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हास्य कहानी: करन - अर्जुन और हम

यू-ट्यूब पर श्रीमती जी करन-अर्जुन देखने बैठीं तो हमारी करीब पच्चीस साल पुरानी प्रतीज्ञा आज टूट ही गई…जिस बेबाकी से आज कल के बच्चे माँ बाप से बोल देते है कि पापा इस गर्मी की छुट्टी में डिजनी लैंड चलेंगे, उन दिनों शायद इतनी बेबेकी हम किराये पर वीसीआर और फिल्म के कैसेट लाने में ही दिखा पाते थे|

बात सन पिन्चान्बे-छियानबे की होगी…गर्मियों का दिन था और हमारे मोहल्ले के एक परिवार के जेष्ठ पुत्र का विवाह एक दिन पहले ही संपन्न हुआ था| घर में नए सदस्य का आगमन हुआ था तो सभी नात- रिश्तेदार उत्साहित थे….

घर मेहमानों से भरा हुआ था और हम उनके घर में पूरे हक से मेज़बान की भूमिका में थे| सलाद कटवाने, दौड़ –दौड़ कर पूरियां लाने…और बड़ों को खाना खिलवाने के बाद जब बच्चों के खाने की बारी आई तो हम भी पंगत में शामिल थे और जम के गरमा गरम पूरी दबा रहे थे| तभी उड़ती –उड़ती खबर सुनाई पड़ी कि रात में फिल्म का प्रोग्राम है…वीसीआर किराए पर आने वाला है| एक तो इतने सारे लोगों का जमावड़ा ऊपर से वीसीआर पर पिक्चर का कार्यक्रम…उत्साहित होना स्वाभाविक था| हमने फटा-फट खाना ख़त्म किया और हाथ धो कर पहुँच गए उस झुंड के पास जहाँ शाम के कार्यक्रम की तैयारियों की समीक्षा चल रही थी….छत पर कितने गद्दे-तकिये लगने हैं, बड़े कहाँ बैठेंगे….बच्चे कहाँ पसरेंगे| रात में फिल्म देखना हो वो भी खुले आसमान के नीचे, उसका मज़ा ही कुछ और होता था|

खैर जब बैठने की व्यवस्था का मंथन समाप्त हुआ तो बात दूसरे ज़रूरी मुद्दे पर आई कि कैसेट कौन से आने है…हर किसी ने अपने विवेक और सूझबूझ से अपनी राय रखी और बहुमत से चित्रहार, कुली नंबर- 1 और करन-अर्जुन का चुनाव हुआ| चित्रहार में हमें कोई ख़ास रूचि न थी…कुली नंबर-1 हमने पहले ही निपटा दी थी, अब बची थी करन-अर्जुन… फिल्म जबरदस्त थी, हर कोई जिसने देख रखी थी तारीफ करते न थकता था…शाहरुख़-सलमान की जुगलबंदी…. “जाती हूँ मैं”….जैसा शानदार गाना और जबरदस्त फाइट….दिल पहले से ही इस पिक्चर पर फ़िदा था पर जब पता चला कि इतने शानदार माहौल में एक और मनपसंद पिक्चर देखने का मौका है तो रहा न गया..अन्दर से ख़ुशी इतनी हो रही थी कि बर्दाश्त के बाहर थी….जल्द किसी अपने को बताना था|

हमारे हम उमर मौसेरे भाई करीब ही रहा करते थे, फिर क्या, पहुँच गए मौसी के घर, भाई को इशारा किया और दोनों भाई छत पर| साथ में हमने कई फिल्में निपटाई थी तो समझाना और सहमति हासिल करना कठिन न था…बस घर पर यह बोलना था की आज एक भाई दूसरे भाई के घर पढ़ाई करेगा और रात वहीँ सोएगा|

किला फतह कर हम अपने घर चले आए और रात का इंतज़ार करने लगे, देर शाम कॉपी-किताब ले कर हमारे भाई भी आ गए और दोनों भाई मन लगा कर पढ़ने भी लगे…घर में कुछ ऐसा दिखाना था की लड़के पढ़ाई को ले कर संकल्पित है| शाम रात में बदल गई, सारे होमवर्क, सारे असाइनमेंट बिना किसी नाज़ नखरे ख़तम कर लिए गए, बीच –बीच में अपनी कर्मठता का प्रदर्शन करते दोनों भाई हमारे पिता जी से ना समझ में आने वाले सवालों पर मंत्रणा भी कर आते कि लगे लड़के पढ़ाई को लेकर वाकई गंभीर हैं| इधर दोनों भाई पढ़ाई निपटाने में लगे थे, उधर पिता जी छत पर पानी डाल रहे थे| उन दिनों गरमी में छत तर कर उस पर चटाई और चद्दर डाल कर सोना आम चलन में था |

