमरी देह को चूमता—सहलाता रहा, फिर जब तुम्हारे धैर्य का बाँध टूटा, तुमने मुझे अपने ऊपर खींच लिया उस क्षण तुम्हारी सारी शर्म कपूर की भाँति उड़ चुकी थी। तुम मुझे निर्वस्त्र कर मेरा कचूमड़ निकालने में लग गयी.... परन्तु मैं कब का...... पसीने—पसीने थका—हताश, हारे हुए खिलाड़ी की तरह तुम्हारे शरीर पर पड़ा हाँफ रहा था..... तुम्हारी बन्द मुट्‌ठी में मेरा सारा पौरुष मरी चुहिया की तरह बेजान अपने भाग्य को रो रहा था।

उस रात पहली बार मुझे स्वयं से घृणा होने लगी थी। सारी रात ईश्वर को अनेक बार कोसता रहा था मैं। क्याें उसने मुझे पूर्ण पुरुष नहीं बनाया। तुम भी शायद उस रात मेरी तरह जागी थीं। मेरी हिम्मत भी नहीं हो रही थी कि मैं तुम्हें हाथ भी लगाऊँ।

अगले दिन तुम गुम—सुम रहीं। मैं भी खोया—खोया—सा रहा। हम दोनों कहीं घूमने नहीं गये। होटल के लॉन में थोड़ा बहुत टहले, फिर अँधेरा हो जाने के बाद अपने रूम में आ गये। रात्रि भोजन के बाद सोने से पहले मैं तुम्हें बहुत देर तक समझाता रहा था। मैंने तुम से माँफी माँगी थी, जो तुम्हारी चाहत के वशीभूत हो तुम्हें विवाह से पूर्व अपनी शारीरिक कमी से अवगत न करा सका था। तुमने मेरे गालों को चूमते हुए कहा था, ‘‘अजय! अब सो जाओ।'' मुझे उस समय लगा था जैसे मैंने बाजी जीत ली है। मैं तुम्हें अपनी बाहों में भरे चूमता रहा था। तुम्हारे सामने अपना दिल खोलकर रख देना चाहता था। तुम भी मेरी प्यार भरी बातों को सुनकर मेरी भावनाओं को जानकर हर्षित हो रही थीं। तुम्हारे द्वारा यह कहने पर कि ‘‘मुझे अपने प्रतिभाशाली वैज्ञानिक पति पर गर्व है।'' सच तब मुझे लगा था कि मैंने संसार के सारे सुख पा लिये हैं। याद करो वह ‘रात' हम दोनों ने कसमें—वादे और प्यार भरी बातों में गुजार दी थी।

हनीमून से वापस लौटने के बाद तुम अपने मम्मी डैडी के यहाँ चली गयी थीं। मैं अपनी ड्‌यूटी में बंगलौर आ गया था। दस—दिन बाद ही तुम्हारी बाइसवीं सालगिरह थी। मैंने अपनी कमाई में से बचत किये गये रुपयों में से एक जड़ाऊ हार तुम्हारे जन्म दिन में तुम्हें देने के लिए खरीदा और बंगलौर में ही शानदार फ्लैट खरीदा जिसमें आधुनिक कुकिंग रेंज के साथ तमाम सुख—सुविधायें थीं। मैंने इण्टीरियर डेकोरेटर से फ्लैट की शानदार सजावट तुम्हारे लिए करवायी थी। तुम्हारा जन्म दिन यद्यपि मेरे मम्मी डैडी अपने घर में शानदार पार्टी के साथ मनाना चाहते थे; परन्तु तुम्हारी जिद पर तुम्हारे मम्मी—डैडी के बंगले में तुम्हारा जन्म दिन मनाया गया। जिसमें तुम्हारे जान पहचान के बहुत से लोग इकट्‌ठे थे। मेरे द्वारा दिए जड़ाऊ हार पर तुम्हंें खुश होता देख मुझे उस समय अपार खुशी हुई थी। उस रात तुम उस हार को पहने कितनी सुन्दर और आकर्षक लग रहीं थीं।

