Corona kaal ki kahaniyan - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

कोरोना काल की कहानियां - 3

"विषैला वायरस" - प्रबोध कुमार गोविल
वो रो रहे थे।
शायद इसीलिए दरवाज़ा खोलने में देर लगी। घंटी भी मुझे दो- तीन बार बजानी पड़ी। एकबार तो मुझे भी लगने लगा था कि बार - बार घंटी बजाने से कहीं पास -पड़ोस वाले न इकट्ठे हो जाएं। मैं रुक गया।
पर मेरी बेचैनी बरक़रार थी। घर में अकेला कोई बुज़ुर्ग रहता हो और बार- बार घंटी बजने पर भी दरवाज़ा न खुले तो फ़िक्र हो ही जाती है।
दिमाग़ इन बातों पर जा ही नहीं पाता कि इंसान को अकेले होते हुए भी घर में दस काम होते ही हैं।
हो सकता है कि भीतर तेज़ आवाज़ में टीवी चल रहा हो और घंटी की आवाज़ न सुनाई दी हो।
या आदमी गुसल- पाखाने में हो। अगर नहा- धो रहा हो तो बाहर निकल कर पहले कपड़े पहनेगा, तभी न बाहर आयेगा।
हो सकता है कि नींद ही लग गई हो। सोया पड़ा हो। वैसे ये समय सोने का तो नहीं है पर अकेले बूढ़े आदमी का क्या ठिकाना, कब जागे, कब सोए।
लेकिन मन नहीं मानता।
शंकाएं तो दिल में आती ही हैं। कितने किस्से रोज़ सुनाई दे जाते हैं।
घर में बुज़ुर्ग अकेला था, रात को सोते - सोते ही दौरा पड़ा और बिस्तर में ही जीवन यात्रा बीत गई।
कुछ खाने- पीने में ज़रा सी गड़बड़ हो गई, पता चला कि बेहोश होकर ही पड़ा है।
चोरी- लूट वाले भी तो बेख़ौफ़ घूमते हैं, कोई कहीं कुछ कर- करा के खिड़की से ही फांद गया हो।
वृद्ध अकेले आदमी का ये भी तो नहीं पता चल पाता कि बैठे - बैठे अवसाद में ही चला जाए और ख़ुदकशी ही कर बैठे।
बूढ़ी जर्जर काया के प्राण लेने में क्या ज़ोर लगता है। गले में फंदा लगा कर पंखे पर न लटक सके तो पायजामे के नाड़े से ही दम घोट लेे।
बहरहाल ऐसा कुछ नहीं हुआ।
थोड़ी ही देर में वो आये और दरवाज़ा खोल दिया।
मुझे देखते ही उन्होंने कुछ खिसियाते हुए कहा- माफ़ करना, ज़रा देर हो गई द्वार खोलने में।
मैं जानता था कि अगर मैंने देर लगने का कारण पूछा तो वो कुछ छिपा नहीं पाएंगे। बताएंगे ज़रूर। मगर बेवजह मैंने भी कुछ पूछने की जरूरत नहीं समझी।
और ज़रूरत मुझे पड़ी भी नहीं।
ख़ुद ब ख़ुद मुझे पता चल गया।
असल में उनकी आंखें कुछ पनीली और लाल सी दिख रही थीं। गालों पर अंगुलियों से आंसू पोंछने के निशान भी बदस्तूर बने हुए थे।
ज़ाहिर था कि वो रो रहे थे और घंटी बजने पर उन्होंने झटपट सहज होने की कोशिश की होगी। हो सकता है कि उन्होंने पहले जाकर मुंह धोया हो और फ़िर थोड़ा पानी पीकर अपने को संयत करने का प्रयास किया हो। और तब कहीं जाकर दरवाज़ा खोलने आए हों।
अकेला, पकी कद- काठी का उम्रदराज़ आदमी अपनी छवि के लिए भी बेहद संवेदनशील होता है। सोचता है कि कोई भी गैर या अजनबी उसे इस हाल में देख लेे तो न जाने क्या सोचे।
जिस - तिस को जाकर कह दे, लोग मख़ौल उड़ाएं, मज़े लें।
आजकल किसी की मदद करने का समय और शऊर चाहे किसी के पास हो या न हो, खिल्ली उड़ा कर अपना कलेजा ठंडा करने का हुनर तो सबको आता ही है।
कुंठित, ख़ुदग़र्ज़ ज़माना!
