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वो पल

आज मैं अपने जीवन के उस मोड़ पे खड़ा हूं जहां से सोचा जा सकता है कि मैंने गलतियां की या नहीं पर मैं गर्व से कह सकता हूं कि मैंने कोई भूल नहीं की। मुझे कोई पछतावा नहीं है कि मैंने अपने दिल की बात नहीं सुनी और जो सही भी था और वक्त की मांग भी वही किया।
बेशक वो मेरी जिंदगी के खूबसूरत पल थे जिन्हें मैं कभी भूल नहीं सकता। मैंने उन दिनों बारहवीं कक्षा के बाद परिणाम की प्रतीक्षा कर रहा था। जाहिर सी बात है गर्मी की छुट्टियों में गांव में घर वालों के अलावा रिश्तेदार भी हवा पानी बदलने आते हैं और फिर पूरे साल गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू अपने अंदर महसूस करते हैं। मेरे यहां भी बाहर रहने वाले घर के सदस्यों के अलावा कई सारे रिश्तेदार भी आए थे। मां ने बताया की हर साल जो आते हैं मेहमान उनके अलावा शहर में रहने वाले हमारे रिश्ते के फूफा जो कि प्रशासनिक सेवा में बड़े अधिकारी थे वो भी आने वाले हैं इसलिए घर को अच्छे से साफ सफाई कर दो हम सभी तैयारियों में जुटे थे और फिर 1 दिन उन हमारे अफसर फूफा जी की फैमिली भी अपने पूरे लाव लश्कर के साथ आ गई ।उनके परिवार में बुआ जी फूफा जी के अलावा उनके दो बेटे आरव और आदित्य के अलावा एक बेटी भी थी। जिसका नाम अरूणिमा था। हमारे चाचा जी ने हम सब का आपस में परिचय करवाया और कहा अब तुम लोग एक साथ मिलकर खेलना और घूमना।
मैं स्वभाव से कम बोलने वाला अपने में ही मस्त रहने
वाला था। मुझको कोई फर्क नहीं पड़ता कोई आए जाए। मै मेरा कमरा और मेरी किताबें बस इतना मुझे चाहिए था।पर उनके आने से मेरी भी डेली रूटीन में खलल पड़ रहा था। कभी भाई बहन आ कर बताते भैया फूफा जी की मोटर में मैं बैठ कर घूमने गया था । भैय्या आरव और आदित्य के पास बड़े अच्छे अच्छे खिलौने है। उन लोगों की ठाठ बाट वाली जीवन शैली देख हम सब प्रभावित हो रहे थे। आरव और आदित्य मुझसे काफी बड़े थे इसलिए मेरी उनसे दोस्ती नहीं हो पाई‌। बस सामने पड़ने पर बात कर लिया करता था। अरूणिमा मेरी हीं क्लास में पढ़ती थी। और उसे पता था कि मैं हमेशा अच्छे नंबरों से पास होता हूं। परन्तु धीरे धीरे मेरी और अरूणिमा की दोस्ती हो गई।
वो शहर में रहने के कारण
गांव के परिवेश से अनजान थी।हर चीज को कौतूहल पूर्ण नज़रों से देखती उसे पेड़ों के नीचे सुबह सुबह महुआ का बिछ जाना किसी जादू से कम न लगता।। आम के पेड़ पर कूकती कोयल तो उसे पागल हीं कर देती। वो उसके संग तब तक कू कू की आवाज निकालती जब तक कोयल लड़ती हुई उड़ ना जाती। और फिर बचकानी जिद्द चलो मेरे साथ मुझे ढूंढना है कोयल कहां गई। जब मैं मना करता की कहां ढूंढ पाऊंगा उसे तो नाराज़ हो जाती और मां से से शिकायत करने चली जाती । मामी देखो मेरा मज़ाक उड़ाया जा रहा है। मां मुझे प्यार से झिड़की लगातीं क्यूं परेशान कर रहा है।
मैं बोलता मां मैं कैसे बताऊं कि कोयल कहां गई। मां बोलतीं उसे बाग में ले जा दिखाकर आ। फिर मुझे जाना पडता। उन्हें आए अभी एक सप्ताह हीं हुए थे ।वो मेरे बिना नहीं रहती थी।
मैं कहीं भी रहूं मुझे ढूंढते हुए आ जाती। यहीं हाल मेरा भी था मैं भी जैसे इसी प्रतिक्षा में रहता की वो मेरे पास आ जाए।
