Jai Hind ki Sena - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

जय हिन्द की सेना - 12

जय हिन्द की सेना

महेन्द्र भीष्म

ग्यारह

नीले आकाश के नीचे अपने हवेलीनुमा घर की सबसे ऊँची छत पर श्वेत साड़ी में दरी के ऊपर बैठी शृंगार रहित होने पर भी गौर वर्ण उमा साक्षात्‌ परी लग रही थी।

निकट से आकर ही कोई उसके दुर्भाग्य को जान सकता था।

उसके चारों ओर दरी पर विभिन्न धार्मिक पुस्तकें रखी हुई थीं। इस समय उसकी गोद में ‘श्रीमद्‌भगवद्‌ गीता' खुली रखी थी जिसके अध्ययन में तल्लीन उमा इस समय किसी शांत साध्वी से कम नहीं लग रही थी।

विस्तृत छत पर दूर तक सूखने के लिए फैले गेंहूँ दिन भर सूर्य स्नान करने के बाद अपने समेटे जाने की प्रतीक्षा में थे। इतनी बड़ी हवेली में उमा के बाबा, दो चाचा, उनकी पत्नियाँ, कुल मिलाकर चार चचेरे बड़े भाई, भाभियाँ व दो चचेरी बहनें, दो जुड़वाँ प्यारी सी भतीजियाँ। सभी साथ—साथ प्रेमपूर्वक रहते थे।

कभी बहुत बड़े जमींदार हुआ करते थे उमा के बाबा ठाकुर माधोप्रताप सिंह। उन्होंंने अंग्रेजी राज का पतन देखा था, स्वराज के लिए गाँधी जी का खुलकर साथ दिया था। वे अंग्रेजों की आँखों की सदैव किरकिरी बने रहे। फलस्वरुप उनका कोप भी झेला।

स्वतंत्रता के बाद उन्होंने सरदार बल्लभ भाई पटेल की नीति का अनुसरण करते हुए क्षेत्रीय रियासतों के भारत संघ में विलय के लिए अथक परिश्रम किया था। देश भक्ति से ओतप्रोत ठाकुर माधोप्रताप सिंह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र का नाम शहीदे आजम भगत सिंह के नाम पर भगत प्रताप सिंह रखा था, जिसे उन्होंने मन लगाकर उच्च शिक्षा दिलवायी और भारतीय सेना

में भेज दिया था।

जब मेजर भगत प्रताप िंसह १९६२ में चीन से हुए युद्ध में अरूणाचल प्रदेश के ‘बोम्डिला' मोर्चे पर शहीद हो गये थे तब उनके देश के लिए काम आ जाने की सूचना से ठाकुर माधो प्रताप सिंह तनिक भी विचलित नहीं हुए, और न ही उस समय उनकी आँखाें में आँसू की एक बूँद किसी ने देखी। जब वे भारत सरकार से अपने पुत्र के बलिदान का सबसे बडा सैन्य पुरस्कार परमवीर चक्र लेकर वापस अपने गाँव आये तब गर्व से उनका सीना फूला हुआ था।

मेजर भगत प्रताप सिंह अपने पीछे पत्नी के अलावा एक पुत्र व एक पुत्री छोड़ गए थे।

पुत्र भानु प्रताप देहरादून के सैनिक स्कूल का छात्र था और पुत्री उमा गाँव में ही अपनी सहेलियों के साथ मिलकर उछलकूद में मस्त रहती थी।

मेजर भगत प्रताप सिंह के देहांत के ठीक एक वर्ष बाद ही घर के मुखिया ठाकुर माधोप्रताप सिंह ने भानु के आधुनिक विचारों को समाज विरोधी

घोषित करते हुए चौदह वर्ष की अवस्था में ही उमा का विवाह सम्पन्न करा दिया था। तीन दिन पूरे गाँव में उत्सव मनाया गया। अबोध उमा खुश थी कि उसे इन दिनाें सभी बड़े प्यार से देख रहे हैं। वह खुश थी कि सभी उसे पूछ रहे हैं व उसकी प्रत्येक इच्छाओं का पूरा—पूरा ध्यान रखा जा रहा है। बेचारी को क्या मालूम था कि वह अभी से दाम्पत्य जीवन व्यतीत करने के लिए बिना पतवार के नदी में ढकेली गयी नाव की भाँंति ढकेल दी गयी है।

