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राम रचि राखा - 1 - 6

राम रचि राखा

अपराजिता

(6)

अक्टूबर आधा बीत चुका था। रात में हवाएँ शीतल होने लगी थीं। बरसात की उमस पूरी तरह ख़त्म हो चुकी थी। अनुराग से मिले लगभग साढ़े तीन महीने हो चुके थे। इस बीच हम एक दूसरे को पूरी तरह न सही पर बहुत हद तक समझने लगे थे। एक दूसरे की कही को मानने लगे थे और अनकही को जानने लगे थे। जब वह साथ होता तो मन खिल उठता था। मन में एक अतिरिक्त उर्जा का संचार होने लगता था। कभी कभी मैं उससे किसी बात के लिये जिद कर बैठती थी। कभी उसे छेड़ने लगती थी।

उस दिन हम क्लब से लगभग दस बजे निकले थे। बाहर ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। पार्किंग से सटा हुआ एक बड़ा सा लान था। उसके किनारे किनारे गुलमोहर के पेड़ लगे हुए थे। दो पेड़ों के बीच पत्थर के छोटे-छोटे चबूतरे बने थे। हम कार के पास पहुँचे तभी अनुराग ने लान की तरफ इशारा करते हुए कहा, "देखो, कितना खूबसूरत लग रहा है"। "वॉउ !" मेरे मुँह से बरबस निकल गया।

सामने लान की हरी-हरी घास पर सफेद चाँदनी बिखरी हुई थी। गुलमोहर के पत्तों से छनकर चाँदनी ज़मीन पर एक स्याह-सफ़ेद चादर सी बुन रही थी। गुलमोहर के ढ़ेर सारे फूल नीचे जमीन पर बिखरे हुए थे। सब कुछ इतना मोहक लग रहा था कि मन हुआ बाहें फैलाकर एक पल में सब कुछ अपने अन्दर समेट लूँ।

मैंने अनुराग से कहा, "चलो उस गुलमोहर के नीचे चलते हैं..." वह अभी वहीं खड़ा था। "चलो न...थोड़ी देर के लिये।" मैंने उसका हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए कहा।

हम लान में आ गये। मैं अपनी बाहें फैलाकर गोल गोल घूमने लगी, "ओह, कितना सुन्दर है...कितना सुखद है!"

अनुराग गुलमोहर के नीचे खड़े चबूतरे पर एक पैर टिकाकर मुझे देख रहा था।

मैं घूमते हुए एक बार थोड़ा सा लड़खड़ा गई। अनुराग बोला, "संभल कर...कहीं मोटू की तरह तुम भी न गिर पड़ना।"

सुनते ही मैं रुक गई और मेरे होठों से हँसी का फव्वारा फूट पड़ा।

आज क्लब में लगभग अधेड़ उम्र का एक जोड़ा था। आदमी काफी मोटा था। वह पूरे उत्साह से डांस कर रहा था। जब वह घूम रहा था तो उसका पैर लड़खड़ा गया और धड़ाम से फर्श पर गिर पड़ा। वह हाथ-पैर फैलाकर चित लेट गया। लोग हँसने लगे।

मैंने हँसते हुए अनुराग के पास आकर चबूतरे पर बैठ गई। अनुराग खड़ा था। थोड़ा मेरे ऊपर झुक गया और बोला, "जानती हो, हँसते हुए तुम बहुत खूबसूरत लगती हो...।" उसकी आँखों में एक अजीब सी अधीरता दिखाई दे रही थी। मेरी हँसी रूक गई। मैं अपलक उसे देखने लगी। उसके चेहरे पर कुछ ऐसे भाव थे कि जैसे कोई तूफान उमड़ना चाह रहा हो और उसे वह दबाने की कोशिश कर रहा हो। मेरी धड़कने थोड़ी तेज हो गई थीं। मेरे आँखों में झाँकते हुए बोला, "सुनो! मैंने एक सपना देखा है।"

"क्या…?" मेरे होठों से फुसफुसाहट निकल गई।

"मैंने देखा...सफ़ेद हिम खण्डों के जुड़े हुए टुकड़ों की तरह दूर दूर तक फैले हुए बादलों की धरती...उस पर मेरी चाहत के रंग-बिरंगे से पुष्पों से बना एक घर...घर के बाहर एक झूला जिसपर तुम बैठी हो...तुम्हारे चेहरे की आभा चारों ओर बिखर रही है सूरज के किरणों की तरह...तुम्हारी खिलखिलाहट होठों से निकलकर धरती पर फूल बनकर उग रही है...मैं तुम्हें झुला रहा हूँ...अनवरत...अनंत काल तक..." उसकी आवाज़ भावात्मक तीव्रता से काँपने लगी थी। मेरी आँखें बंद हो गई थीं। मैं उन शब्दों में डूबने- उतराने लगी थी। उसने आगे कहा,"बोलो वाणी! क्या मेरे सपने को तुम सच करोगी?" ओह, उसके शब्दों में कितना कातर आग्रह था। कितना नेह था। मैं चुप थी। बिल्कुल किन्कर्त्व्यविमूढ़। एकदम सम्मोहित।