अपने गांव में ही ही पड़ोस वाले चाचा जी के यहां बेटी की शादी थी और जोर शोर से तैयारियां हो रही थी।
जाहिर सी बात है हम सब को भी शादी में शामिल होना था।
दिन भर हम सब ने मिलकर बारात के स्वागत की तैयारियां की और शाम को घर आ गए क्योंकि हमें भी तैयार हो कर शादी में शामिल होने जाना था।
शाम को हम सब तैयार हो कर
पहुंच गए। अचानक मेरे सामने अरूणिमा आकर खड़ी हो गई। मेरी आंखों में देखकर पूछा कैसी लग रही हूं मैं? हमेशा की तरह उसकी आंखें शरारत से चमक रही थी। मैं अचानक से उसे सामने देखकर घबरा गया। पर जब मैंने उसकी तरफ
देखा हतप्रभ सा देखता हीं रह गया ! वो आसमानी रंग के लहंगे में बेहद खूबसूरत लग रही थी। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें
काजल से और बड़ी दिख रही थी। सुतवा नाक पे चमकती हीरे की लौग उसके राजकुमारी होने का एहसास करा रही थी। मैं थोड़ा पीछे हट गया ये कहते हुए हा हा अच्छी लग रही हो पर वो फिर पास आई और ठुनकते हुए बोली बताओ ना सिर्फ अच्छी लग रही हूं । मैं भी अपनी जान छुड़ाने के लिए कह दिया अरे ! नहीं बहुत सुन्दर लग रही हो। फिर वो वहां से चली गई। हम सबने बारात देखने के बाद खाना खाया फिर बड़े लोग शादी पूरी होने तक रूक गये और हम सब घर आकर सो गये। सुबह फिर हम सब जल्दी जल्दी उठ गये । चाचा जी के घर जाना था क्योंकि दीदी की विदाई भी तो होनी थी । हम सब चाचा जी के घर पहुंचे नाश्ते के बाद दीदी की विदाई कि तैयारियां होने लगी ।विदाई मेंदीदी सब के गले लग लग कर खूब रो रही थी अरूणिमा भीउनके साथ साथ थी और जितना दीदी रो रही थीं उतना ही अरुणिमा भी रो रही थी।
दीदी की विदाई के बाद हम सब घर आ गए और शादी की चर्चा करने लगे। सबसे ज्यादा चर्चा अरुणिमा के
रोने की हो रही थी उसने रो रोकर अपनी नाक लाल कर ली थी दीदी की विदाई की में इतना रो रही है तो अपनी विदाई में कितना रोएगी यही कह कर सब उसे छेड़ रहे थे । तभी चाची जी आ गई और अरुणिमा को मैं सीने से लगाते हुए बोली क्यों मेरी बच्ची को परेशान कर रहे हो तुम लोग मैं अपनी अपनी बेटी को दूर नहीं जने दूंगी। हा मामीजी कहते हुए अरुणिमा उनसे लिपट गई और हम सब को जीभ चिढ़ाते हुए अंगूठा दिखाने लगी।
शादी के बाद से मैं उसके अंदर बहुत परिवर्तन महसूस कर रहा था। उसकी आंखों में मुझे कुछ महसूस होता । मेरा भी मन अब उसके साथ रहने का करता । हम घंटों आम के बाग में बैठे अपने अपने स्कूल की बातें किया करते मेरे पास ज्यादा कुछ कहने को नहीं होता था बस उसकी बातों में खोया उसे निहारता रहता।बीच बीच में उसे अंमिया खाने का मन करता ,पहले तो मैं चाचा जी के आदेश के अनुसार उसकी बातों को मानता था पर अब मैं खुद ही उसकी इच्छा पूरी करना चाहता । दौड़ के घर जाता चाकू प्लेट नमक मिर्ची लेकर आता । वो बोलती पेड़ पर ऊंगली दिखाकर वो अमियां तोड़ो मुझे वहीं खानी है। मैं झट पेड़ पर चढ़ जाता और तोड़ लाता। चाकू से छीलकर उसके टुकड़े कर दे रहा था और वो मज़े ले ले कर खा रही थी। अचानक से आखिरी टुकड़ा काटते वक्त चाकू फिसल गया और मेरी ऊंगली कट गई। कट अन्दर तक लग गया था खून बहने लगा। अरुणिमा ने खून देखते हीं मेरी ऊंगली होंठों से लगा कर खून रोकने की कोशिश करने लगी। मै बहुत बेबस सा महसूस कर रहा था। उसके हाथ से छुड़ा कर अपनी ऊंगली दूसरे हाथ से दबा कर बोला ठीक हो जाएगा। फिर मैं उठकर खड़ा हो गया। चलो अरूणिमा घर चले।
