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कर्म पथ पर - 61



कर्म पथ पर
Chapter 61




जय को नींद नहीं आ रही थी। वह अपने कमरे के बाहर छत पर टहल रहा था। आज शाम को वह वृंदा से उसी जगह मिला जहाँ वो दोनों अक्सर मिलते थे।
जब वह वहाँ पहुँचा था तो वृंदा पहले से ही मौजूद थी। वह अनमनी सी लग रही थी। जय ने ‌उससे उसकी उदासी का कारण पूँछा तो उसने अपनी आँखें उठाकर उसकी तरफ देखा था। उसकी उन आँखों में दर्द था। वह दर्द ही उसे परेशान कर रहा था। उसने उससे जो सवाल पूँछे थे वही उसे सोने नहीं दे रहे थे।
अपने दर्द का कारण बताते हुए वह इस समाज से बहुत नाराज़ थी। उसने जय से जो सवाल किया उसके शब्द ‌अभी भी उसके कानों में सुनाई पड़ रहे थे।
"जय तुम बता सकते हो कि हमारा समाज औरतों को लेकर इतना सख्त क्यों है ? क्यों उसके इर्द गिर्द परंपराओं का घेरा बना कर उसे उसमें कैद कर रखा है ? इतने पर भी चैन नहीं पड़ा तो मर्यादा की बेड़ियों में जकड़ दिया। उन परंपराओं और मर्यादाओं के अलावा उसका कोई जीवन ही नहीं है। ना वह अपने हिसाब से कुछ सोंच सकती है और ना ही कर सकती है।"
वृंदा के उस सवाल में जय को उसके व्यक्तिगत दर्द की भी अनुभूति हुई थी। लेकिन उसके पास वृंदा के सवाल का कोई जवाब नहीं था। उसने जो पूँछा था अक्सर जय भी उन्हीं प्रश्नों पर विचार करता था।
वृंदा आज शाम को बहुत ही अधिक उद्विग्न थी। उसने जय को बताया कि किस तरह लता को समाज की परंपराओं और मर्यादाओं की भेंट चढ़ाया जा रहा है। उसने अपने जीवन में कोई सुख नहीं देखा। छोटी सी उम्र में उसे जीवन भर के लिए वैधव्य झेलने पर मजबूर कर दिया गया। वह कुछ पढ़ लिख कर अपने आप को थोड़ी खुशी देना चाहती है। वह भी समाज को मंजूर नहीं है। उसे उससे भी वंचित कर दिया गया है।
अपनी उद्विग्न स्थिति में उसने जय‌ से दूसरा सवाल किया था।
"क्या उस बच्ची को अपने जीवन में छोटी सी खुशी का भी अधिकार नहीं है ? उसे यह सोंचकर कि वह अभागी है अपने दिल की हर इच्छा को कुचल देना चाहिए ? पूरी जिंदगी उस अपराध के बोध में काट देनी चाहिए जो उसने किया ही नहीं है।"
अपना सवाल पूँछते हुए उसकी आवाज़ में पीड़ा के साथ एक गुस्सा भी था। जय उस गुस्से को समझ रहा था। लता जैसी ना जाने कितनी लड़कियां इस समाज में थीं जो अकारण ही गुनहगार के जैसा जीवन बिता रही थीं। अपने प्रति हो रहे अन्याय को अपनी नियति मानकर घुट रही थीं। बहुत कम औरतें ही वृंदा की तरह लड़ कर आगे बढ़ रही थीं।
जय ने वृंदा के दूसरे सवाल का भी कोई जवाब नहीं दिया था। वह तो बस वृंदा के मन के दर्द को महसूस कर रहा था। जो सवाल वह पूँछ रही थी उनसे संबंधित पीड़ा उसकी व्यक्तिगत पीड़ा थी।
जय उसके चेहरे पर आते हुए भावों को परख रहा था। वृंदा के मन में चल रहे बवंडर को वह उसके चेहरे के भावों में देख रहा था। उस बवंडर के वेग को सह पाना उसके लिए कठिन हो रहा था। वह उठकर खड़ी हो गई थी। कुछ क्षणों तक इधर से उधर चक्कर काटती रही। शायद इस तरह अपने आप को शांत करने की कोशिश कर रही थी।
उसे इस तरह परेशान देखकर जय‌ उसके पास गया। उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे शांत करने की कोशिश की। वृंदा ने एक बार फिर उसकी तरफ देखा। ऐसा लग रहा था कि जय सारे समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए उसके सामने मौजूद हो। वृंदा उससे उसकी ज्यादतियों के लिए सवाल कर रही हो।
वृंदा ने उससे पूँछा,
"लता के मन को जबरन क्यों बंजर जमीन बनाने की कोशिश की जा रही है ? वह प्रेम नहीं कर सकती है। जीवन में वह अपने लिए किसी भी सुख की चाह नहीं कर सकती है। कभी किसी ने सोंचा है कि जब वह अपनी हमउम्र लड़कियों को सजते संवरते देखती होगी तो उस पर क्या बीतती होगी ? जब वह छोटी छोटी बातों को समझ नहीं पाते तो फिर क्या समझेंगे कि जीवन को रस देने वाली हर चीज़ से वंचित होकर अंदर ही अंदर वह कितनी सूख जाती होगी ? एक दिन इस तरह सूखते हुए वह यह भी भूल जाएगी कि वह जीवित है।"
जब वृंदा यह सवाल कर रही थी तब जय उसकी आँखों में झांक रहा था। उसे लग रहा था कि भले ही वह और वृंदा पिछले कुछ दिनों में एक दूसरे के नज़दीक आ गए हैं। पर उसके दिल का एक हिस्सा है जो उसकी पहुँच से परे है। अंदर से सूखने वाली बात दिल के उसी हिस्से से उपजी थी। वह लता की बात करते हुए अपने बारे में बात कर रही थी।
टहलते हुए जय सोंच रहा था कि वृंदा को भी तो जीवन को सिंचित करने वाले रसों से वंचित कर दिया गया है। उसे याद आया कि जब उसने वृंदा को माधुरी के बारे में बताया था तो बच्चे की बात सुनकर उसके चेहरे पर एक कोमलता सी आ गई थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे वह किसी नन्हें से बच्चे को अपनी गोद में लेकर उसे दुलार रही हो।
वृंदा ने प्रेम की बात की थी। जय सोंच रहा था कि ‌क्या ऐसा करके वह अपने दिल में उपजे प्रेम की तरफ इशारा कर रही थी। वह उसे बताना चाह रही थी कि वह उससे प्रेम करती है। जय के मन में उसके लिए प्यार था। पर उसने अपने प्यार को मन में दबा लिया था। उसे लगता था कि वृंदा इन सबसे परे अब सिर्फ देश और समाज के लिए ही सोंचती है।
उसने गलती की थी। वह यह भूल गया था कि समाज की बेड़ियों से लोहा लेने वाली, निडरता से ब्रिटिश हुकूमत का विरोध करने वाली वृंदा में भी वह औरत छिपी है जिसे प्रेम चाहिए। जीवन के छोटे छोटे सुख चाहिए।

