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आल्हा और ऊदल - दो योद्धाओं की वीर गाथा

प्रिय पाठकों,
आपने राजा - महाराजा, रानी - महारानी, सुल्तान - बेगम, सल्तनत, आदि के किस्से और कहानियां तो बहुत सुनें और पढ़े होंगे।
इतिहास के पन्नों को पलटें तो बहुचर्चित वीरगाथाओं का उल्लेख भी मिलता है जिस पर समय - समय पर कवियों और लेखकों ने अपनी कलम से अपने विचारों और भावनाओं को नए ढंग से और अलग अंदाज़ में रोचकता के साथ, समाज को अवगत और स्मरण करवाने का अमूल्य प्रयास किया है और इतिहास को संजोने में सराहनीय योगदान दिया है।

एक बार फिर से इतिहास के पन्नों को पलटकर यहां मैं आपके समक्ष वीरता और साहस की अमिट मिसाल रहे बुंदेलखंड की वीर भूमि महोबा में जन्मे दो शूरवीर भाइयों आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिक कहानी प्रस्तुत कर रहा हूं।

आल्हा और ऊदल बुन्देलखण्ड के महोबा के वीर योद्धा और परमार के सामंत थे।आल्हा और ऊदल के पिता जासर और माता देवला थी। आल्हा और ऊदल नाम के वीर योद्धाओं की वीर गाथओं का गुणगान आज भी उतर भारत के विभिन्न गांव में किया जाता हैं। आल्हा और ऊदल युद्ध कला में पारंगत और अनेकों योद्धाओं के समान बलशाली थे।

आल्हा जन्‍म से ही न्याय प्रिय थे वहीं उदल युद्ध प्रेमी थे।
एक क्षत्रिय होने के कारण युद्ध करना आल्हा का कर्तव्य था इसलिए युद्ध से घृणा होते हुए भी वह युद्धभूमि में जाने के लिए सदैव तत्पर रहते थे।अल्हा को शारदा देवी से अमरता का वरदान भी प्राप्त था।

उन्हें मां शारदा से संसार को नष्ट करने की शक्ति मिली थी। आल्हा और ऊदल का मुख्य अस्त्र उनकी तलवारें थी और आल्हा को मां शारदा की कृपा प्राप्त होने के कारण उसकी तलवार से संसार नाश करने व युद्ध में अजय रहने का वरदान प्राप्त था।
कहा जाता है कि आल्हा और ऊदल ने ही सर्वप्रथम वनों में विचरण करते हुए मां शारदा के मंदिर की खोज की थी। आल्हा ने उस मंदिर में बारह (१२) वर्षों तक मां शारदा की तपस्या की। सम्मति है कि मां शारदा के मंदिर में सबसे पहले आदिगुरु शंकराचार्य ने नौवीं शताब्दी में पूजा पाठ किया था और मां शारदा की प्रतिमा की स्थापना विक्रम संवत ५५९ (पांच सौ उनसठ) में हुई थी।

ऊदल महा पराक्रमी था और बुंदेलखंड के अधिकतर युद्धों का दारोमदार उसी के कन्धों पर था क्योंकि ऊदल की युद्ध लड़ने में विशेष रुचि रहती थी।

बुंदेलखंड में मामूली बातों पर भी लड़ाई हो जाना एक आम सी बात थी। आल्हा और ऊदल ने अपने राज्य की रक्षा और अपने साहस का लोहा मनवाने के लिए तेईस (२३) रणभूमियों में बावन (५२) लड़ाईयां लड़ी और वह एक भी लड़ाई में परास्त नहीं हुए।

आल्हा को यह ज्ञात नहीं था कि वह अमर है। और अपने अनुज भाई ऊदल की पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध में वीरगति हो जाने के पश्चात् आल्हा को यह बात पता चली। तब आल्हा ने कहा कि अगर उसे यह बात पता होती की वो अमर है तो वह अपने छोटे भाई ऊदल को कभी लड़ाईया नहीं लड़ने देता और ऊदल वीरगति को प्राप्त नहीं होता।

बैरागढ़ की युद्धभूमि में पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुंड राय ने धोखे से ऊदल के उपर वार कर उसकी हत्या कर दी थी। इसके पश्चात् आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण कर दिया किन्तु आल्हा ने अपने गुरु श्री गोरखनाथ के आदेशानुसार पृथ्वीराज चौहान को जीवन - दान दे दिया और युद्ध से सन्यास ले लिया।

मान्यता है कि इस युद्ध के पश्चात् आल्हा सर्वस्व त्याग करके कहीं चले गए थे किन्तु इस बात का किसी को बोध नहीं की वह कहां चले गए। आल्हा के जाने के बाद ना तो उनके जीवित होने का और ना ही उनकी मृत्यु का कोई प्रमाण मिला। अतः इसी कारण उन्हें अजर अमर माना जाता है।

मान्यता है कि मां शारदा ने प्रसन्न होकर आल्हा को अमरत्व का आशीर्वाद प्रदान किया था, जिस कारण आल्हा के पृथ्वीराज चौहान से हुए अंतिम युद्ध में पृथ्वराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा था। तत्पश्चात् मां शारदा के आदेश का अनुपालन करते हुए आल्हा ने अपनी तलवार को शारदा देवी के मंदिर पर समर्पित कर तलवार की नोक टेढ़ी कर दी थी और आल्हा की तलवार को आज तक कोई भी सीधा करने में असमर्थ रहा है। मंदिर के परिसर में इसके प्रमाणित पुख्ता अवशेष विद्यमान हैं जो आल्हा और ऊदल की पृथ्वीराज चौहान से हुई जंग को साबित करते हैं।

मान्यता है कि मां शारदा के मंदिर में मां की आरती के बाद मंदिर के सभी कपाट एक सुनिश्चित समय पर बंद हो जाते हैं और जब सुबह मंदिर को खोला जाता है तो मंदिर में मां की आरती और पूजा किए जाने के प्रतिदिन प्रमाण दिखते हैं। आज भी यह माना जाता है कि मां शारदा के दर्शन प्रतिदिन सर्वप्रथम आल्हा और ऊदल ही करते हैं।

बुंदेलखंड में आल्हाखंड नमक काव्य बहुत प्रसिद्ध व प्रचलित हैं जिसे कलिंगर के राजा परमार के दरबार में जागनिक नामक कवि ने रचा था। इस काव्य रचना में आल्हा के शौर्य और वीरता से प्रेरित गीत और गाथाएं रचित हैं।