Ek bund ishq - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

एक बूँद इश्क - 6

एक बूँद इश्क

(6)

उस मसाले वाली चाय को पीकर उसे बहुत अच्छा फील हो रहा है ठंड भी कुछ कम लग रही है, दूसरे काबेरी ने आते ही कमरें में अँगीठी दहका दी थी, जिसमें लाल-लाल अंगारे अभी भी सुलग रहे हैं। उसकी ताप में अलग ही गरमाहट है जो उसने कभी अपने एयर कंडीशनर में भी महसूस नही की।

खाने में काबेरी ने मंडवा की रोटी और फाणु ये एक प्रकार की पहाड़ी दाल है जो यहाँ का प्रिय भोजन है, पकाया है। पहाड़ों के दाल, मसाले जो बिल्कुल अलग होते हैं आम-तौर पर इनका दिल्ली में मिलना मुश्किल है, दूसरे अगर मिल भी गये तो पकाना भी एक चैलेंज ही है। 'जिसका काम उसको साजै' अक्सर ये कहावत उसने अपनी मम्मा से सुनी है। उसे याद है दिल्ली में हर बरस उतराँचल मेला लगता है जहाँ हर तरह की खाद सामग्री, पारम्परिक लोक संगीत, नृत्य आदि होते हैं। जहाँ से हर बार हम लोग चाय, दालें और शॉल बगैहरा खरीदते हैं मगर दालों को किस तरह बनाये ये पता नही होता? फलस्वरूप सब यूँ ही पड़ा रहता है या पकाया भी तो स्वाद नही आया।

पीतल की थाली में मंडवा की रोटी और फूल के कटोरे में गरमागरम फाणु, काबेरी लेकर आई हैं- "लो बिटिया, चलो गरम-गरम खा लो..पेट में चूहे दौड़ रहे होगें" कहते हुये उसने एक तिपाई खीच दी। थाली को उस पर रख कर कच्चा प्याज भी ले आई।

काबेरी फिर अपनी जगह बैठ कर अंगारों पर रोटियां फुलाने लगी है वह कहती जा रही है- "खालो बिटिया, नही तो ठंडी हो जायेगी, वैसे भी मंडवा की रोटी पर मक्खन बहुत अच्छा लगता है..आज घर में जो है सो पका दिया.बगैर मक्खन के ही खाना पड़ेगा।"

"वाह...काकी, क्या स्वाद खाना बनाया है आपने, अहा! मजा आ गया। ऐसा खाना बाई गॉड मैंने दिल्ली में कभी नही खाया।"

"रीमा हर निवाले पर स्वाद का आनन्द ले रही है। उसका इस तरह खाना काबेरी को उत्साहित कर रहा है। अपने प्रेम को रास्ता देते हुये वह कह रही है- "देखो पेट भर खाना..भूखी न रहना...जी भर खाना बिटिया"

"काकी इतना स्वादिष्ट खाना खाकर भला कौन भूखा रह पायेगा? बोलो तो, मैं तो यहीं रह जाऊँगी आपके पास ..हमेशा के लिये.....कभी न जाऊँगी काकी सच"

काबेरी यूँ लजाने लगी है जैसे नवेली दुल्हन ने पहली रसोई छुई हो और सब ऊँगलाई चाट रहे हों। वह खिलखिला पड़ी-

"रह जाओ बिटिया, जो रूखा-शूखा है खा लेना तुम भी..गरीबों की झोपड़े में भले ही कितने सुराग हों मगर दिल में एक नही होता..वहाँ तो सारा मोम होता है ..खरा मोम।"

काबेरी और रीमा का प्रेम वार्तालाप अभी संवेदनाओं की सीढीयाँ चढ़ ही रहा है कि गणेश दादा ने अन्दर आकर बताया- "रिजार्ट की गाड़ी आ गयी है मेमशाव, अगर आपने भोजन कर लिया हो तो चलें?"