वातावरण के लक्षण इस बात का संकेत दे रहे थे कि भोर हो रही है। उसके दिल में भी एक नई सुबह हो रही थी।
उसने तय किया था कि वह वृंदा के दिल के उस हिस्से में झांकेगा जहाँ अभी तक उसकी पहुँच नहीं थी। पर वह जानता था कि उसे बहुत सावधानी बरतनी होगी।‌ किसी तरह की जल्दबाजी नहीं करनी है। अभी वृंदा को उस पर पूरा यकीन नहीं हुआ है।‌ अगर‌ उसे विश्वास होता तो वह सीधे सीधे उससे अपने दिल की बात करती। पर उसने लता के माध्यम से अपनी बात कही थी।
जय को बड़े धैर्य के साथ वृंदा को इस बात का यकीन दिलाना था कि वह भी उससे प्यार करता है। ज़रा सी जल्दबाजी मामले को बिगाड़ सकती थी।
सुबह हो रही थी।‌ जय‌ का मन बिस्तर में जाने का नहीं हो रहा था। उसने टहलने जाने का मन बनाया। नवंबर की शुरुआत थी। ठंड पड़ने लगी थी। वह कमरे में गया। गरम मिरजई पहनी। निकल ही रहा था कि मदन ने टोंका,
"कहाँ चल दिए ? अभी तो ठीक से सुबह भी नहीं हुई।"
जय ने कहा,
"जल्दी नींद खुल गई। थोड़ा टहलने जा रहा हूँ।"
"रुको मैं भी आता हूँ।"
मदन बिस्तर छोड़ कर खड़ा हो गया। उसने भी एक स्वेटर पहन लिया। दोनों सीढियां उतरकर नीचे आए। धीरे से आंगन का दरवाज़ा खोला। अंदर से नवल किशोर के खांसने की आवाज़ आ रही थी। वह भी जाग गए थे। बिना आहट किए उन्होंने दरवाज़ा भेड़ा और चले गए।
घर से कुछ दूर आने के बाद मदन ने पूँछा,
"मुझे लगता है कि तुम सोए ही नहीं। कल से देख रहा हूँ तुम्हें। बात क्या है ?"
जय ने उसे सारी बात बता दी। सब सुनकर मदन ने कहा,
"जो तुमने सोंचा है सही है। वंदना अब तक तुम्हारे बारे में एक राय रखती आई थी। जो अच्छी नहीं थी। अब अगर उसने अपनी राय बदली है और उसे तुमसे प्यार हो गया है तो सीधे सीधे कहते उसे संकोच होता होगा। पर तुम धैर्य से ही काम लेना।"
दोनों गांव में कुछ दूर तक टहलते हुए बातें करने लगे फिर लौट गए।