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गुङ़िया भीतर गुङ़िया


कहानी

गुङिया भीतर गुङिया

गुङ़िया भीतर गुङ़िया

चांदनी.... चांदनी.... चांदनी.... चिल्लाते हुए मैं लगातार उसके पीछे भाग रहा था पर वो मेरी पकड़ में नहीं आ पाई। हांफते-हांफते किसी ठोकर से गिरा तो रोने लगा पर आवाज गले में अटक गई, शरीर सुन्न‌ हो गया, हाथ- पांव में बेहिसाब वजन का अहसास हो रहा था कि तभी आंख खुली....ये ...ये क्या, क्या मैं सपना देख रहा था..... आवाज अभी भी हलक में अटकी हुई थी, पलंग पर चांदनी नहीं थी, आंखों की कोर भी गली थी, शरीर भी संज्ञा शून्य.... सपने और हकीकत में भेद ही नहीं कर पा रहा था मैं। बङ़ी मुश्किल से उठकर पानी पिया, खुद को संयत किया तो शाम का घटनाक्रम आंखों के आगे जीवंत हो गया ।

बात क्या थी .... कुछ भी तो नहीं.... फिर इतनी तीखी बहस का कारण.... । बात कहां से शुरु होती है और कहां पहुंच जाती है.... न किसी से लेना न देना .....पर हम अपने ही फंदों में उलझे हर बात को स्वयं पर ओढ लेते हैं और सामने वाले को ग़लत ठहराने का कोई मौका नहीं छोड़ते। तिस पर बात यदि नारी अस्मिता और पुरुष के अंहकार की हो तो फिर करैला ऐसा नीम पर चढ़ता है कि चीनी खाओ या कटोरी भर शहद चाट लो कङ़वाहट कम नहीं होती।

पति-पत्नी का रिश्ता तो बना ही दो विपरीत ध्रुवों को मिलाने के लिए है।जीवन साथी शब्द की सार्थकता ही ये है कि हम एक-दूसरे में एकाकार हो जाएं....पर कहां हो पाता है ऐसा..... जिंदगी भर एक-दूसरे को समझने को कोशिश करते हैं पर पूरी तरह तो क्या आधा-अधूरा समझने का दावा भी झूठा ही प्रतीत होता है। मिलकर भी न मिलेते..... समझकर भी न समझते.....एक दूसरे में एकाकार होकर भी अपने-अपने वजूद, अपने-अपने हक और अधिकार को मोह नहीं छोड़ पाते....पूर्ण परिचित होकर भी कहीं न कहीं अजनबीपन बाकी रह जाता है हर बार ..... । कभी-कभी ऊपर से सब कुछ सामान्य दिखता है पर भीतर ही भीतर एक लावा उबलता रहता है तो कभी-कभी ऊपर से एक-दूसरे की मिनट-मिनट में टांग खिंचाई करते रहते है पर भीतर प्रेम का मीठा दरिया बहता रहता है। अजीब सा रिश्ता है ये..... सब रिश्तों से मजबूत और उतना ही कमजोर भी.... बङ़ी- बङ़ी चुनौतियों को हंसते-हंसते सह जाता है लेकिन उखङ़ जाये तो छोटी सी बात पर दोनों के रास्ते बदल देता है। इस रिश्ते नाम है -पति-पत्नी।

मैं उठकर गैलरी में आ गया। रात के बारह बजे थे। बेहद उमस थी। छोटे-छोटे बादलों के टुकड़े आपस में एकाकार होकर शायद बरसने की प्लानिंग में लगे थे। बादलों ‌की साजिश से बेखबर चांद अपनी चांदनी बिखेरता धरती के नूर को बढ़ा रहा था। एक तो ये चांदनी है जो पल भर भी जुदा नहीं होती अपने चांद से और एक मेरी चांदनी.....बात-बात पर रुठ जाती है। कभी-कभी उसका रुठना अच्छा भी लगता है पर हर बार ..... ऐसा नहीं होता‌। कभी गुस्सा भी आ जाता है और मुझे गुस्सा आया नहीं कि गया काम से....।

