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सुरतिया - 1


’नमस्ते बाउजी. कैसे हैं?’
बाहर बरामदे में बैठे बाउजी यानी रामस्वरूप शर्मा जी, सुधीर के दोस्त आलोक के इस सम्बोधन और उसके पैर छूने के उपक्रम से गदगद हो गये.
’ठीक ही हूं बेटा. अब बुढ़ापे में और कैसा होना है? भगवान जितने दिन अभी और कटवाये यहां काटेंगे. अपनी इच्छा से कब कौन गया है? शरीर है तो हारी-बीमारी है, लाचारी है. क्या कीजियेगा? सब झेलना है....!’ किसी को अपनी ओर मुखातिब देख बाउजी ने सारी बातें एक साथ कह लेनी चाहीं. लेकिन तब तक सुधीर अन्दर से आ गया था. बोलते हुए बाउजी की ओर उसने जिन नज़रों से देखा, उनसे – ’क्या आप भी सबको चरने लगते हैं’ वाला भाव साफ़ दिखाई दे रहा था. बाउ जी एकदम से चुप हो गये, जैसे किसी छोटे बच्चे को चुप करा दिया गया हो.
’अच्छा बाउजी चलते हैं हम. फिर आउंगा.’ आलोक ने फिर पैर छूने का उपक्रम किया.
’जीते रहो बेटा, जीते रहो.’
’फिर आउंगा’ कह के जाने वाला आलोक आयेगा तो, लेकिन सुधीर के पास. उनके पैर छूने झुकेगा, हाल-चाल पूछेगा और फिर पूरा हाल सुने बिना ही सुधीर की ओर बढ़ जायेगा.अब कोई नई बात नहीं रह गयी ये. शुरु-शुरु में उन्हें बहुत बुरा लगता था. शुरु-शुरु यानी रिटायरमेंट के कुछ साल बाद ही. शायद दो या तीन साल बाद. ठीक से याद नहीं शर्मा जी को. अब उमर भी तो इक्यासी बरस की हो रही. दिमाग़ की मशीन आखिर क्या-क्या और कितना याद रखे?
बाउजी, यानी शर्मा जी शहर के डिग्री कॉलेज में प्रिंसिपल थे. अपनी ज़िन्दगी के लगभग चालीस साल उन्होंने इसी शहर में गुज़ार दिये हैं. गांव से कस्बा और कस्बे से शहर होते देखा है उन्होंने इसे. अभी बहुत बड़ा शहर नहीं हो पाया है, सो पैर छूने की परम्परा किसी हद तक बाक़ी है. छोटे बच्चे बड़े होने पर इसे निभायेंगे, इसमें संदेह है शर्मा जी को. संदेह इसलिये है, कि ये जो युवा हैं न, इन्होंने ही अब पैरों का स्पर्श करना बन्द कर दिया है. पैर छूने की मुद्रा में झुकते हैं, और फिर घुटनों तक हाथ ले जा के वापस लौटा लेते हैं. हो गया चरण स्पर्श. जब अभी ये हाल है, तो दस-पन्द्रह साल बाद का तो भगवान ही मालिक है. कॉलेज के प्राचार्य की हैसियत आप समझ सकते हैं. कितना रुतबा होता है उसका. फिर यदि कोई ईमानदर, कर्तव्यनिष्ठ प्राचार्य हो तो कहना ही क्या!. शर्मा जी ऐसे ही प्राचार्य थे. शहर भर के लड़के उनके पैर छूते. बराबरी वाले नमस्कार में हाथ जोड़े, सिर झुकाये हर जगह मिल जाते. पैर छुलवाने, और नमस्कार करने की शर्मा जी को इतनी आदत हो गयी थी, कि बाद में यदि कोई हाथ जोड़े बिना सीधा निकल जाता, या कोई युवा पैर छूने न झुकता तो शर्मा जी का मूड बुरी तरह ऑफ़ हो जाता, जो अगले किसी के द्वारा पैर छूने के बाद ही ठीक होता. व्यवहार के मामले में शर्मा जी इतने अच्छे, कि धीरे-धीरे पूरा शहर ही उन्हें बाउजी कहने लगा. विषय की इतनी ज़बरदस्त पकड़ कि उनके पढ़ाने के बाद, दोबारा उस टॉपिक को समझना तो दूर, भूलने की नौबत तक न आती थी. मैं भी उनका विद्यार्थी रहा हूं, सो उनके बारे में हर छोटी-बड़ी बात जानता हूं. चकराइये नहीं, मैं यानी इस कथा का सूत्रधार. कहानी है, तो सुनाने वाला चाहिये न?
“अरे वाह गुड्डू पंडित! क्या खेल रहे हैं?” गुड्डू को मोबाइल में व्यस्त देख, बाउजी ने पूछा.
“खेल नहीं रहा बाउजी, कोलाज बनाने का एक नया एप आया है, उसे ही डाउनलोड कर रहा हूं. कोलाज समझते हैं न आप?” गुड्डू ने ज्ञानियों की तरह सवाल उछाला.
बाउजी कॉलेज के दिनों में बनाये अपने तमाम पेपर कोलाज में खो गये. ड्राइंग से सम्बन्धित हर चीज़ उन्हें बहुत पसन्द थी. कितनी ही पेंटिंग्स उन्होंने अपनी नई उमर में बनाई थीं. ऐसी अद्भुत पेंटिंग्स, कि लोग हाथों हाथ ले जाते. यहां तक कि उस वक़्त की एक भी पेंटिंग उनके पास नहीं.
“हां बेटा, जानता तो हूं कोलाज, अब अगर ये मोबाइल वाला कुछ अलग हो तो नहीं पता.” बाउजी ने अपनी स्मृतियों में खोये हुए ही जवाब दिया.
“ जानते हो गुड्डू, जब हम तुम्हारे बराबर थे तब एक बार ऐसा हुआ कि.......”
“अभी आता हूं बाउजी. एक ज़रूरी काम याद आ गया.” कहते हुए गुड्डू तुरन्त उठ खड़ा हुआ. चेहरे पर कुछ ऐसा भाव जैसे कहना चाह रहा हो कि बुड्ढों के पास पता नहीं कितनी कहानियां होती हैं. हर बात पर एक कहानी..... । बाउजी भी समझ गये थे, गुड्डू उनकी कहानी नहीं सुनना चाहता. कोई नहीं सुनना चाहता. वे जब भी पुरानी कोई बात शुरु करते हैं, ऐसा ही होता है. जबकि पता नहीं कितने किस्से भरे पड़े हैं बाउजी के ज़ेहन में........!