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कर्म पथ पर - 53





कर्म पथ पर
Chapter 53


जय ने अपनी राह चुन ली थी। अपना निर्णय कर वह भुवनदा के पास पहुँचा। अपना निर्णय बताते हुए उसने कहा,
"दादा... मैंने देश और समाज के लिए कुछ करने के इरादे से अपने पापा का घर छोड़ा था। पर अभी तक तय नहीं कर पाया था कि मुझे करना क्या है। पर अब मैंने अपना मन पक्का कर लिया है। मैंने तय कर लिया है कि मैं भी वृंदा की तरह समाज की उन्नति, उसके सुधार के लिए काम करूँगा।"
उसकी बात सुनकर भुवनदा ने पूँछा,
"विचार तो तुम्हारा अच्छा है जय। लेकिन यह काम तुम करोगे कैसे ?"
"दादा मैं वृंदा के साथ मिलकर काम करना चाहता हूँ। इसलिए आपकी इजाज़त चाहिए थी।"
जय की बात सुनकर भुवनदा सोंच में पड़ गए। वह जय के इस फैसले पर विचार कर रहे थे। जय की सोंच तो सही थी। लेकिन वह वंदना के साथ मिलकर काम करना चाहता था। इसका मतलब था कि वह भी उन लोगों के साथ रहता। पहले ही मदन उन लोगों के साथ रह रहा था। यह घर बहुत बड़ा नहीं था। एक कमरे में छपाई का काम होता था। बाकी सिर्फ तीन कमरे ही थे। एक कमरा बैठक की तरह प्रयोग होता था। उसी में भुवनदा रहते थे। एक कमरे में वृंदा रहती थी। तीसरा कमरा बहुत छोटा था। उसमें बहुत सा सामान भी रखा था। मदन उसी कमरे में रहता था। बंसी आंगन या रसोई जहाँ मन करे बिस्तर लगा लेता था।
जगह की कमी तो थी ही। पर वह भुवनदा की चिंता एक और थी। उनके पास गांव वालों की बातें पहुँच रही थीं। उनका कहना था कि जिस घर में एक जवान विधवा हो वहाँ एक गैर मर्द क्यों रह रहा है। उनका इशारा मदन की तरफ था। ऐसे में अगर जय भी वहाँ आकर रहना शुरू कर देगा तो गांव वाले ‌और बातें बनाएंगे।
भुवनदा को सोंच में देखकर जय ने पूँछा,
"दादा क्या बात है ? आपको मेरा फैसला सही नहीं लगा। क्या आपको लगता है कि मैं इसे निभा नहीं पाऊँगा ?"
"जय पहली बात तो यह है कि तुम अपने जीवन के फैसले लेने के लिए स्वतंत्र हो। किसी को भी उस पर उंगली उठाने का अधिकार नहीं है। पर मैं कहूँगा कि तुमने जो फैसला लिया है वह बहुत अच्छा है। तुम उस पर खरे उतरोगे यह भी मैं जानता हूँ।"
"धन्यवाद भुवनदा। पर आप मेरा फैसला सुनकर इतना चिंतित क्यों हो गए ?"
भुवनदा ने उसे सारी बात खुलकर बता दी। सब जानकर जय भी सोंच में पड़ गया। भुवनदा ने उससे पूँछा,
"तुम तो विष्णु अग्रवाल के लिए काम करते थे ? क्या वो काम छोड़ दोगे ?"
"दादा मैंने तो यही सोंचा था। मैंने उन्हें अपना निर्णय बताया तो वो बोले कि तुमने सब कुछ व्यवस्थित कर दिया है। अब अगर तुम काम छोड़ दोगे तो फिर से सब वैसा ही हो जाएगा। इसलिए तुम काम छोड़ो नहीं।‌ जो तुम करना चाहते हो करो। उससे समय निकाल कर मेरा काम भी कर दिया करना। उन्होंने मेरी बहुत मदद की थी। इसलिए मैं मना नहीं कर पाया।"
"तो फिर तुम दोनों काम कैसे कर पाओगे ?"