हमारे घर की छत सूख चुकी थी और खाने की थालियाँ लग चुकी थी| हम दोनों की नज़रों में संतोषजनक पढ़ाई हो चुकी थी, लगा कि बस खाना खाते- खाते पिता जी से बोल देंगे और वीसीआर पर करन-अर्जुन की अनुमति हासिल कर लेंगे|

खाना शुरू हुआ और पिता जी ने पढ़ाई से जुड़ा मुद्दा छेड़ दिया…हमें अपनी बात रखने का मौका ही न मिला| धड़कन बढ़ गई थी|

हर ख़त्म होती चपाती के साथ ही हमारे भाई टेबल के नीचे से हमें ठोकर मार बोलने का इशारा करते पर हम सही मौके की ताक में थे| ऐसा न हो गलत समय पर प्रस्ताव रख दें और मनाही हो जाए| इस चक्कर में एक चपाती ज्यादा खा ली पर सही समय का इंतज़ार ख़त्म ही न हुआ| हरकत ऐसी थी कि भाई से नज़रें नहीं मिला पा रहे थे सो थाली रखी, हाथ मुंह धोया और चुप-चाप कमरे में आ गए| अभी सोच ही रहे थे कि भाई ने कमरे में आते ही ताना मारना शुरू कर दिया, अभी हम समझा ही रहे थे कि अभी देर नहीं हुई है, तभी पीछे से पिता जी की आवाज़ आई कि चलो छत पर बिस्तर लग गए हैं… इशारा समय पर सोने का था, अगले दिन स्कूल जो जाना था|

अब धड़कन राजधानी एक्सप्रेस सी हो चुकी थी, बस एक ही डर था कहीं मनाही न हो जाए…करन –अर्जुन का सारा जोश, सारा प्लान धरा का धरा रह जाता, ऊपर से पूरी जिंदगी भाई से ताने सुनने मिलता वो अलग|

माता जी तो कूलर में सोने चली गई और हम, हमारे भाई और पिताजी छत पर खुले आसमान के नीचे लेट गए| आसमान साफ़ था, सप्त-ऋषि तारामंडल और ध्रुव तारा साफ़ नज़र आ रहे थे, धीमी- धीमी चलने वाली हवा अब ठंडी होने लगी थी और नींद के लिए माहौल बिलकुल अनुकूल था, लेकिन नींद न हमारी आँखों में थी और न हमारे भाई की, बस दोनों भाई आसमान को देखते मना रहे थे कि काश कोई पुच्छल तारा दिख जाए और हमारी दुआ कबूल हो जाए| अभी सोच ही रहे थे कि भाई ने हमें कोहनी मारते हुए हमारा फ़र्ज़ याद दिलाया| हमने हिम्मत जुटाई, गला साफ़ किया और बोले, “पिता जी, भईया के घर वीसीआर लगा है और नई पिक्चर का कैसेट भी है…हम देखने जा सकते हैं क्या?”

पिता जी इन सब बातों से अनभिज्ञ थे और हल्की नींद में आ चुके थे सो बोले, “ठीक है, कल स्कूल से आ कर चले जाना पर पहले होमवर्क!” उन्हें लगा दिन की बात है, बच्चे पढ़ाई कर दो –तीन घंटे फिल्म देख भी लेंगे तो क्या हर्ज़ है, पर यहाँ तो कार्यक्रम ही रात का था वो भी आज रात का| अभी सोच ही रहे थे कि भाई ने उर्जा का संचार करने के लिए एक बार फिर कोहनी टिका दी….इस बार उनकी कोहनी के वार में फ्रश्टेशन और गुस्सा साफ़ झलक रहा था|

हमने उनको हाथ रोकने का इशारा किया और वापस पिता जी के मुखातिब हुए और बोले, “पिता जी….वो वीसीआर आज रात के लिए आया है…सब लोग इकठ्ठा हैं तो आज रात ही फिल्म देखनी है|”

पिता जी दिन भर के थके थे और सुबह जल्द दफ्तर भी जाना था सो नींद के आगोश में थे, बोले, “रात में नहीं!….सुबह स्कूल है!….”