लड़के के अध्ययनरत रहने व छोटी उम्र के कारण उमा की विदाई नहीं हुई थी। गौना तीन साल बाद होना तय हुआ था।

परन्तु हाय रे दुर्भाग्य ! अभी पूरा वर्ष भी नहीं बीता था कि उमा विधवा हो गई। उस दिन जब वह बनी संवरी अपनी सहेलियों के बीच अपनी प्रिय गुड़िया रानी के विवाहोत्सव में व्यस्त थी तब गाँव की कुछ महिलाएँ उसे हवेली के विशाल आंगन में ले आर्इं।

वहाँ उमा ने देखा सिर झुकाये गाँव की महिलाएँ बैठीं उसे अजीब दृष्टि

से घूर रही थीं। उमा की समझ में कुछ नहीं आ रहा था तभी उसने देखा

उसकी माँ व भाभियाँ बिलखती हुई उससे लिपट गयीं। उमा उनसे कुछ पूछती कि मुहल्ले की मदोल चाची ने उसकी कलाइयों की चूड़ियाँ फोड़ दीं। लापरवाही से फोड़ी गयी चूड़ियों का काँच उमा की कोमल कलाइयों में चुभ गया।

एक सिसकारी निकली उमा के मुँह से और गुड़िया ‘रानी' की विदाई से पहले से ही भरे गले उमा ने जब अपनी कलाइयों पर खून देखा तो वह रो पड़ी।

बहुत दिनों तक उमा समझ नहीं पायी थी कि अब सभी का व्यवहार उसके प्रति क्यों रूखा हो गया था। उसे अब चम्पा नाइन सजाने क्यों नहीं आती? बेनी मालिन उसे अच्छे—अच्छे पुष्पों की माला क्यों नहीं देने आती?

उसे शृंगार करने से क्यों रोका जाता है? उसे केवल सफेद साड़ी ही पहनने को क्यों दी जाती है? उसके प्रिय भानु भैया छुटि्‌टयों में जब घर आते हैं तो उसे देखकर उदास क्यों हो जाते हैं?

अकेले में कई बार उसने अपने बड़े भैया को कुछ सोचते रहने की मुद्रा में देखा था।

माँ उसे छाती से लगाकर अकारण क्यों रोती रहती हैं?

भोली उमा प्रारम्भ की अनभिज्ञता से क्रमशः दूर होती गयी और धीरे—धीरे उसे अपने 'क्याें'ं का उत्तर समझ में आने लगा और अब उसने गुड्‌डा—गुडि्‌डयों से खेलना बंद कर दिया था। वह अपनी सहेलियों के विवाह में नहीं जाती थी। उसने किसी भी उत्सव में भाग लेना बंद कर दिया था।

भानु भैया से प्राप्त ढेर सारी धार्मिक शिक्षाप्रद पुस्तकों के अध्ययन में ही उसका समय व्यतीत होने लगा। घर का कोई भी कार्य उसके लिए नियत नहीं था। पूर्व की भांति अब वह वाचाल नहीं रह गयी थी। बहुत कम बोलना सीख लिया था उमा ने। वह जान गयी थी कि वह एक विधवा है और उसे अपना

शेष जीवन कठिन वैधव्य में व्यतीत करना है, यही उसकी नियति है।

अपने स्वर्गीय पति के चेहरे की तनिक भी याद उमा को नहीं थी।

एक बार भानु भैया ने एकांत में उमा से पुनर्विवाह का प्रस्ताव रखते हुए उससे राय माँगी थी। विवाह को जाना नहीं उसने फिर पुनर्विवाह शब्द क्यों?

ऐसा ही कुछ उमा ने अपने भानु भैया से पूछा था। भानु ने तब जान लिया था कि उमा उसके विचारों से सहमत है।

उमा के अंदर भी नवीन जीवन जीने की ललक पैदा हो गई थी। एक आशा की किरण जाग उठी थी उसके अंतर्मन में, परन्तु जब भानु ने अपने वयोवृद्ध रोबदार व्यक्तित्व के स्वामी पितामह से उमा के पुनर्विवाह की चर्चा की तो वह बुरी तरह भड़क उठे थे, जैसे बर्रे के छत्ते को छेड़ दिया हो। पूरे तीन दिन जब तक कि भानु गाँव में रहा उसके बाबा ने सारा घर अपने सिर पर उठाये रखा। कई दिनों तक ठाकुर माधो प्रताप सिंह अपने अंग्रेजी पढ़े पोते को बुरा भला कहते रहे।