लेकिन मुझे पक्का यकीन हो गया कि वो ज़रूर अकेले में बैठे रो ही रहे थे।
अब मेरी दिलचस्पी यही जानने में थी कि वो रो क्यों रहे थे।
दुनिया भर में फैले महामारी के संकट के कारण शहर में लगे लंबे लॉकडाउन के खुलते ही मुझे अपने मित्र के इन अकेले रहते हुए पिता का खयाल सबसे पहले आया था और मैं इसीलिए उनकी खोज खबर लेने के लिए यहां चला आया था।
आज चाहे ये घर मिजाज़पुर्सी के लिए आने वालों से महरूम हो गया हो, एक समय ऐसा था कि मैंने अपने मित्र की कई पार्टियों- महफिलों में यहां शिरकत की थी। तब वो जीवित था। भरापुरा उसका परिवार भी उसके साथ ही था।
आज वक़्त ने सबकुछ बदल कर इन बुज़ुर्गवार को इस घर का इकलौता वारिस कर छोड़ा था।
मैं कभी - कभी अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर यहां चला आता था।
कुछ संयत होकर अब उन्होंने उल्लास से उमगते हुए मुझसे पूछा- "बेटा, क्या खिलाऊं तुझे, अभी तो घर में कुछ है भी नहीं। इतने दिन से सब कुछ बंद जो पड़ा था।"
कहते - कहते वो मेरे पास आकर मुझसे लिपटने से लगे।
मैंने कहा - "पापा जी, आप रो रहे थे। अब झटपट मुझे बता दो कि आप रो क्यों रहे थे? क्या कष्ट हुआ था आपको? मुझे कुछ नहीं खाना, मैं तो खाना खाकर ही आया हूं"।
वो ज़ोर से खिलखिलाये। और इसी उद्दाम हंसी में उनके मुंह से थूक के कुछ छींटे उड़ कर मेरे नज़दीक अाए।
मैं उछल कर तेज़ी से कुछ पीछे हटा। मैंने उन्हें अपने गले भी नहीं लगने दिया।
वो कुछ रुआंसे से हो गए। फ़िर सहमे से स्वर में बोले- नहीं बेटा, मैं क्यों रोऊंगा!
पर मैं नहीं माना। मैंने ख़ूब ज़िद की कि वो मुझे अपने रोने का कारण बताएंगे तभी मैं यहां से वापस जाऊंगा।
और उन्हें बताना पड़ा।
रुक - रुक कर वो बोले- बेटा, मैं सुबह कमरे में दीवार पर लगा संसार का ये नक्शा साफ़ कर रहा था। धूल जमा हो गई थी इस पर। मैंने देखा कि शायद कोई कीड़ा मर कर इस पर चिपक गया है और वहां ढेरों चींटियां इकट्ठी हो गई हैं। मैं कीड़े मारने वाला स्प्रे उठा लाया और मैंने सारे में छिड़क दिया।
थोड़ी ही देर में मैंने कुछ दूर खड़े होकर देखा कि बदहवास होकर चींटियां इधर- उधर भाग रही हैं। मुझे चश्मे के बिना भी अलग - अलग वो सब देश दिखाई दे रहे थे, जिन पर होकर चींटियां जान बचाकर भाग रही थीं।
मैं दहल उठा।
मुझे लगा कि मैं कोई विषैला वायरस हूं जिसने इन जीवों का सारा संसार छिन्न -भिन्न कर दिया।
मुझे लगने लगा कि इधर- उधर भागने वाली ये चींटियां नहीं हैं बल्कि मनुष्य हैं...और ..और मैं इन्हीं में अपने परिवार को, बच्चों को खोजने लगा।
...शायद मेरे जैसे किसी राक्षस ने ही दुनिया पर जमी लापरवाही की धूल झाड़ने में सबको संकट में डाल दिया है।
वो फ़िर से सिसकने लगे थे।
मैंने उन्हें हाथ जोड़ कर उनसे विदा ली।
मैं सोच रहा था कि अपना मास्क मुंह से हटा कर आंखों पर बांध लूं, क्योंकि वो छलकने लगी थीं।
- प्रबोध कुमार गोविल, बी - 301 मंगलम जाग्रति रेसीडेंसी, 447 कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर- 302004 (राजस्थान) मो 9414028938