रीमा का यह सुखदाई स्वप्न झटके से टूट कर बिखर गया। लेकिन जाना तो था ही, कब तक वह यहाँ रह सकती है? इन्सान को जो अच्छा लगता है वह सब उसका तो नही हो जाता? सबकी अपनी सीमायें हैं। मगर जो भी है यहाँ से जाने की चटखन हमेशा रहेगी।

"मेमशाव, अब कैशा लग रहा है आपको? तबियत ठीक तो है न?" इस बार शंकर ने हाथ जोड़ कर कहा तो रीमा शर्मिंदगी से भर उठी-

"यह आप लोग क्या कर रहे हैं दादा, मैं आप लोगों की अहसानमंद हूँ और हमेशा रहूँगी। आप जानते हैं अगर मैं दिल्ली में होती तो कोई हाथ भी न लगाता..सबको अपना डर होता है वहाँ सब अपने लिये जीते हैं। सड़क पर कोई हादसा हो जाये तो हजारों गाड़ियाँ सरपट दौड़ती हुई निकल जायेगीं। किसी के पास पैसे की कमी नही होती, कमी होती है तो मोम के दिल की...जो काकी के पास है" उसने काबेरी को कंधों से कस कर पकड़ लिया है वह आगे बोल रही है-

"शंकर दादा और गणेश दादा के पास है।" फिर वह धीरे से बुदबुदाईं- "परेश के पास भी नही है"

रीमा बोल रही है भावुकता की नदी उस पूरे झोपड़े को अपने आगोश में भर चुकी है। बाकि सब मौन हैं उनकी आँखें भीग रही हैं। काबेरी ने उस चुप्पी को तोड़ते हुये कहा- "क्या जरूरत है अभी रिजार्ट जाने की? यहीं रहने दो न?"

"हाँ मेमशाव, आपका जब तक दिल करे यहीं रहो, हम अभी गाड़ी को वापस भेज देते हैं।" शंकर ने शब्दों को आग्रह में बदलते हुये कहा।

गणेश भी उस वार्तालाप से भाव विभोर है। वह शंकर और काबेरी का अहसानमंद है। आखिर मेमशाव उसकी मेहमान है शंकर ने अपनी दोस्ती का हक अदा कर दिया। अब वह क्या बोले?

"हमारा घर भी यहाँ से एक मील पर होगा, मेमशाव अगर चाहो तो वहाँ चलो?"

गणेश की बात को काबेरी ने अपने तर्क की छुरी से काट दिया- "लो भय्या सुन लो, अपना तो जैसे-तैसे खुद बनाते हो घर में कोई है नही, ऐसे में मेमशाव को कौन बना कर खिलायेगा? न..न... रहने दो गणेश भय्या, बिटिया यहीं रह लेगीं हमारे पास।"

"बिल्कुल काबेरी सही कह रही है, ये गणेश भी न एक नम्बर का बेवकूफ है।"

"क्या कहा शंकर? मैं बेवकूफ हूँ और तू ? जरा आइने में खड़ा होकर देख, गंजा कहींका"

उनकी बातें सुन कर शंकर के बच्चे हँस रहे हैं।

उन सबके बीच युद्ध चल रहा है घमासान, सबके अपने अस्त्र-शस्त्र हैं जो फेंके जा रहे हैं। ऊँठ किस करबट बैठेगा पता नही। गणेश को सन्तुष्टी है कि रीमा बिल्कुल बदली हुई लग रही है। जैसे नीचें नदी के पास थी उससे बिल्कुल उलट। अब न तो किसी बैजू का जिक्र है और न ही वो हालात। जरूर यह कोई गंभीर कहानी है। कितना कठिन था वो समय? मेमशाव ये न होकर कुछ और ही थीं?

