Corona kaal ki kahaniyan - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

कोरोना काल की कहानियां - 1

आंसू रुक नहीं रहे थे।

कभी कॉलेज के दिनों में पढ़ा था कि पुरुष रोते नहीं हैं। बस, इसी बात का आसरा था कि ये रोना भी कोई रोना है।

जब प्याज़ अच्छी तरह पिस गई, तो मैंने सिल पर कतरे हुए अदरक के टुकड़े डाले और सिल बट्टा फ़िर से चलने लगा। अदरक थोड़ा नरम हो जाए ये सोच कर मैंने कटे लाल टमाटर, हरी मिर्च और लहसुन के कुछ टुकड़े भी डाल लिए।

दस मिनट बाद मैं एक बड़े बाउल में धनिए की चटनी में नीबू निचोड़ कर चम्मच से मसालों को मिला रहा था।

मुझे वैसे भी मिक्सर ग्राइंडर में पिसी चीज़ें, या बाज़ार के रेडीमेड पकवान या पकवानों का कच्चा माल पसंद नहीं आता था।

मैं अच्छी तरह जानता था कि मेरी इस आदत को आजकल लोग पसन्द नहीं करते, नई पीढ़ी तो बिल्कुल नहीं।

इसीलिए रसोई में खड़े होकर जब मैं इस तरह चटनी पीसता, तो मेरा ख़ूब मज़ाक उड़ाया जाता था। मेरी वो टीशर्ट सबको दिखाई जाती, जिस पर धनिया- मिर्च के छींटों के धब्बे लग जाते। मेरे चश्मे की निरीहता को निहारा जाता, जिस पर बार- बार आंखें मसलने के दौरान पड़े उंगलियों के निशान उभर आते।

बाद में किसी भी व्यंजन के साथ खाई गई इस चटनी का चटखारेदार स्वाद इन सब एहसासों को धो डालता।

परन्तु आजकल तो मसालों का हल्का सा भभका भी सबको शंका से भर देता था। अगर हींग- मिर्च के तड़के से हल्की सी खांसी भी उठती तो आंखों में चीन और इटली का नक्शा कौंध जाता। और अगर भगवान न करे, कहीं एक छींक आ गई तब तो पड़ोसियों के अपनी- अपनी बालकनी में आ धमकने का ख़तरा मंडराने लगता।

गली में पुलिस की गाड़ी चक्कर लगाती रहती थी, और स्पीकर पर गूंजती आवाज़ में याद दिलाती रहती थी कि सुरक्षा में ही बचाव है।

जो घर वाले कभी टीवी के सामने बैठने पर संदेह से ये सोचते थे कि जीवन को अकारण गंवाया जा रहा है वही अब हाथ में रिमोट लेकर एक से एक उम्दा सीरियल तलाश कर आंखों के सामने जबरदस्ती ला देने का उपक्रम इस तरह करते थे जैसे कभी पुराने ज़माने में तेल घाणी के बैलों को आंखों पर आड़ देकर कुछ और देखने से रोका जाता था। ताकि बैल का ध्यान इधर -उधर न भटके और वो कहीं बाहर न निकल जाए।

लेकिन किसी आदमी के शरीर को रोका जा सकता है, उसके मन की गति को नहीं। मन तो चाहे जहां जाए, चाहे जहां तक जाए।

टीवी पर आती किसी फ़िल्म में किसी टाइगर श्रॉफ या वरुण धवन को नाचते हुए देख कर मन में एक बात ज़रूर आती थी। इनके साथ - साथ बाग़- बगीचों में, सड़कों पर, सुन्दर इमारतों के सामने सैकड़ों लड़के- लड़कियों को क्यों नचाया जा रहा है?