"कुछ बोलो वाणी..." वह मेरे पास बैठ गया।

"क्या कहूँ...तुम्हारे सपने के सम्मोहन में खो गई हूँ...यकीन नहीं हो रहा है कि यह सुख मेरा है...यकीन नहीं हो पा रहा है कि तुम्हारे सपने में जो है वह मैं ही हूँ...बोलो अनुराग क्या सच में वह मैं ही हूँ जिसके लिये तुमने यह सब कहा !"

"हाँ वाणी...तुम्हीं हो मेरे सपने का मूर्त रुप..." उसकी बायीं हथेली मेरे गाल पर टिक गई। उंगलियाँ मेरे कानों को सहलाने लगीं। उसके शब्द शीतल फुहार की तरह झरने लगे, "तुम्हीं हो जिसे देखा था मैंने बचपन की परी-कथाओं में...जिसे पाया था मुस्कराते हुए फूलों में...जिसे छुआ था गंगा की लहरों में..." उनके शब्द अमृत धार की तरह मेरे प्राणों में उतरने लगे थे, "तुम्हीं हो जिसे महसूस किया था किशोरावस्था की उन्नीदी आंखों में..." मेरा कण कण सिक्त होने लगा था, "तुम्हीं हो जिसे ढूँढता रहा उम्र भर...जिसे सोचता रहा हर पल...सुनो ! तुम मेरी ही आत्मा का एक टुकड़ा हो।" मैं आकंठ भर गई थी। यूँ लग रहा था जैसे मैं हवा में उड़ रही थी।

"ओह, इतना नेह…!" मैंने अपना माथा उनके कंधे पर टिका दिया, "एक दबी हुई लालसा सिर उठाने लगी है ...कैसे दबाऊँ उसे?"

"मत दबाओ।"

"बहुत चंचल है...मेरा कहा नहीं मानती..."

"मेरे पास आने दो"

"फिर वापस आना नहीं चाहेगी... बड़ी हठी है!"

"मेरे पास रह जाएगी “

"कहीं टूट कर बिखर गई तो..."

"नहीं बिखरने दूँगा...मैं रोप लूँगा उसे अपनी पलकों में।"

"ओह अनुराग...।" मैं उसके गले से लिपट गई थी।

"आई लव यू वाणी!" मेरे कानो में वह फुसफुसाया।

"आई लव यू टू अनुराग!"

कितनी ही देर तक हम वैसे ही बैठे रहे...निःशब्द...बिना कुछ कहे। हमारी धड़कने एक दूसरे को छू रही थीं। हमारे साँसे एक दूसरे को सहला रही थीं। हमारे अहसास एक दूसरे से संवाद कर रहे थे। हम चुप थे।

जैसे तेज बारिश के बाद सूर्य की पीली किरणों की मद्धिम चमक में धुला-धुला वातावरण मोहक लगता है। उसी तरह सब कुछ बहुत ही रमणीय लग रहा था। बाहर भी और अन्दर भी।

बहुत देर बाद हम लोग वहाँ से अपने-अपने घर गये।

अनुराग ने मेरे चारों तरफ सपनो की एक दुनिया बना दी थी। मैं हर वक़्त उसी में रहना चाहती थी। लग रहा था कि मैंने अब तक उसी की प्रतीक्षा की थी। मेरा हर पल उसके प्रेम से आनंदित रहने लगा। हर साँस उसके अहसास से सुवासित रहने लगी। उसकी आँखों में जब स्वयं की तस्वीर देखती तो वह दुनिया का सबसे सुन्दर दृश्य होता। मैं चाहती थी कि समय वहीं ठहर जाए।

शाम के धुंधलके में पार्क के किसी पेड़ के तने से टिककर जब वह मेरा चेहरा अपनी हथेलियों में भर लेता और कहता "आई लव यू", उसका चेहरा भाव की सघनता से भर जाता और मैं उसके शब्दों से अंदर तक भींग जाती। जब वह मुझे बाहों में लेकर अपने सीने तक उठा लेता और मेरा चेहरा उसके चेहरे पर झुक जाता तो मुझे लगता था मैं सात आसमानों के ऊपर हूँ। जब मैं उसके कंधे पर सिर टिकाकर बैठी होती और वह मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर मेरे प्रति अपनी भावनाएँ प्रकट करता तो यूँ लगता कि जैसे मैं किसी अनजान नदी में बही चली जा रही हूँ।

मेरी पहले की दुनिया मुझसे छूट रही थी। कहीं भी रहती हर पल अनुराग की प्रतिच्छाया मुझे घेरे रहती।

क्रमश..