दो दिन बाद ही हम दोनों दिल्ली से बंगलौर फ्लाइट से आ गये थे। बंगलौर शहर तुम्हें बहुत अच्छा लगा था। वृन्दावन गार्डन घूमते हुए तुमने कहा था, ‘‘अजय, ईश्वर की कृपा से मेरे पास सब कुछ है। हर तरह के सुख तुमने मुझे दे रखे हैं। सिवाय तुम्हारे.....काश! तुम सक्षम होते तो मैं अपने आप को कितना भाग्यशाली मानती।'' तुम्हारे ये शब्द जब—तब मेरे कानो को सुनने पड़ते। सच उस वक्त मुझे अपने पैरों से जमीन खिसकती महसूस होती। मैं स्वयं को तुम्हारा अपराधी महसूस करने लगता। घण्टों मेरा चैन लुट जाता। मैं बेचैन हो उदास—सा हो जाता।

काश! रेवा तुम मेरे आत्मिक प्रेम को समझ पातीं, तो तुम जानती कि सिवाय शारीरिक सुख के मैं तुम्हें दुनिया भर की सुख—सुविधाएँ जुटा सकता हूँ। मान लो विवाह के बाद मेरा एक्सीडेण्ट हो जाता, जिसमें मैं अपनी पौरुष शक्ति खो देता, तब भी क्या तुम मुझसे इस सब की आशा करतीं? नहीं न! तो समझ लो मेरा एक्सीडेण्ट हो गया है। इस एक कमी के अलावा अन्य ढेर सारी खुशियाँ तो तुम मुझसे पाती हो। रेवा! तुम मेरे प्यार की गहराई में डूबकर देखो। मैं तुम्हंें विश्वास दिलाता हूँ संसार के उन विरले प्रेमी पुरुषों में से एक तुम्हारा यह पति भी है, जो अपनी पत्नी को अपने से भी अधिक चाहता है। तुम मेरी आँखों से एक पल के लिए भी दूर नहीं रह पाती हो। मैं तुम्हारी याद में पल—पल घुट रहा हूँ। तुम्हारे बिना अब इस संसार में मेरे लिए कुछ नहीं रह गया है। तुम्हारा साथ मेरे लिए उतना ही जरूरी हो गया है, जितना कि मछली के लिए पानी।

हर पल हँसता—खिलखिलाता तुम्हारा प्यार भरा चेहरा मेरी आँखों के सामने रहता है। तुम लौट आओ मेरे पास...... तुम्हारे बिना तो सांस लेना भी दूभर हो गया है। कल ही तुम्हारे लिए साड़ियों के एक बड़े शो रूम से सात साउथ सिल्क की बेहतरीन साड़ियाँ खरीद कर लाया हूँ। सात दिन के सप्ताह में हर दिन अलग—अलग रंगों की साड़ियाँ पहने मैं तुम्हें देखूँगा। प्रिय रेवा! मेरी हृदय मलिका, मेरी रेवा.... मैं अपने प्यार को किन—किन सम्बोधनों से सम्बोधित करूँ। शब्द भी अधूरे लगते हैं, तुम्हारे बिना मैं अपने आप को कितना असहाय, अधूरा महसूस कर रहा हूँ। तुम्हारी फोटो देखने के पहले तक मुझे इस बात का अनुमान भी नहीं था कि विरह की वेदना इतनी तीव्र इतनी कष्टकारी होती है।

संसार भर के उन तमाम साहित्यकारों के मनोभावों को मैं आज समझ पा रहा हूँ, जिन्होेंने अपनी—अपनी रचनाओं में अपने नायक—नायिकाओं के बीच किस तरह विरह वेदना का चित्रण प्रस्तुत किया है। शायद उन्होंने मेरी तरह विरह वेदना को जाना था, भोगा था, या फिर महसूस किया था; परन्तु उन तमाम सत्य या कल्पित विरह वेदना से कई गुना बढ़कर मुझे आज तुम्हारे बिना अपने प्राण संकट में लग रहे हैं। मेरा हृदय तुम्हारी समीपता पाने के लिए तड़प रहा है। एक अजीब घुटन, और एक अजीब—सा मंथन मेरे हृदय में हो रहा है।