उस दिन उमा ने अपने भाई द्वारा रोपी गयी आशा की पौध मुरझाती हुई महसूस की थी।

‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‌गं त्यक्त्वा करोति यः।

लिप्यते न स पापेन पद्‌मपत्रमिवाम्भसा।।'

उमा ने गीता के पाँचवें अध्याय के दसवें श्लोक का उच्चारण गुनगुनाते हुए किया फिर गोद में रखी गीता को मस्तक पर लगाकर प्रणाम किया।

गीता के मुख्य पृष्ठ पर बने सारथी श्री कृष्ण को प्रणाम कर उमा ने प्रथम पृष्ठ पर लाल स्याही से अंकित भानु भैया की लिखी पंक्ति को दोहराया

— ‘अनुजा उमाजी को रक्षा बंधन की भेंट'— भानु प्रताप सिंह

नित्य की भाँति गीता पाठ के प्रारम्भ और अंत में उमा अपने भानु भैया की उपर्युक्त पंक्ति अवश्य पढ़ लेती थी।

‘‘बाईजी! ई श्लोक को का मतलब भओ।'' सुखिया की आवाज सुन उमा ने उसकी ओर देखा जो छत पर बिखरे पड़े गेहूँ को बटोरने आयी थी।

उमा ने सहज भाव से पास आकर बैठ चुकी प्रौढ़ा सुखिया की ओर देखते हुए अपने द्वारा उच्चारित श्लोक का सरल भावार्थ समझाते हुए कहा,

‘‘जो व्यक्ति अपने सभी कर्मों को परमात्मा में अर्पित करके और आसक्ति भाव

को त्याग कर कर्म करते हैं, वह व्यक्ति जल में कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होते हैं।''

‘‘बहुत ज्ञान है बिन्नूँ तुमखाँ।'' सुखिया ने उमा की प्रशंसा मुक्त कंठ से गद्‌गद होते हुए की और भक्ति भाव से उसके दूर से सिर झुका कर चरणस्पर्श किए।

दिन भर में कई बार सुखिया उसके पैर बिना छुए दूर से झुककर जमीन को छूकर पैंलगी करती थी।

सुखिया को अपनी बिन्नूँ की विद्वता पर गर्व था। वह अक्सर उससे ज्ञान की बातें पूछ लिया करती थी। उमा ने अपनी पुस्तकें समेटी और खड़ी हो गयी।

दूर पहाड़ी के पीछे डूबते सूरज पर उसकी सहज दृष्टि पड़ी।

वह मुक्त भाव से प्रकृति की इस अलौकिक छटा को देखने लगी।

लाल बड़ा—सा गोला कुछ ही क्षणों में पहाड़ियों की शृंखला के पीछे तिरोहित हो गया।

अचानक उमा के मस्तिष्क में कुछ कौंधा, उसे पंडितजी की कही बात

याद आ गयी, ‘डूबते सूरज को देखना अशुभ होता है।'

उमा ने अमंगल की आशंका को शांत करने के लिए मन ही मन ईश्वर को स्मरण कर ‘शुभ' की प्रार्थना की और नीचे जाने के लिए अभी पहली सीढ़ी पर पैर रखा ही था कि उसे एकाएक आँगन में एक साथ कई लोगों का रोना— बिलखना सुनाई दिया।

उमा किसी अमंगल की आश्ांका से सर से पैर तक काँप उठी।

हाथ में समेटी हुर्इं पुस्तकें आले में रख वह जैसे तैसे नीचे आँगन में पहुँची।

आँगन में माँ बेहोश पड़ी थीं। चाची व भाभियाँ रोते हुए उन्हें सम्भालने में लगी हुई थीं। दोनों चाचा व उसके चचेरे भाई बहन उदास सिर झुकाए खड़े अपनी आँखों से बह रहे आसुँओं को पोंछ रहे थे।

उमा ने अपने पितामह के हाथ में पकड़े फँसे टेलीग्राम को निकाल कर पढ़ा। हजारों पहाड़ एक साथ उसके सिर पर टूट पड़े। उसके प्रिय भैया अब