रीमा के दिल में काबेरी के दिल का मोम बह रहा है। क्या पैसे से सुख खरीदा जा सकता है? क्या इन रिश्तों जैसी गरमाहट उसे मिलेगी कहीं? ये वो अविस्मरणीय पल हैं जो हमेशा उसे भिगोते रहेगें। बस इनकी गरीबी किसी तरह दूर हो सकती? बस इतनी कि रसोई के डिब्बे खाली न रहें। काबेरी को ठंड में फर्श पर गुदड़ी बिछा कर न सोना पड़े। गणेश और शंकर को थोड़ा आराम करने का वक्त मिल जाये। लेकिन इनकी आर्थिक मद्द मैं करुँ तो कैसे करुँ? अगर इन्होनें लेने से इन्कार कर दिया तो? या फिर 'इनके प्रेम को पैसों से तोल कर मैं चली गयी' ये अपमानजनक न होगा इनके लिये?" चाहे जो है जायज मुझे इनकी मद्द तो करनी है। कोई-न-कोई रास्ता जरुर निकल आयेगा।

तमाम सवालों से जूझती रीमा खड़ी है फिर उसने कमान अपने हाथ में ले ली-

"लड़ाई बन्द कीजिये आप लोग मैं आज यहीं रहूँगी और कल भी, लेकिन कल शाम को मैं रिजार्ट चली जाऊँगी। अब तो ठीक है न?"

सभी के चेहरे खिल उठे। गाड़ी भी वापस भेज दी गयी। अभी रीमा आगे कुछ बोलती कि उसका फोन बज उठा है।

परेश का फोन है। उफफफ..परेश की आठ मिल कॉल पड़ी हैं।

"रीमा कैसी हो तुम और कहाँ हो? कितने फोन किये और कब से परेशान हो रहा हूँ?"

"मैं बिल्कुल ठीक हूँ, सॉरी..सॉरी...फोन का पता ही नही लगा परेश"

"क्या ठीक हूँ..ठीक हूँ लगा रखा है...इन दो दिनों में दो बार तुम्हारी तबियत खराब हुई है, आखिर बात क्या है? गलती मेरी ही है। तुम्हारे फैसले के आगे चुप रहा।" परेश काम के बोझ से इस नई मुसीबत को संभालने में सक्षम नही लग रहा है। उसकी झुँझलाहट जायज भी है।

"परेश धीरे बोलो, मैं यहाँ अकेले नही हूँ कुछ लोग और भी हैं जो तुम्हारी आवाज़ सुन सकते हैं। मैंने रिजार्ट वालों को मना किया था फिर उन्होनें तुम्हें फोन क्यों किया?"

"क्या होगा? फोन न करने से समस्या सुधर जायेगी? मुझे एक बात बिल्कुल समझ नही आ रही है कि वहाँ जाकर ऐसा क्या हो गया जो तुम बार-बार बेहोश हो रही हो? रीमा मैं सीरियस हूँ डार्लिंग, मुझे तुम्हारी फिक्र है।"

उन दोनों की बातों में व्यवधान न आये इसलिये सब बाहर चले गये हैं। परेश ने बताया कि वह खुद उसे लेने आ रहा है। कल दोपहर तक पहुँच जायेगा। इस बार उसकी एक नही चलेगी। रीमा शान्त रही। न चाहते हुये भी उसे जाना ही पड़ेगा। कितना अच्छा हो कि परेश भी उसके साथ कुछ दिन रुक जाये? वह भी यहाँ के नजारों से जब रू-बरू होगा तो खुद भूल जायेगा। जानेगा जिन्दगी क्या होती है? काम के बोझ ने उसे मशीन बना दिया है। कभी-कभी जिन्दगी में ठहराव जरुरी है। बेफिक्र सुबह..बेफिक्र शाम और बेफिक्र रातें....जहाँ बस वह अपने भीतर झाँक सके अपने लाइफ पार्टनर के दिल में उतर सके। खूब जी भर जी सके। सूर्य भी रात को विश्राम पर चला जाता है। वह भी कुछ देर सुनहरी किरणों से खेलता है। लगातार दौड़ते रहना स्थाई सफलता नही है। वह थक कर टूटी तो फिर न उठ पायेगी।

क्रमशः