Awara Adakar - 6 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

आवारा अदाकार - 6 - अंतिम भाग

आवारा अदाकार

विक्रम सिंह

(6)

उस दिन मेरी उससे आखिरी मुलाकात हुई। फिर वह मुम्बई चला गया। जितना उसने मुम्बई के बारे में सुना था उससे कहीं भयानक लगा। दादर स्टेशन पर उतरते ही उसने वहाँ बड़ी भीड़ देखी। ऐसी भीड़ उसने मेलों में देखी थी। हर किसी को कहीं पहूंचने की जल्दी थी। उसने कईयों से पूछने की कोशिश की कि गौरेगाँव की ट्रेन कहाँ लगेगी, मगर कोई एक सकेण्ड के लिए भी रूकना नहीं चाहता था। सब भागने में लगे हुए थे। आते वक्त उसने ट्रेन में ही होटल के बारे में पूछ लिया था। उसने उसे बताया कि गौरेगाँव या फिर जोगेश्वरी लोकल ट्रेन पकड़कर चले जाना। वहाँ तुम्हें कई छोटे होटल मिलेंगे। डोर्मेटरी बेड तुम्हें बहुत सस्ते में मिल जायेगी। एक आदमी ने उसकी आवाज सुनी और कहा कि ’’मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।"

वो उसी की रफ्तार में पीछे-पीछे भागने लगा। उसने उसे लेजाकर लोकल ट्रेन वाली भीड़ में खड़ा कर दिया। वहाँ भीड़ देख कर उसके मन में एक सवाल खड़ा हो गया। इतनी भीड़ में वह बैग लेकर चढेगा कैसे। पर जैसे ही ट्रेन लगी, लोगों ने उसे धक्का मारकर ट्रेन में चढ़ा दिया और डिब्बे के एक कौने तक पहुँचा दिया। डिब्बे में ठसमठस भीड़ थी। वह कोने में दुबका सा खड़ा रहा। पसीने से पूरा बदंन भीग रहा था। ट्रेन में चढने के बाद अब उसे यह चिंता होने लगी कि अब वह ट्रेन से कैसे उतरेगा? उसका बैेग भी एक तरफ खिंचा चला जा रहा था। उसने खुद को सम्भालने के लिए रड को जोर से पकड़ रखा था। बैग को हाथ से छूटता देख उसने एक सज्जन से कहा,’’सर थोड़ा मेरे बैग को देखिएगा।’’ उसने बड़े गुस्से से कहा,’’मैं क्यों देखूं? अगर बैग में बम हुआ तो?’’ यह सुनते ही चुप हो गया उसे याद आया कई बार मुम्बई में बम ब्लास्ट हुआ है। कइयों की जान गयी है। अब लोग इस बात से खूब डरते हैं। बस जब भी ट्रेन रूकती एक भारी भीड़ धक्का देते हुए चढ़ जाती और ठीक बैसे ही धक्का देते हुए उतर जाती। अततंः जोगेश्वरी स्टेशन के प्लेटफार्म पर ट्रेन लगते ही लोगो ने उसे धक्का देकर उतार दिया। वो एक कोने में खड़ा हो गया।

वह ढूंढता पूछता किसी तरह होटल तक पहुँच गया। होटल में देखा एक बेड के ऊपर दूसरा बेड लगा हुआ है। ठीक वैसे जैसे बिल्डिगों में फ्लैट के ऊपर एक फ्लैट होता है। उसने भी एक बेड ले लिया। उसने नहा-धो कर कपड़े बदले और उस कोर्डिनेटर को फोन लगाया। कोर्डिनेटर ने उसे अपने आॅफिस का पता देतेे हुए आॅफिस आने को कहा।

वह लोगों से पूछता हुआ कोर्डिनेटर के आॅफिस पहुँच गया। उसने देखा आॅफिस के बाहर कई लड़के लड़कियाँ खड़े थे। कुछ तो देखने में बड़े खूबसूरत थे। कुछ को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कई दिनों से उन्हें खाना नहीं मिला। वह सीधा आॅफिस के अंदर घुस गया। कोर्डिनेटर कोे अपना परिचय बताया। कोर्डिनेटर ने उससे फोटो मांगा। मगर उसके पास कोई फोटोग्राफ नहीं था। ’’सर फोटो ग्राफ तो नहीं है।’’

’’ठीक है पहले फोटो खींचाकर लाओ। फिर बात करना।’’

जितने उत्साह से वो आॅफिस में घुसा था उतने ही निरासाह से बाहर निकल आया।

बाहर निकल कर वह सीधे एक साधारण कद काठी वाले लड़के के पास जाता है। उनसे अपने फोटोग्राफ बनवाने की बात करता है। वह उसे बताता है कि यहाँ तो बहुत सारे फोटो स्टूडियों है। जैसा पैसा फेंकोगे वैसा फोटो बन जाएगा। वैसे जुहू में एक स्टूडियों है। वहाँ एक कापी के 50 रूपये लेता है वहीं जाकर फोटो करा लो। वहीं जुहू चैपाटी भी है घूम लेना।’’ गुरूवंश ने झट से पता नोट कर लिया।

उसने पूछा,’’ मुम्बई में नये आये हो।’’

’’हाँ,आज ही आया हूँ।’’

’’ एक्टर बनने आये हो?’’