मेरे हृदय में हो रही यह घुटन, यह मंथन तुम्हारे मेरे पास होने के बाद ही समाप्त हो सकेगा। इसे तुम समझो, मेरा किसी काम में मन नहीं लग रहा है। साथ के लोग मुझे ‘बौराया' हुआ कहते हैं। वह मेरा मजाक बना रहे हैं। रेवा! सच मैं तुम्हारे बिना बौराया हुआ हूँ। प्लीज! पत्र पाते ही चली आना, नहीं तो सच कहे देता हूँ, तुम मुझे जीवित नहीं पाओगी।

जाने—अनजाने में हुई मेरी गलतियों पर अपनी पग धूलि डालते हुए चली आना तुम। तुम्हें तुम्हारे पैर के नाखूनों से लेकर बालों के आखिरी सिरे तक मैं चूमकर प्यार करूँगा।

तुम्हारे सामने संसार के सारे सुख फीके हैं रेवा! तुम्हारी सुन्दरता ने मुझे कवि बना दिया है। सच मैंने कुछ कविताएँ डायरी में लिखी हैं। तुम आकर इन्हें पढ़ना। तुम्हारी ढेर सारी फोटो मैंने इनलार्ज कराकर फ्लैट के कोन—कोने में लगा दी हैं। ......हाँ टायलेट मै भी देखो नाराज मत होना। पता नहीं किस फिल्म का और किसका लिखा यह गीत है..

‘‘पल—पल दिल के पास तुम रहती हो। जीवन मीठी प्यास, ये कहती हो।''

इस समय टेलीविजन पर आ रहा है। मैं ड्राईंग रूम में रखे सोफे पर बैठ तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ। आज मैंने छुट्‌टी ले रखी है। सुबह से ही तुम्हें पत्र लिखने बैठ गया था। जल्दी पूरा लिखूँ, फिर इसे कोरियर डाक से भेजने पास ही स्थित कोरियर डाक के ऑफिस तक जाना है। देहली का तुम्हारा फोन और कितने दिन तक डेड रहेगा.... पत्र मिलते ही फ्लाइट पकड़ लेना। मैं इसी पत्र के साथ ही दिल्ली से बंगलौर तक का टिकट सहारा इण्डिया के फ्लाइट नम्बर एस 2—501 का भेज रहा हूँ। मैं स्वयं तुम्हें लेने उड़ आता; किन्तु नहीं आ पा रहा हूँ। .......कारण.......जाओजी नहीं बताते...... अच्छा बताये दे रहा हूँ, कारण यह है कि मैं इन दिनों एक ऐसे प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूँ जिसे हर हाल में, इसी सप्ताह पूरा हो जाना चाहिए; क्योंकि देश के प्रधानमंत्रीजी, जो स्वयं रक्षामंत्रालय भी देख रहे हैं। अगले सप्ताह ही वह हमारे संस्थान की विजिट पर आने वाले हैं और हम सब अपने इस अनूठे आविष्कार से उन्हें खुश कर देना चाहते हैं। यह आविष्कार मेरे द्वारा ही किया गया है जिसे अन्तिम रूप दिया जा रहा है..... मोहतरमा! इसके लिए मुझे जो भी पुरस्कार मिलेगा, वह तुम्हें अभी से समर्पित। हमारे संस्थान के मुख्य निदेशक श्री धींगरा सर तो यहाँ तक कह रहे हैं कि वह मेरे इस आविष्कार को नोबल प्राइज के लिए गठित कमेटी के पास भेजने के लिए प्रधानमंत्री से संस्तुति हेतु कहेंगे। बाप रे! नोेबल प्राइज सुनकर ही गश आने लगता है.... यह बेचारे नहीं जानते कि मेरा नोबल पुरस्कार तो तुम हो।