दूसरे कमरे में जाकर देखा। चांदनी आराम से एकदम निर्विकार होकर बेटी से लिपट कर सो रही थी।उसका सौम्य,‌निश्छल सौन्दर्य देखकर प्यार से एक फ्लाईंग किस दोनों की ओर उछाल दी और दबे पांव लौट आया मैं। चाहकर भी जगा नहीं पाया। मुझे मां कि याद आ गई अक्सर कहती थी- रतन, सोते हुए को नहीं जगाना, पाप लगता है। वाकई बचपन के संस्कार इतने गहरे होते हैं कि जिंदगी भर साथ रहते।सोचते-सोचते अनमना सा बहुत देर तक टहलता रहा, आज का पूरा घटनाक्रम आंखों ‌में घूमता रहा।

बेटी को किसी सहेली के बर्थ डे पार्टी में जाना था सो तय हुआ कि उसे वहां छोङकर हम दोनों फिल्म चले जाएंगे और लौटते हुए उसे ले लेंगे। चांदनी का मन था नई रिलीज मूवी "थप्पङ" देखने का.....। मुझे तो नाम से अजीब सी लगी पर बैठ गया उसके साथ।एक थप्पङ को लेकर जो हाहाकार मूवी में दिखाया जा रहा था मुझे कुछ अनुचित सा ही लगा। हो सकता है ये मेरी पुरुष प्रधान मानसिकता हो पर मैं मूवी छोङकर बाहर आ गया। थोङ़ी देर बाद भुनभुनाती चांदनी भी निकल आई।लगी बरसने-"अजीब आदमी हो, मूवी छोङकर बाहर आ गये, अच्छी-खासी वैचारिक मूवी है पर नहीं.... तुम्हें तो सिरगेट फूंकने में मजा आ रहा है..... मेरी पसंद की मूवी का सत्यानाश कर दिया....मैं तो तुम्हारे साथ तुम्हारी पसंद की मूवी मजे से देख लेती हूं हर बार ..... कभी कुछ नहीं कहती ...... कभी मेरी पसंद का भी तो ख्याल रखना सीखो रतन..... तुम्हें तो बस बै-सिर पैर की कॉमेडी पसंद आती है.... बेमतलब की हा... हा...ही...ही... अजीब सी ओवर एक्टिंग.... पर सब झेल जाती हूं तुम्हारी पसंद की खातिर.....और तुम.....इस फिल्म में जरा सा सच क्या दिखा दिया मिर्ची लग गई तुम्हें....और तुम्हें ही क्या.... तुम्हारी पूरी जमात को मिर्ची लग गई...."।

"अरे यार, मैनें कब कहां तुम मेरे पीछे-पीछे आ जाओ, तुम पूरी देखकर आती, जरूरी तो नहीं कि हमारी हर पसंद मिले, मुझे कॉमेडी मूवी पसंद है जो तुम्हें बे-सिर-पैर की लगती है। ये वैचारिक मूवी तुम्हें ही मुबारक हो.... । फिल्म देखने आते हैं अपने मन बहलाव के लिए .... रोजमर्रा के तनाव से हल्का होने के लिए ....थोङ़ा टाइम पास और मनोरंजन ही उद्देश्य होता है अपना तो....अगर फिल्म देखकर सरदर्द हो तो उसे देखना मेरे वश की बात नहीं... तुम्हें देखना हो तो देख लो मैं बाहर बैठा हूं...."।

"जी नहीं.... बाहर बैठे-बैठे आपका सर गर्म हो जाएगा .....सब समझती हूं.... हर मर्द औरत को अपनी मुट्ठी में रखना चहाता है....."।

"तिल का ताड़ मत बनाओ यार ....."।

"हां... हां.... तिल का ताड़ तो‌ मैं ही बना रही हूं। मेरी मति मारी गई थी जो आपके साथ ये मूवी देखने आ गई। तुम्हारे इगो पर चोट जो लग गई ..... कैसे बर्दाश्त करते कि एक पत्नी इतना बोल्ड डिसीजन ले सकती। अपनी पत्नियों को मुठ्ठी में रखने वाले लोगों के मूंह पर करारा तमाचा है ये मूवी"।