हम दोनों घर आ गए।
धीरे धीरे छुट्टियां खत्म होने लगी और जाने का वक्त करीब आने लगा । जैसे-जैसे जाने का वक्त करीब आता जा रहा था। हम दोनों के बीच की दूरियां भी खत्म होती जा रही थी। अब कल ही उन सभी को जाना था।
मैं बाहर नीम के पेड़ पर लगे झूले पर बैठा किताब पढ़ रहा था।वो आई और पीछे खड़ी हो गई पर मैं जान न सका जब मेरी किताब के पन्ने पर दो बूंद पानी गिरा तब मैंने पीछे मुड़ कर देखा अपनी बड़ी बड़ी डबडबाई आंखों से अरुणिमा मुझे ही देख रही थी। मैं सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनकर पूछा क्या हुआ।बोली मैं कल जा रही हूं। तो मैं बोला हां मैं जानता हूं ।वो मेरी आंखों में देखकर बोली तुम्हें नहीं पता कि मेरी आंखों में आंसू क्यों है ? परन्तु मैं कुछ नहीं बोला। क्या पत्र लिखोगे? कोशिश करूंगा कहकर मैं वहां से चला गया। मुझे जाता वो देखती रही पर मैं मुड़ कर नहीं देखा।
सुबह से ही फूफा जी के जाने की तैयारियां हो रही थी। मां और चाची जी ने मिलकर अचार ,चटनी ,बड़ियां, मुरब्बा के साथ साथ गांव में मिलने वाली चीजें बांध दी। उनकी गाड़ी में मै सारा सामान रख रहा था । अरूणिमा आई और चंदन की
चाभी रिंग मुझे देते हुए कहा तुम तो मुझे याद करोगे नहीं। इसकी खुशबू तुम्हें मेरी याद दिलाती रहेगी। कहकर मेरी साइकिल की चाभी उसमें लगा कर मुझे दे दिया मैंने उसे जेब में रख लिया। मैं भी उसे कुछ देना चाहता था उसे अपनी याद के तौर पर पर मुझे उसके योग्य कुछ समझ नहीं आया।
हम सब के इतना सम्मान देने से बुआ फूफा जी बेहद खुश थे। धन्यवाद कहा और जाने लगे । मां समेत सभी ने उन्हें अगले साल फिर आने का निमंत्रण दिया। फूफा जी ने भी वादा किया कि वो खने की कोशिश करेंगे।हाथ हिलाकर उन सभी ने विदा लिया।
उनके जाने से घर सूना हो गया। मैं भी अरूणिमा को याद कर रहा था। कुछ समय बाद कालेज खुल गया और पढाई शुरू हो गई। पिता जी के न होने से मुझ पर जिम्मेदारियां समय से पहले आ गई थी और मुझे अपने पैरों पर खड़ा होना अनिवार्य था। मैं अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गया था कि एक दिन अरुणिमा का पत्र आया। मैंने पढ़ कर रख दिया। इस तरह कुछ कुछ समय पश्चात पत्र आते रहे पर मै जवाब न दे सका।
इस तरह एक वर्ष बीत गया गर्मी की छुट्टियों में चाचाजी ने आने के लिए कहा पर व्यस्तता की वजह से फूफा जी ने मना कर दिया। इस तरह
दो वर्ष बीत गए और अचानक एक दिन बुआ जी का पत्र आया सर्दियों में अरुणिमा का विवाह तय हो गया है लड़का भी सरकारी अफसर है और यही हमारे गांव के पास के हीं है । यहीं से शादी भी करना चाहते हैं अगर आप सब को कोई आपत्ति न हो तो हम शादी वहीं से करें। यहां किसको आपत्ति हो सकती थी । चाचा जी ने लिख दिया ये मेरा सौभाग्य है कि बिटिया की शादी यहां से हो आप आ जाइएगा हम लोग सारा प्रबंध कर देंगे। मैं कालेज से आया तो मां ने बताया कि अरूणिमा का विवाह है और यही से होगा। ये सुन कर मैं अपने कमरे में आ गया और फूट-फूट कर रोया । कुछ देर तक रोने के पश्चात मैं ने आंसू पोंछे और खुद को आने वाले समय के लिए तैयार करने लगा।