तुम्हारे साथ बिताये जीवन के तमाम स्वर्णिम पल मेरी स्मृति पटल पर छाये रहते हैं। तुम्हारी याद के बल पर ही मैं कुछ कर पा रहा हूँ। तुम आ जाओ फिर और जोर—शोर से मैं अपने काम में लग जाऊँगा। प्रधानमंत्री जी की विजिट के समय तुम भी मेरे साथ रहोगी।

कन्याकुमारी की याद है न तुम्हें ? पिछली बार समयाभाव के कारण हम ठीक से घूम भी नहीं पाये थे। दूर क्षितिज तक विस्तृत समुद्र में डूबते सूरज को फिर से देखने की तुम्हारी चाह उस समय पूरी नहीं हो पायी थी। तुम आ जाओ। प्रधानमंत्रीजी की विजिट के बाद हम दोनों सर्वप्रथम कन्याकुमारी ही चलेंगे। समुद्र में डूबते हुए लाल गोलाकार सूरज को साथ—साथ देखेंगे।

जब—तक तुम नहीं मिली थीं, तब तक मैं अपने अकेलेपन को निराले अन्दाज से जी रहा था; तब अकेलेपन का जीवन मेरे लिए सुखद था। मैं सोचता था जिन्दगी के सारे सुख तनहाई में रहकर एकाकी लूटे जा सकते हैं। अकेलेपन के वे दिन खूबसूरत लगते थे। पर वह सब मेरा भ्रम था। तुम्हारे साथ का जीवन सर्वाधिक सुखदायक है। आज तुम मुझसे दूर हो, मैं अकेला तनहाई के इन लम्हों में तुम्हारी गैर हाजिरी में गम के सागर में गोते लगा रहा हूँ। पहले जैसे अकेेलेपन के जीवन में और इस विरह के अकेलेपन में कितना विरोधाभास है। जैसे मेरे हृदय को किसी ने अपनी दोनों हथेलियों से जकड़ रखा हो। साँस हौले—हौले ऊपर नीचे हो रही है। शायद जिन्दा रहने की इस न्यूनतम अर्हता के अलावा कुछ भी मेरे पास शेष नहीं रह गया है। मेरे प्राण कंठ पर अटके पड़े हैं। तुम्हारे बिना यह जीवन निस्सार है।

ऋतुराज बसन्त का मौसम बीत चुका है। पतझड़ की शुरुआत हो चली है। कोयल का कूकना, और मोर का कुहूकना यदा—कदा सुनाई दे जाता है। दोनों अपने—अपने स्वरोच्चारण से अपनी—अपनी प्रियतमाओं को याद कर विरह—अग्नि में जल रहे हैं। ठीक मेरी तरह। इस पत्र में कोयल की कूक और मोर का कुहूकना दोनों को सुनना।

पहले मैं अकेला था; परन्तु तब मेरे साथ मेरी अभिरुचियाँ जुड़ी हुई थीं; जो अकेले होते हुए भी मुझे जीवन की सुखद अनुभूतियों का एहसास कराती रहती थीं।

अभिरुचियाँ आज भी मुझसे जुड़ी हुई हैं; किन्तु जब से तुम मेरे जीवन में आ चुकी हो, तब से ये अभिरुचियाँ तुम्हारी कमी को पूरा कर पाने में पूर्णतया अक्षम सिद्ध हो रही हैं। अब अकेलेपन की कसमसाहट ने जीना दूभर कर रखा है। तुम्हारे पास होने से ही मैं अपने आप को पूर्ण समझता हूँ। तुम्हारे पास न रहने से दिल का चैन छिना—सा रहता है। अभिरुचियाँ भी मृतप्राय हो जाती हैं और मैं स्वयं को एक सूखा वृक्ष—सा महसूस करने लग जाता हूँ, जिसमें जलने के सिवा कुछ शेष नहीं रहता है।

प्रिय रेवा! मेरे पत्र को पढ़ने के तुरन्त बाद ही चल पड़ना। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। मम्मी—डैडी को मेरा सादर प्रणाम कहना।

मेरे प्रेम की देवी, रेवा का पुजारी..........