इस संसार में नहीं रहे। भारत सरकार की ओर से भेजी गयी सूचना ने ठाकुर माधो प्रताप सिंह के परिवार में कहर बरपा दिया था ।

गिरती उमा को ठाकुर माधो प्रताप सिंह ने अपनी बाँहों में सम्भाल लिया।

‘बाबा'हृदय विदारक करुण पुकार के साथ उमा अपने पितामह की गोद में ढह गयी।

पितृहीन, पतिहीन और अब भाई के स्नेह से वंचित बेचारी उमा के दुःखों के अनुमान ने ठाकुर माधो प्रताप सिंह की सूखी आँखों में आसुओं की धारा प्रवाहित कर दी। ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु की सूचना ने उन्हें तनिक भी विचलित नहीं किया था। आँसू की एक भी बूँद उनकी आँखों की कोर में तब नहीं आयी थी।

ऐसे सहनशील ठाकुर माधो प्रताप सिंह भी रो पड़े थे। अपने पोते लेफ़्िटनेंट भानु प्रताप सिंह की अकाल मृत्यु पर।

मूल से ब्याज प्यारा होता है। यहाँ तो मूल फिर ब्याज दोनों से वंचित हो चुके थे ठाकुर माधो प्रताप सिंह।

थोड़ी ही देर में पूरे गाँव में आग की तरह यह सूचना फैल गयी कि ठाकुर साहब का पोता पूर्वी मोर्चे पर शहीद हो गया।

लोगों का ताँता लग गया हवेली की ओर। वे ठाकुर साहब के दुःख दर्द में हिस्सा बँटाने और अपने सामाजिक दायित्व की पूर्ति में बँधे हुए पहुँचने लगे। सभी के पास चर्चा का केवल एक ही विषय था, ‘भानु प्रताप का देश के काम आ जाना।'

दूसरे दिन बलवीर की माँ शांति देवी अपने देवर जगभान सिंह के साथ सूरजगढ़ आ गयीं। उन्हें बलवीर का हस्तलिखित पत्र प्राप्त हुआ था, जिसमें भानु के शहीद होने की सूचना व उसके मामूली घायल होने की सूचना थी।

भानु को शांति देवी ने बीसियों बार देखा था। पुत्र विछोह—सा वियोग हुआ शांतिदेवी को। अपने स्वर्गीय पिता का एकलौता बेटा था भानु।

उसके एकलौते बेटे बलवीर का परम मित्र, हम उम्र भानु जो उसे ‘माँ'

का सम्बोधन देता था, अब इस संसार में नहीं है।

पत्र में बलवीर ने स्पष्ट लिखा था कि भानु का दाह संस्कार परिस्थितियोंवश

यहीं करना पड़ा। फूल भेजे गए हैं। साथ में अनुरोध था कि वह भानु के घर दुखित परिवार को सांत्वना देने अवश्य जायें। सूरजगढ़ में शोक संतप्त परिवार को देख लाख कोशिश करने पर भी शांति देवी स्वयं को सँभाल नहीं पाईं और बिलख—बिलख कर रो पड़ीं। सूरजगढ़ आईं थीं वह शोक में डूबे परिवार को सांत्वना देने, उनको धीरज बँधाने और स्वयं ही धीरज खो बैठीं। भानु भले ही उनकी कोख से नहीं जन्मा था परन्तु शांति देवी ने कभी भी उसे बलवीर से भिन्न नहीं माना था। उन्हें अपने दोनाें पुत्राें पर समान रूप से गर्व था।

उनमें से एक पुत्र अब उनके पास नहीं था। वह जा चुका था उनकी गोद से निकल कर भारत माँ की गोद में जो विशाल और सर्वोच्च है। यही शिक्षा देती आईं थीं शांति देवी अपने पुत्रों को कि वे दोनों अपने—अपने पिता की भाँति देश की सेवा करें। उन्होंने ही भारत माँ को ऊँचा बताया था, मातृभूमि की वंदना का प्रथम पाठ पढ़ाया था। उसी माँ की प्रेरणा से वे दोनों अपने कर्तव्य के प्रति सदैव सचेत रहते आये थे और आज उन दो में से एक ने अपने कर्तव्य को निभाते हुए देश के लिए स्वयं को होम कर दिया था।

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