’’जी हाँ।’’

’’फिर तो पाँच-छह साल घूमते रहो। उसके बाद भी कोई भरोसा नहीं।’’

’’आप को कितने साल हो गये।’’

’’पाँच साल हो गए। अब तो थक गया हूँ। खैर तुम कहाँ ठहरे हो? कोई है तुम्हारा मुम्बई में।’’

’’नहीं कोई नहीं है। होटल में ठहरा हूँ।’’

’’होटल में कितने दिन ठहरोेगे। किसी के साथ रूम में सेट हो जाओ।’’

’’कोई है आपका जानने वाला।’’

’’मेरे साथ भी शिफ्ट हो सकते हो। मेरा मोबाइल नम्बर लिख लो। तुम्हारे पास मोबाइल है?’’

’’नहीं है।,तो फिर पहले मोबाइल ले लो।’’

गुरूवंश ने उसका मोबाइल नम्बर नोट कर लिया।

’’ठीक है मैं चलता हूँ। एक जगह आॅडीशन देने जाना है। तुम वहाँ से बस पकड़ लो।’’ उसने एक तरफ इषारा किया

लम्बे इंतजार के बाद फिल्म सिनेमाघ गुरूवंश को उससे बातचीत करके अच्छा लगा। नये दोस्त, नई जगह। वह जुहू की तरफ निकल पड़ा। फोटो खिंचवाने के बाद वह जुहू बीच की तरफ निकल गया। उसने समुन्द्र की लहरों के किनारे पनपते प्यार को देखा। यह कैसा प्यार था। एक-दूसरे ने होंठों से होंठों को दबायें रखा था। न कोई बात-चीत न कोई प्यार का एहसास। बस लगातार एक दूसरे को चूमते जाना। एक उसका भी प्यार था’ जिसे अपने प्रेमिका से इजहार करने का भी साहस नहीं हो पाता था। किसी तरह एक दूसरे को जान भी गये कि हम-एक दूसरे को चाहते हैं तो मिलने के बाद जुबान से भी जल्दी शब्द नहीं निकलते थे। उसे कुछ पल के लिए बबनी की याद आई। वह तो एक छोटी सी नौकरी कर बबनी के साथ जीवन जीना चाहता था। पता नहीं वह उसे याद करती भी होगी या नहीं। वो लहरों को देखता रहा दूर तक।

कहते हैं पहला प्यार लाख कोशिश के बाद भी नहीं भुलाया जा सकता। बबनी हर दिन गेट पर आती और चली जाती। वह पछताती कि मैंने उसे ऐसा कह दिया? मगर दूसरे ही पल उसे गुस्सा आ जाता। कैसा था वो जिसे मैंने ब्याह के लिए मना कर दिया तो मुझे छोड़कर चला गया। क्या प्यार में ब्याह होना जरूरी है? क्या हम अच्छे दोस्त बन कर एक दूसरे का सुख-दुःख नहीं बाँट सकते थे? वह उसकी एक झलक पाने को बेताब हुए जा रही थी।