इन लड़के- लड़कियों के पल - पल में कपड़े बदलते हैं, ये घंटों ठुमके लगाने का अभ्यास करते हैं, और यहां इनके चेहरों पर एक पल के लिए भी कैमरा जाता नहीं। कैमरा तो रहता है केवल हीरो या हीरोइन के मुखड़े पर। फ़िर क्यों ये फ़िल्म वाले लाखों रुपए इस भीड़ पर ख़र्च करते हैं? भीड़- भाड़ से तो इन्हें बचना ही चाहिए।

इस भीड़ में कई ऐसे लड़के और लड़कियां होंगे जो सालों से ये काम कर रहे होंगे, पर न तो किसी फ़िल्म में इनका चेहरा ही दिखा और न ही कोई इनका नाम जान पाया। हां, इन्हें रोटी खाने लायक पैसे ज़रूर इससे मिलते रहे होंगे। इन्हीं लोगों को किसी - किसी फ़िल्म या सीरियल में युद्ध के दृश्यों में खड़ा किया जाता होगा, भीड़ की भीड़। दो राजा लड़ रहे हैं और हज़ारों लाखों युवक एक दूसरे के जानी दुश्मन बन कर, एक दूसरे के ख़ून के प्यासे बन कर टूट पड़ रहे हैं।

क्या इसी भीड़ की हाय लग गई? आज दुनिया भीड़ से भागने क्यों लगी? क्यों लंबी- लंबी कतारों से मंदिरों, महलों और दर्शनीय किलों को मुक्ति मिल गई।

तभी किसी की आवाज़ अाई, अरे दूसरे चैनल पर तो सलमान की फ़िल्म आ रही है। चैनल बदला,तो वही, बीच में हीरो - हीरोइन और उनके चारों ओर सैकड़ों युवक - युवतियां थिरक रहे थे।

शायद ये फिल्मकार हीरो के चारों तरफ लड़कियों को इसीलिए खड़ा कर देते हैं ताकि लोग इधर एकटक देखें और हीरो महाशय इस मुगालते में आ जाएं कि सब उन्हें देख रहे हैं।

एक चैनल पर खबर आ रही थी कि देश- दुनिया को महामारी से बचाने के लिए हर घर में दीए या मोमबत्ती जलाए जा रहे हैं। अन्धकार से प्रकाश की ओर जाना तो मानव का युग- युग पुराना सपना रहा है। गहरा अंधकार इंसान को उकसाता है कि वो उजाला ढूंढे।

माचिस की तीली भला ये कहां सोचती है कि क्षणिक कौंध के बाद उसका वजूद गुम हो जाने वाला है। लोगों को उसका जल जाना नहीं, बल्कि प्रकाश का फैल जाना याद रहता है।

शायद इस भीड़तंत्र का भी यही फ़लसफ़ा हो। किसी को प्रकाश देने के लिए ये सैकड़ों तीलियां अपने आप को भस्म कर दें।

तभी मैंने देखा कि रसोई से फ़िर कोई आहट उभर रही है। शायद गर्म तेल में दाल के पकौड़े तले जा रहे थे।

कुछ ही देर में प्लेटें सबके हाथों में थीं। टीवी बदस्तूर चल रहा था किन्तु अब सबका ध्यान पकौड़ों की सुगंध पर ही था।

मैंने पूरे मनोयोग से जो चटनी पीसी थी वो भी अब सबके सामने थी।

सबको चटखारे लेकर खाते देख कर मानो मेरी सारी थकान उतर गई। एक कौने से आवाज़ उभरी - ज़रा सी धनिया की चटनी देना।

मैं फ़िर से अपने ही खयालों में गुम हो गया। जाने दो, किस- किस कोरोना !

गर्मागर्म पकौड़ों को खाते हुए मन से तमाम ऐसे सवाल जैसे कहीं फिसल कर अदृश्य हो गए कि सौ लोग नाच रहे हैं तो गाना सलमान का ही क्यों कहा जा रहा है? हज़ारों लोग युद्ध में लड़ कर खेत रहे तो केवल राजा क्यों जीता? मेरे लिए इतना ही काफ़ी था कि माचिस, दीया, मोमबत्ती, टॉर्च सब जले तो "उजाला" हुआ।

मुझे याद आया कि चटनी में मैंने क्या- क्या डाला है। कम से कम पंद्रह चीज़ें। लेकिन इसे कहा जा रहा है - धनिए की चटनी!

- प्रबोध कुमार गोविल, बी 301, मंगलम जाग्रति रेसीडेंसी,447 कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर- 302004 (राजस्थान) मो 9414028938