"दादा उनका काम ऐसा नहीं है जिसके लिए सदा उपस्थित रहना पड़े। उनकी कुछ संपत्तियों का किराया वसूल करना होता है। उसका हिसाब किताब रखना पड़ता है। यह काम महीने में कुछ दिन वहाँ रह कर कर लूँगा। बाकी समय यहीं रहूँगा। अब तक वो जो देते थे उसमें से कुछ बचाया है। बाकी काम के बदले में जो वो देंगे बहुत होगा।"
"उनकी खेती भी तो है।"
"वह तो उनके एक रिश्तेदार संभाल रहे हैं। मुझे तो फसल पर उनका हिस्सा लेने जाना होगा। वह भी हो जाएगा।"
भुवनदा और जय दोनों ही चुप हो गए। दोनों ही इस बारे में सोंच रहे थे कि क्या किया जाए जिससे जय वहाँ रह कर अपना काम कर सके। जय को एक बात सूझी। उसने भुवनदा से कहा,
"दादा क्या आप मेरे रहने के लिए कोई जगह दिला सकते हैं। मैं वहीं रहूँगा। गांव वालों को कुछ कहने का कोई मौका नहीं मिलेगा।"
भुवनदा कुछ देर सोचने के बाद बोले,
"कोशिश करूँगा। पर हम सब यहाँ छद्म नाम से रह रहे हैं। तुम अब तक गांव वालों के संपर्क में नहीं आए थे। सुरक्षा के लिए सही होगा कि तुम भी नए नाम से यहाँ रहो।"
"ठीक है यहाँ रहने आऊँगा तो आप लोग तय कर लीजिएगा कि मेरा क्या परिचय देना है।"
भुवनदा ने कहा कि वह उसके रहने के लिए एक जगह तलाश कर सूचित करेंगे। भुवनदा से इजाज़त लेकर वह वृंदा से मिलने उसके स्कूल चला गया।
सरपंच की हवेली के एक बड़े से कमरे में स्कूल चलता था। अब छात्रों की संख्या चार से बढ़कर बारह हो गई थी। वृंदा उन बच्चों को देश की विविधता के बारे में बता रही थी। जय चुपचाप खिड़की के पास खड़ा होकर सुनने लगा।
वृंदा के चेहरे पर एक अलग ही चमक थी। वह बड़े गर्व के साथ बच्चों को बता रही थी।
"जिस देश में हम रहते हैं वह दुनिया के प्राचीन देशों में से एक है। इसे भारत और हिंदुस्तान के नाम से जाना जाता है।"
वहाँ बैठा एक लड़का उठ कर खड़ा हो गया। उसने कहा,
"दीदी अंग्रेज लोग इसे इंडिया भी कहते हैं।"
वृंदा उसकी जानकारी पर खुश होकर बोली,
"शाबाश माधव... तुमको किसने बताया ?"
अपनी तारीफ सुनकर माधव खुश हो गया। उसने सारी कक्षा पर नज़र डाली। फिर बोला,
"दीदी हमारी मौसी का लड़का अंग्रेजी पढ़ता है। उसने बताया था।"
माधव बैठ गया। वृंदा ने आगे बताना शुरू किया।
"हमारा देश केवल प्राचीन ही नहीं है बल्कि बहुत विशाल भी है।"
एक दूसरे लड़का उठकर खड़ा हो गया। वृंदा ने पूँछा,
"क्या बात है रामसरन ?"
"दीदी आप बार बार प्राचीन कह रही हैं। इसका क्या मतलब है ?"
रामसरन के सवाल पर वहाँ बैठे बच्चे हंसने लगे। वह खिसिया गया। वृंदा ने सबको डांटा। उसने कहा,
"तुम लोग हंस रहे हो। तुममें से किसी को पता है इसका मतलब ?"