"होगी ..... पर तुम मुझे क्यों सुना रही हो ये सब"।

"इसलिए कि आप मुझे अबला समझने की भूल मत करना"।

"अरे बाबा बारह साल हो गये शादी को ये अबला-सबला हमारे बीच कहां से आ गई"।

"हां.... हां..... सब जानती हूं।जब तक आप लोगों की हां में हां मिलाओ सब ठीक .....जरा सा अपने मन की करो तो आप लोगों का असली रूप सामने आ आता है।उपर से कितना ही मॉर्डन हाने का ढोंग करें पर होते हैं सबके सब दकियानूसी....हजम नहीं होती स्त्रियों की आजादी..... आंखों में किरकिरी सा चुभता है उनका पावर ....पर अब ओर नहीं....आज की औरत कमजोर नहीं है ....समझे जनाब...."।

चांदनी लगातार बोले जा रही थी । बात कुछ भी नहीं थी पर स्त्री और पुरुष पुराण एक बार शुरु हो जाये तो बंद कहां होता है। सदियों से साथ-साथ चलने के बावजूद भी दोनों रेल की पटरियों के सामान साथ चलते हैं, जितनी परवाह एक-दूसरे की करते हैं उतनी ही अनदेखी भी करने से बाज नहीं आते दोनों.....दूर रहे तो दूरी पल पल अखरती है..... और साथ रहे तो हर कदम पर मनमुटाव.... बात बात पर खीज....टकराहट..... लङ़ाई.... भी साथ चलती है.....अजीब दास्तां है इस रिश्ते की न कहते बनती है न मन के भीतर रह पाती है ।

हमारे बीच भी बात इतनी बढ़ी कि हम दोनों ने खाना नहीं खाया। चांदनी बेटी के साथ जाकर सो गई और मैं करवटें बदलता अकेला ....।

कितना बदल गई है चांदनी। मुझे शादी के समय की छुईमुई सी शर्मीली, नजाकत से भरी, बिना किसी प्रतिवाद के हर बात को मान लेने वाली, संस्कारों की उस मूरत की याद आई जिसकी मुस्कराहट पर मैं फिदा था।हर छोटी खुशी को बङ़ा बना देने में एक्सपर्ट चांदनी ने परिवार को वो सारी खुशियां दी जो एक पत्नी, बहू, मां के रूप में वो दे सकती थी।जब तक मां थी एकदम अनुशासनबद्ध रहा उसका जीवन।हर काम में समय की पाबंद मां का हर कार्य वो इस तरह करती मानो बरसों से उसके साथ हो। कभी-कभी मां की बातों से मैं झुंझला जाता पर चांदनी उसी बात को हंसकर टाल देती। कहती- " मां-बाप इतना करते हैं अपने बच्चों के लिए कि उसका कर्ज हम चाहकर भी नहीं चुका सकते फिर मांजी ने तो बरसों अकेले परवरिश की आपकी। पिताजी के जाने के बाद कितनी कठिनाईयां झेली होगी उन्होंने आप समझकर भी नहीं समझ सकते। मां के अनुशासन को मानने वाली चांदनी ने मां के जाने के बाद उस अनुशासन को तिलांजलि दे दी।मैं अनुभव कर रहा था कि वो लगातार बदल रही है उसकी भीतर की मनमौजी, हठी, अपनी मान्यताओं को स्पष्ट रुप से सामने रखने वाली, अपनी बात पर अडिग, अपने शौक को अपना जीवन मानने वाली स्त्री निरन्तर मेरे सामने प्रस्तुत हो रही है। क्या अभी तक उसका व्यक्तित्व मां के कारण दबा हुआ था जो अब झटके से स्प्रिंग वाले सांप की तरह बाहर आकर मुझे डरा रहा है.....,क्या मेरा अंहकार उसे दबाना चाहता है....., क्या पुरुष और स्त्री के मघ्य सदियों से चलने वाला संघर्ष हमारे बीच हावी हो रहा है....., क्या टीवी, मैगजीन, इंटरनेट, फेसबुक ने इसका दिमाग़ खराब कर दिया है....इस तरह के जाने कितने प्रश्न मेरे मस्तिष्क को बैचैन कर रहे थे पर इन सबका उत्तर नहीं है मेरे पास। बदलाव की इस बयार का मैं साक्षी जरुर हूं पर कारण की खोज वश में नहीं है।