तुम्हारा

अजय

कई पृष्ठों पर लिखे गये अपने पत्र को व्यवस्थित कर अजय ने उन्हें एक लिफाफे के अंदर रख, उस पर पता लिखने के बाद वह अपने फ्लैट के दरवाजे को इण्टरलॉक से बन्दकर, कुर्ता—पायजामा पहने, पैरों पर स्लीपर डाले सीढ़ियों से नीचे उतरकर सड़क पर पहुँचा ही था कि कोरियर डाक से भेजा गया अपनेे मित्र विनोद का पत्र उसने कोरियर डाक लानेे वाले व्यक्ति से प्राप्त किया।

अचानक इसी समय मौसम ने करवट बदली। अजय विनोद के द्वारा प्रेषित लिफाफे का कोना फाड़कर अन्दर रखे पत्र को पढ़ने लगा। पत्र पढ़ते ही वह ठगा—सा रह गया। वह सूखे पत्ते की तरह काँपने लगा, एकाएक उसका चेहरा पीला पड़ता चला गया। मानों उसके शरीर में एक भी बूँद खून शेष न बचा हो। एकाएक उसे अपने सिर में तेज पीड़ा महसूस हुई, उसके हृदय में ऐंठन—सी होने लगी। वह कभी किंकर्तव्यविमूढ़—सा अपने बाँयें हाथ में अपनी पत्नी रेवा को प्रेषित करने वाले पत्र को देखता तो कभी दाँयें हाथ में पकड़े विनोद के पत्र की उभरी पंक्तियों को देखता। तभी अचानक पतझड़ के मौसम में तेज धूल भरी आँधी चलने लगी। सड़क पर धूल का बवंडर उठने लगा। कागज के टुकड़े और बिखरा कूड़ा हवा में उड़कर अजय के शरीर से टकराने लगे। उसकी खुली आँखों में धूल के कण चले गये, जो उसकी आँखों में काँच के टुकड़ों की तरह चुभने लगे थे। उसके बाल बिखरकर धूल भरी हवा में उड़ रहे थे; परन्तु वह अपने स्थान से डिगा नहीं, वहीं ठगा—सा खड़ा रहा। उसकी दुनिया लुट चुकी थी। वह हताश, पराजित, बदहवास—सा कुछ भी सोच नहीं पा रहा था।

धूल भरी आँधी में वह छुप—सा गया। सड़क पर चल रहे राहगीर आँधी से बचने के लिए सड़क के दोनों किनारों की ओर छुप चुके थे।

कुछ देेर बाद आँधी थमी, आँधी के बाद बरसीं कुछ बूँदों की नमी में राहगीरों ने देखा एक नवयुवक कुर्ता—पायजामा पहने सड़क के किनारे बेसुध पड़ा है। फटे कागज, प्लास्टिक की पॉलीथिनें और सूखे पत्तों से उसका शरीर ढक—सा गया था। कुछ दयावान लोगों ने अजय के शरीर को टटोला, तभी वहाँ से गुजर रही पुलिस की पेट्रोल कार से उतरकर पुलिस इंस्पेक्टर ने सर्वप्रथम अजय की नब्ज टटोली; जिसका कोई पता नहीं था। इंस्पेक्टर ने अपने सिर से कैप उतार कर हाथ में ले ली। कुछ लोग मृतक के प्रति अपनी शोक संवेदना प्रकट करने लगे। तभी अजय के कुछ परिचित भी वहाँ आ गये और उन्होंने अजय के शव को उठा लिया। सभी के मन—मस्तिष्क में अजय की आकस्मिक हुई मौत का प्रश्न चिह्न समाहित था। भीड़ में खड़ा कोई बोल उठा ‘‘मौत तू कितनी आसान है।'' यह कहने वाले उस भद्र पुरुष को क्या पता कि मृत्यु के पूर्व अजय ने कठिनाइयों से भरी कितनी मानसिक वेदना झेली थी.... काश उसे पता होता।

काश! मात्र शारीरिक सुख की लालसा में अपने प्रेमी के साथ भागी उसकी बेवफा पत्नी ‘रेवा' को भी यह पता होता।

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