सब चुप रहे। नवीन ने अपना हाथ उठा दिया। वृंदा ने उससे मतलब बताने को कहा। नवीन ने बताया,
"दीदी प्राचीन का मतलब है पुराना। बहुत पुराना।"
वृंदा ने उसे शाबाशी देकर बैठा दिया। बच्चों को समझाते हुए बोली,
"तुममें से किसी को भी इसका मतलब नहीं पता था। फिर भी रामसरन पर हंस रहे थे।"
सब बच्चे एकदम शांत थे। वृंदा ने कहा,
"तुम लोग यहाँ सीखने आते हो। इसलिए अगर कुछ ना आए तो पूँछ लेना चाहिए। जैसे रामसरन ने किया। किसी की हंसी उड़ाना भी अच्छी बात नहीं।"
उसके बाद वृंदा ने बच्चों को देश के बारे में बहुत सारी बातें बताईं। बच्चे ध्यान से उसकी बात सुन रहे थे। बीच बीच में कुछ पूँछते तो वृंदा उसका जवाब देती।
कक्षा खत्म होने पर वृंदा जब बाहर निकलने लगी तो जय ने उसे आवाज़ देकर रोका। उसे देखकर वृंदा के चेहरे पर मुस्कान आ गई। कभी वह उसे देखते ही तुनक जाती थी। इधर काफी समय से जय महसूस कर रहा था कि उसके प्रति वृंदा का बर्ताव बदल रहा है। आज उसे मुस्कुराते देखकर उसे अच्छा लगा। वृंदा उसके पास आकर बोली,
"जय तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?"
"भुवनदा से कुछ खास बात करनी थी। वह करके सोंचा तुम्हारा स्कूल देख लूँ। इसलिए चला आया।"
"कैसा लगा स्कूल ?"
"पहले से बेहतर है। अब तो बच्चे भी बढ़ गए हैं।"
"हाँ....पर अभी तक गांव वाले लड़कियों को पढ़ाने के लिए तैयार नहीं हैं।"
"कोई बात नहीं। हम दोनों मिलकर उन्हें समझाएंगे।"
वृंदा ने अचरज से उसकी तरफ देखा। जय मुस्कुरा कर बोला,
"बताता हूँ। पहले यहाँ से चलते हैं।"
दोनों घर की तरफ चल दिए। रास्ते में जय ने वृंदा के पढ़ाने के तरीके की तारीफ की। वृंदा भी उसे गांव के बारे में बताने लगी। कुछ ही समय में दोनों घर आ गए। भुवनदा कहीं गए हुए थे। बंसी ने वृंदा को पानी लाकर दिया। उसने वृंदा से पूँछा कि कुछ और चाहिए। वृंदा ने मना कर दिया। लेकिन पीछे से आवाज़ आई,
"बंसी भइया तीन कप चाय बना लाइए।"
वृंदा और जय ने पीछे घूम कर देखा। मदन खड़ा था। वृंदा ने कहा,
"इस समय चाय ? भुवनदा हैं नहीं। वरना डांट लगाते।"
"तभी तो कह रहा हूँ। जब मैं लौट रहा था तो समय रास्ते में मिले थे। उन्होंने बताया कि जय‌ आया है।"
बंसी असमंजस में खड़ा था। वृंदा हंस कर बोली,
"बना लाओ बंसी भइया।"
बंसी चाय बनाने चला गया। मदन ने आगे बढ़ कर जय को गले लगाते हुए कहा,
"कैसे आना हुआ भाई ?"
वृंदा भी जानने को उत्सुक थी। वह बोली,
"मुझे बताया था कि भुवनदा से कुछ खास बात करनी थी। अब बताओ क्या खास बात थी ?"
जय ने भुवनदा से जो बात हुई थी वह विस्तार से बता दी। सब सुनकर मदन बोला,
"तुमने सही फैसला लिया। पर भुवलदा की बात भी सही है। गांव वालों में बातें तो हो रही हैं। पर कोई बात नहीं। मैं भी कोशिश करूँगा कि कोई ठीक ठाक जगह मिल जाए।"
जय‌ ने वृंदा से कहा,
"तुम्हें तो कोई एतराज़ नहीं है कि मैं तुम्हारे साथ काम करूँ।"
वृंदा ने गंभीरता से कहा,
"मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि यह राह सबके लिए खुली है। वैसे भी इस पर जितने लोग जुड़ेंगे उतना ही अच्छा है।"
बंसी चाय बना कर ले आया। तीनों लोग चाय पीने लगे।