मैं बालकनी से उठकर गेस्ट रूम में चला आया। जहां तीन-चार कैनवास पर चांदनी की पैन्टिंग जो लगभग पूरी होने वाली है लगी हुई है।रंग, ब्रश, तारपीन और भी पेंटिंग में इस्तेमाल होने वाले कई सामान वहां रखे हैं। ये शौक भी तो मां के जाने के बाद बाहर आया....उन दिनों चांदनी ने मुझसे छुपाकर एक पेंटिंग बनाई थी सरप्राइज दिया था मुझे। उसके भीतर के कलाकार को देखकर मैं हैरान था। मैनें कहा - "अब से पहले क्यों नहीं बनाई" तो उसका सपाट सा उत्तर था- "कल्पना करना और उसे मूर्त रूप देना समय मांगता है जनाब ...., मेरे पास समय कहां था। मैं बहू , पत्नी और मां की भूमिकाओं में इतना खो गई थी कि अपने भीतर में बैठे कलाकार से आंखें भी नहीं मिला पाई। जानते हैं, जब ये कलाकार बाहर निकलता है तो फिर रात-दिन कुछ नहीं देखता..... पूरा समय और समर्पण कला के नाम हो जाता है।अब समय भी है,मन भी है और समर्पण के लिए जीवन में कुछ रिक्तता का भी अनुभव हो रहा है मुझे .....अब मैं अपने कलाकार को न्याय दे पाऊंगी.... "।

उसने अपनी पहली पेंटिंग पूरे पच्चीस हजार में बेची थी .... उसकी खुशी से अनजान मैनें इतना सा कह दिया था कि- "अरे यार, बेचने की बजाय अपने ही हॉल में लगा लेती"। बिफर गई थी वो - "हां....हां.... हॉल में लगा लेती.... ताकि मेरे भीतर के कलाकार का दम घुट जाये....तुम तो चहाते ही नहीं कि लोग मुझे मेरी कला के बलबूते पहचाने....बस तुम्हारी बीबी बनना ही मेरी उपलब्धि रहे....दूसरों की सौ तारीफों के पूल बांधोगे पर मेरे लिए एक शब्द नहीं निकलता मूंह से.....पर बहुत हो गया पिछले दस सालों से आपकी सुन रही हूं और मान भी रही हूं पर अब नहीं.... अब अगले दस साल मैं कहूंगी और आप सुनोगे....." कहते हुए उसने गाड़ी की चाबी उठाई और बाहर निकल गई।

"अरे यार,रूको...." कहते हुए मैं बाहर लपका।

"कहां जा रही हो, चलो मैं भी चलता हूं...." भीतर ही भीतर किसी अनहोनी की आशंका मुझे डरा रही थी पर उन सबको निराधार साबित करते हुए वो यह कहकर निकल गई कि - "कहीं नहीं जा रही, वापस आ जाऊंगी थोङ़ी देर में, बरसों हो गये गाङ़ी में आपके साथ आते-जाते, मैं तो भूल‌ ही गई कि मैं भी ड्राइव करना जानती हूं।सर में गैस भर गई घर में पङ़े-पङ़े....जरा हवा खाकर आती हूं...." कहकर वो तीर की तरह निकल गई।

अगले एक घंटे तक मेरी जान हलक में अटकी रही। मैं चांदनी के लौटने तक वहीं दरवाजे पर खङ़ा रहा और वो लौटी केक और समोसे लेकर, अपनी पहली पेंटिंग के बिकने का सेलिब्रेशन करने.....। मान गया था उस दिन से चांदनी को, जिसके पंखों का विस्तार अब असमान नाप लेना चाहते थे।