गुरूवंश को मुम्बई में रहते हुए छः महीने बीत गये थे। इन छह महीनों में वह मुम्बईया हो गया था। वह अब चलती लोकल ट्रेन में चढ़ जाता। ठीक वैसे ही उतर जाता। भीड़ अब उसे अच्छी लगने लगी थी। अब वह हर दिन किसी न किसी प्रोडक्शन हाउस चला जाता और वहा अपना फोटो छोड़ आता। हर जगह से एक ही जवाब मिलता। कुछ होगा तो बताएगे। जब उसी प्रोडक्शन हाउस की एक दो फिल्मों की शूटिंग चल रही होती और कुछ की योजनायें बन रही होतीं। और उनका कुछ नहीं होता तो बड़ा बुरा लगता। आशवासन और वादे सुन-सुनकर कितने निराश लोग मुम्बई छोड़ कर चले जाते हैं। कितने यहीं छोटी-मोटी नौकरी पकड़ लेते हैं। कुछ वापस अपने गाँव इसलिए नहीं जाते कि वापस जाने पर लोगों के ताने सुनने पड़ेगे। अब संघर्ष करते हुए गुरूवंश को लम्बा समय हो गया था। कभी-कभी उसे भी लगता कि क्यों उस राह चल पड़े कि जहाँ मंजिल का ठिकाना ही न हो। कभी यह भी सोचता कि वापस चला जाए। गुरूवंश लाख चाहे हिम्मत धैर्य बटोर कर रखता हो, पर पिता अमर सिंह धैर्य हिम्मत सब कुछ खों बैठे थे। वह सोचते क्या बेटा इसी तरह मुम्बई घूमते हुए अपनी जिंदगी बिता देगा? क्या उसकी जिंदगी में इसी तरह घूमना ही लिखा है। कई बार वह बेटे को समझाने की कोशिश करते कि तुम वापस आ जाओ। मगर वह हर बार पापा से कुछ और समय की मोहलत मांग लेता। उसे भी हर बार यही उम्मीद रहती कि शायद इस बार कुछ हो जाए। पूरी मुम्बई में तो लोग उम्मीद के सहारे ही जीते हैं। कॉलोनी में उसके जोड़ीदार पढ़- लिख कर कहीं न कहीं नौकरी में लग गये थे। कॉलोनी में कइयों को लगता कि गुरूवंश आवारा हो गया है। बबनी जो गेट पर अक्सर उसका इंतजार किया करती थी अब उसने भी इंतजार करना छोड़ दिया था। शादी के लिए रिश्ते आने लगे थे। पर कुछ को वह पंसद नहीं करती थी। कुछ उसे पंसद नहीं करते थे। पर उसने भी सोच लिया था कितने दिन पापा के ऊपर बोझ बनूंगी। ऐसे ही वक्त जब गुरूवंश चारों तरफ से निराश हो गया, उसे एक मित्र ने समझाया जो खुद फिल्मों में काम पाने के लिए जूते घसीट रहा था एक फाॅइव स्टार होटल में कैजुअल में बैंकेट हाल में वेटर का काम कर रहा था।। उसने कहा,’’दोस्त! यहाँ कोई नौकरी पकड़ लो। और अपना संघर्ष जारी रखो।’’ गुरूवंश को उसका सुझाव अच्छा लगा उसने वेटर की नौकरी पकड़ ली। फिर क्या था? हमारे कॉलोनी के चाय-पान दुकान वालों को चर्चा का विषय मिल गया। खूब हंसी ठिठोली चलने लगी। ’’ हीरो बनने निकले थे वेटर बनकर रह गये।’

….

अचानक इस हंसी ठिठोली के बीच अचानक एक दिन एक बात हवा की तरह फैल उठी। गुरूवंश कोई टेलिसोप एड करते हुए टी.वी पर दिखा। उसमें वो दिमाग बढ़ाने वाली चायपत्ती की बात कर रहा था। लोग बाग कहने लगें यार गुरूवंश तो टी.वी पर आने लगा है। लोग घर से निकल-निकल कर एक-दूसरे को कहने लगे। गुरूंवश को टी.वी पर देखा। मगर एक बहुत बड़ी सच्चाई का भी पता चल गया कि टेलीसोप एड में सारे प्रोडेक्ट झूठे होते हैं, क्योंकि जो वो कह रहा था वो कही से भी सच नहीं था। ’’उस चायपत्ती को पी कर उसका दिमाग बढ़ गया था। हर साल वो पढ़ाई में अव्बल आ रहा था।’’ उस कालोनी में गुरूवंश का टी.वी पर आना एक बड़ी बात थी। मगर फिल्म इन्ड्रस्टी के लिए यह तुच्छ काम था। खैर जब वो एक दिन बैंकेट हाल में वेटर का काम कर रहा था, उस दिन वहा कोई फिल्मी पार्टी चल रही थी। यूँ तो उसने इस पाँच सितारा होटल में कई फिल्मी पार्टियां देखी थी। वह बस यही सपना देखता था कि कभी वो भी किसी फिल्म में काम करेगा और इसी तरह फिल्मी पार्टी में आयेगा। उस दिन उसने निर्देशक को स्टार की डेटस के बारे में बात करते हुए सुना। वह उसी की टेबुल के पास सर्व कर रहा था। दरअसल उस निर्देशक के पास निर्माता तो था पर स्टार के डेटस नहीं थे।

उस दिन वह रूम में जाकर फिल्म इण्डिया डायरेक्टरी में उस निर्देशक का नम्बर और पता ढूंढने लगा। इत्तेफाक से नम्बर भी मिल गया। उसने तत्काल ही अपने मोबाईल से उसे फोन लगा दिया। उसने अपना परिचय देते हुए उससे मिलने की इच्छा जताई। उसने भी उसे मिलने का पता और समय दे दिया। पहली बार कोई निर्देशक उससे मिलने वाला था। जिसे वह अच्छी तरह बात कर सके। निर्देशक ने उसे कुछ औपचारिक बातें पूछी। ’’कहाँ से आए हो? कितने दिनों से मुम्बई में हो? अब तक क्या किया है? सारी बाते सुनने के बाद उसने कहा,’मेरी फिल्म बनने में समय है। बस आप टच में रहिएगा। कुछ निकलेगा तो बताएगे।’’