बस वही हुआ जिसका डर था, सारी प्लानिंग, सारे जुगाड़ धरे के धरे रह गए थे….जिस चक्कर में गणित के एक आध असाइनमेंट ज्यादा कर डाले उसका नतीजा सिफर निकला, करते क्या मन मसोस कर रह गए| दिल और कान दोनों चार घर छोड़ बने मकान की छत पर लगे थे, वहां अब हलचल बढ़ गई थी, फिल्म शुरू होने ही वाली थी| आखें तारे देख रहीं थी पर पुतलियों पर आई नमी से तारे अब धुंधले दिख रहे थे|

करीब साढ़े दस हुए होंगे कि अचानक कुछ धुन कानो में पड़ी…हमें लगा चलो अभी समय है शायद पहले चित्रहार लगा हो..अभी मना ही रहे थे कि वापस एक भारी भरकम आवाज़ कानों में पड़ी, “…ये कहानी विश्वास पर आधारित है…विश्वास जो अनहोनी को होनी कर सकता है”…अभी कुछ समझ पाते कि कौन सी फिल्म है कि तभी एक और आवाज़ आई, “करन सिंह-अर्जुन सिंह मेरा हफ्ता…” अब बस दिल बैठ गया…जो नहीं होना था वही हुआ….बिना हमारी मौजूदगी के करन-अर्जुन शुरू हो चुकी थी| भाई भी गुस्से से भरा हुआ था पर ठोकर और कोहनी मारने के अलावा करता भी क्या|

फिर आया पहला गाना…..“सूरज कब दूर गगन से…..”अभी मुखड़ा पूरा भी नहीं हुआ था कि एक दुलत्ती जोर से हमारी टांगों से टकराई…हम समझ गए कि सिर्फ हम ही नहीं थे जो फिल्म के लिए कलप रहे थे| आसमान साफ था और रात का समय था तो हर डायलाग कान पर साफ़- साफ़ गिर रहा था| अभी 15-20 मिनट बीते होंगे कि अमरीशपुरी की रौबीली आवाज़ कानों में सुनाई पड़ी, रोंगटे खड़े हो गए, हमसे न रहा गया, लगा एक बार और कोशिश कर के देखते हैं…..एक दो बार धीमी आवाज़ में पिता जी को पुकारा भी पर पिता जी अब तक गहरी नींद के आगोश में जा चुके थे, उनकी तरफ से कोई रिस्पांस न मिला| अमरीशपुरी जी की आवाज़ में दमदार डायलाग, घोड़ों की टाप, चीखने चिल्लाने की आवाज़ मानो जैसे आसमान में गूँज रही थी कि तभी मंदिर की घंटियों के बीच किसी औरत के रोने की आवाज़ आई, और जैसे ही वह बोली, “मेरे करन- अर्जुन नहीं मर सकते…तुझे मेरे करन- अर्जुन लौटाने होंगे माँ….” सस्पेंस हम दोनों भाइयों की नस –नस में भर चुका था, अब हमसे रहा न गया, घंटियों की आवाज़ जैसे तेज़ हुई तो हमने भी भगवान का नाम ले कर एक ट्राई और मारने का फैसला किया| पिता जी को हल्के हाथ से हिलाया और जब उन्होंने आश्रय पूछा तो हमने अपनी इच्छा फिर से जाहिर कर दी….|

होना क्या था दिन भर के थके आदमी को शाहरुख-सलमान के लिए कच्ची नींद में जगाओगे तो डांट ही मिलेगी, और हुआ भी वही| इस बार पिता जी का लहज़ा सख्त था, इसके बाद हमारी पूछने की और हमारे भाई की कोहनी मारने की हिम्मत न हुई| दोनो भाई पथराई आँखों से आसमान को देखते रहे…| एक के बाद एक दमदार डायलाग, “जाती हूँ मै” जैसे गाने… पूरी फिल्म हम दोनों भाइयों ने नम आँखों से तारों को देखते हुए सुन डाली|

भाई का तो पता नहीं पर हमने कसम ज़रूर खा ली थी कि आज के बाद करन- अर्जुन या आने वाली किसी भी फिल्म जिसमे शाहरुख-सलमान एक साथ हों कभी नहीं देखेंगे| अब तक ऊपर वाला भी शायद हमें हमारी कसम पूरी कराने में शिद्दत से लगा था, तभी शायद इतने सालों में दोनों की कोई पिक्चर एक साथ न आई|

वो तो श्रीमती जी शाहरुख की सारी फिल्में निपटा चुकी थीं और यू-ट्यूब पर करन- अर्जुन ओरिजिनल प्रिंट में उपलब्ध थी तो उन्होंने आज हमें उनके संग बैठ कर यह पिक्चर देखने पर मजबूर कर दिया और हमारी कसम तुड़वा ही दी| अब सोचते है एक कसम टूट गई है तो दूसरी भी टूट ही जाए, इसी बहाने दोनों को वापस एक बार सुनहरे परदे पर देखने का मौका तो मिलेगा|