नवंबर में शादी थी वो लोग एक हफ्ते आए यहां तैयारियां जोरों पर चल रही थी। मैं भी अपने पूरे सामर्थ्य के अनुसार उसकी शादी की तैयारियों में व्यस्त हो गया। कोशिश करता की उससे सामना ना हो। परन्तु जब भी सामना हो जाता उसकी आंखें बिना कुछ कहे हीं मुझे जैसे कटघरे में खड़ा देती। मैं अनदेखा कर के बगल से निकलने का प्रयास करता। सारे खा पी कर अपने अपने बिस्तर में रजाईयो में दुबके थे मुझे आने में देर हो गई थी क्योंकि मैं शहर चला गया था। आया तो मुझे भूख लगी थी । रसोई में जाकर देखा तो कोई नहीं दिखा मैं वापस अपने कमरे में आ गया। आकर बैठा हीं था कि खाने की थाली लेकर अरूणिमा आ गई। बोली मामीजी थक गई थी तो मैंने कहा आप सो जाओ मैं जाग रही हूं । खाना दे दूंगी। मैं उठकर चुपचाप खाने लगा ।वो बोली कुछ कहोगे नही। मैंने ऊपर देखा उसकी आंखों में अजीब सा खालीपन था ऐसा महसूस हो रहा था कि उसकी दर्द में डूबी आवाज कहीं दछर से आ रही हो। मैं ने उसकी ओऊ देखकर कहा क्या चाहती हो क्या बोलूं मैं। वो फिर बोली तुम हां कर दो मैं डैडी जी से बात कर लूंगी वो बहुत ही आजाद सोच वाले हैं और मुझे बहुत प्यार करते हैं मेरी खुशी केलिए वो मान जाएंगे। कोई जवाब नहीं पाकर सूनी-सूनी नजरों से देखते हुए चली गई।
आज हलचल बहुत तेज थी । बारात आनी थी सब अपने अपने काम में व्यस्त थे। कहीं सजावट हो रही है । कहीं मिठाईयां बन रही है। एक तरफ औरतें मंगल गान और हंसी ठिठोली कर रहीं हैं। पार्लर वाली जो फूफा जी अपने संग हीं लेआए थे क्योंकि गांव में तो मिलती नहीं अरूणिमा को सजाने में व्यस्त थी। जब सारी तैयारी हो गई । बारात की प्रतिक्षा हो रही थी ।मैं अपने दिल का गुबार कम करने सुनसान छत पर चला गया और एकांत देख फफक-फफक कर रोने लगा मैं अपन दर्द किसी को भी नहीं बता सकता था। तभी किसी के कदमों की आहट सुनाई दी । मैं अपने को संयत कर आंसू पोंछने लगा। देखा तो अरूणिमा खड़ी थी। लाल जोड़े में अपने नाम के अनुरूप भोर की लाली अपने आप में समेटे सामने थी। मैं शब्दहीन सा हो गया । उसकी सारी सुन्दरता जैसे आंखों में ही समा गई थी। अपने हाथ पीछे कर रखे थे अचानक सामने कर बंद मुट्ठी खोलकर मेरे चेहरे के पास ले आई और मेरे सामने कर दिया मैंने सिंदूर की डिबिया देखी फिर पूछा ये क्या हैं । मेरी आंखों में देखकर बोली सिन्दूर है मेरी मांग भर दो बस बाकी सब कुछ मैं संभाल लूंगी। मैं ने अपनी भावनाओं को काबू कर उसे समझाने की कोशिश करने लगा बारात आने वाली है । तुम पागल हो गई हो लोग क्या कहेंगे। फूफा जी की क्या प्रतिष्ठा रह जाएगी। वो कुछ सुनने को तैयार नहीं थी ।बस तुम हां कर दो मैं डैडी जी को समझा लूंगी। मैंने जी कड़
किया और उसे डांटते हुए बोला । मैं फूफा जी के सम्मान के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता । उसकी खुली मुठ्ठी बंद की और सीढ़ियों की तरफ मोड़ दिया। वो धीरे धीरे कदमों से सीढ़ियां उतर रही थी और मेरे अंदर कुछ बिखर सा रहा था।