’’जी सर, अपनी फिल्म में मुझे भी मौका दीजिएगा।’’

़’’तुम चिंता मत करो। तुम्हारे लिए कुछ न कुछ जरूर करूँगा।’’

वहाँ से वो एकदम चहचहाता हुआ निकला। कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी का व्यक्तित्व व कलाकारी दोनो ही प्रभावित करती हैं। दोनो ही रूप में वह लोगों के दिलोंदिमाग पर छा जाता है। कभी ऐसा भी होता है कि व्यक्ति के तौर पर वो आपको घटिया लगे और कलाकार के तौर पर अच्छा । कुछ ऐसा ही गुरूवंश को उस निर्देशक से मिल कर लगा था। उसे पहली बार लगा कि वह किसी अच्छे व्यक्ति से मिल कर आया है। वो निश्चिंत हो गया था कि काम जरूर मिलेगा।

यूँ तो हम टी.वी अखबार में हर दिन देखते हैं कई फिल्में आ रही हैं। जैसे मुम्बई में कोई फैक्ट्री हो और लगातार फिल्में बन-बन कर आ रही हो। पर फिल्म बनने के पीछे एक लम्बी कहानी होती है। जिसमें कुछ झूठ,कुछ फरेब,कुछ सच्चाई होती है। कितने लोग जुड़ते हैं, कितने लोग टूटते हैं। कितने पैसों से मालामाल हो जाते हैं,कितनों को फिल्म करने के बाद भी दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती। एक लम्बा समय लग जाता है फिल्म को बनने और पर्दे तक आने में। गुरूवंश को भी लम्बा समय लगा सिनेमा में छोटा सा रोल पाने के लिए। वह करीब साल भर तक निर्देशक को कभी संकोच से ,कभी डर-डर कर ,तो कभी खूब उत्साह से फोन करता। आखिरकार उसे एक फिल्म में 10 मिनट का रोल मिल गया। उस दिन शूटिंग में जाने के पहले उसने अपने गले में लटकते ताबीज को चूमा। उसे लगा जैसे उसकी इस उपलब्धि में इस ताबीज ने भी साथ दिया है। उसने शूटिंग में जाने के पहले माँ-पापा सबको फोन किया।

रों में आकर लग गई। उसकी कॉलोनी से होते हुए पूरे शहर में यह बात फैल गयी कि इस शहर का एक लड़का भी फिल्मों में है। यूँ तो गुरूवंश का उस फिल्म में मात्र 10 मिनट का रोल था। पर सब उसे हीरों ही मानने लगे। खूब हल्ला मचा। वैसे फिल्म ने पूरे भारत में अच्छा बिजनेस किया। वहाँ के लोकल पत्रकारों ने भी उसकी सूध ली। अगले दिन गुरूवंश के बारे में छप गया। ’’रानीगंज का गुरूवंश बना वेटर से एक्टर।’’

यूँ तो समय बदल चुका था। कई फैेमिली रिटायर हो कर कॉलोनी से अपने गाँव चले गये थे। कुछ लड़के-लड़कियाँ नौकरी की तलाश में देश के बाहर निकल गये। बबनी की भी शादी हो चुकी थी। गुरूवंश मुम्बई में रहकर यह सोचता था कि ’’बबनी ने पता नहीं उसकी फिल्म देखी या नहीं? उसे याद करती होगी या नहीं। हम लोगो को जो बात पता चली थी वह यह थी कि बननी ने उस फिल्म के उस सीन को जिसमें गुरूवंश दिखता था, कई बार आगे पीछे कर के देखा था। वो यह सोचती थी कि गुरूवंश अब बड़ा आदमी बन गया है। पता नहीं उसे याद करता होगा या नहीं।

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मित्रों वो हमारे शहर में भले ही लोगों की नजर में हीरों बन गया हो। मगर मुम्बई जैसे शहर में उसे आज भी रोल के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। वो तब तक संघर्ष करेगा, जब तक वो अदाकार के रूप में स्थापित नहीं हो जाएगा। वादों और उम्मीदों के दो पाटों के बीच एक सूखी नदी की तरह होकर रह गया है गुरूवंश। अगर आप को विश्वास नहीं होता तो आप मेरे साथ मुम्बई चलिए। मैं गुरूवंश और गुरूवंश जैसे मगर अलग-अलग नामों वाले के कई अदाकारों से आपकी मुलाकात कराता हूँ। मासूम जिद्दी,स्वप्नजीवी आवारा अदाकारों से।

विक्रम सिंह

बी-11, टिहरी विस्थापित कॉलोनी,

ज्वालापुर, हरिव्दार, उत्त