उस दिन के पश्चात् मैनें महसूस किया सचमुच आजकल उल्टी बाजी खेल रहे थे हम लोग। पूरी ठसक से वो अपनी बात मनवाती, अपने मन के अनुसार घर सजाती, कपङ़े पहनती, खरीददारी करती और वो सब कुछ करती जिसका वो सपना खुली आंखों से देखती....। मैं समझ नहीं पा रहा था कि एक ही स्त्री में कितने रूप छुपे हैं।एक रूप वो भी था कि कॉलेज की चंचल हिरनी कैसे एकदम गंभीर , संस्कारी बहू बन गई थी और एक रूप ये भी है कि संस्कारी बहू अब मनमौजी पत्नी बनकर सामने है। कहते स्त्री को बनाने के बाद खुद ब्रह्मा जी उसे नहीं समझ पाये..... फिर आदमी और मेरे जैसे साधारण आदमी की क्या बिसात कि उसे समझ पाये....बचपन में एक गुङ़िया के भीतर से निकलती हुई दूसरी गुङिया वाला खिलौना देखा था और अब साक्षात देख रहा था कि कैसे एक ही व्यक्ति में अनेक व्यक्तित्व छुपे हुए होते हैं।

मैं गेस्ट रूम में खङ़ा चांदनी की पेंटिंग निहारने लगता हूं‌। कहते हैं - कलाकार अपना प्रतिरूप अपनी कृतियों में रख देता है। आजकल तो समय मिलते ही पेंटिंग बनाने में उलझ जाती चांदनी .... अच्छी कीमत में बिकती हुई पेंटिंग उसके उत्साह को दुगना कर जाती।

मैं देख रहा हूं चार पेंटिंग पर काम चल रहा है । पहली भगवान बुद्ध की पेंटिंग है।एकदम शांत, स्निग्ध, मुस्कुराते हुए भगवान बुद्ध। वो पेंटिंग सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर रही है पर ये क्या उनके मस्तिष्क पर दुनिया का एक नक्शा दिखाई दे रहा है जहां बहुत सारे द्वन्द दिखाई दे रहे हैं। इतने सारे द्वन्दों के बीच भला कोई कैसे मुस्कुरा सकता है....। क्या उनके मन में भी द्वंद रहे होगें.....। क्या उनका आधी रात को अपनी बेटी और पत्नी को छोङ़कर जाना सही था.....क्यों गये थे वे बिना बताए.... कैसे बने भगवान ....। बहुत देर तक मैं इसके बारे में सोचता हूं, खुद से ही पूछता हूं पर ज़वाब नहीं मिलता मुझे।

दूसरी पेंटिंग में एक युवा प्रेमी जोड़ा समन्दर के बीच नाव पर सवार है, आसमान में बादल घिर रहे हैं , हवाएं जोर से चल रही है लगता है तूफान आने वाला है पर युवती अपनी साङ़ी को बेपरवाह होकर पाल बनाकर फहरा रही है। उसकी मुस्कान में भय का लेशमात्र भी नहीं है जबकि युवक कुछ परेशान लग रहा। मैं उस पेंटिंग में खुद को युवक और युवती में चांदनी की प्रतिछाया को महसूस करता हूं पर वहां ज्यादा देर स्थिर नहीं रह पाता हूं।

अगली पेंटिंग में श्वेत वस्त्रों में लिपटी एक बेहद खूबसूरत स्त्री है जो चांदनी रात में चंद्रमा को अपलक निहार रही है। एकदम दुधिया रंग में लिपटी वो पेंटिंग देखकर मेरी पलकें झपकना तक भूल जाती है । जाने कितनी देर मैं उसे निहारता रहता हूं। मनमोहक इस तस्वीर में मुझे कुछ कमी सी लगती है अचानक मेरे हाथ ब्रश में लाल रंग लेकर उस युवती के चौङे ललाट पर सुर्ख बङ़ी सी बिंदी सजा देते हैं।मैं भूल जाता हूं कि ये चांदनी की पेंटिंग है और उसे अपनी पेंटिंग में फेर-बदल तो क्या.... इस कमरे में किसी की ताक-झांक तक बर्दाश्त नहीं है।

पता नहीं क्यूं .....पर सब कुछ जानते हुए भी मुझे लगता है ये पेंटिंग अब पूरी हो गई है।मैं मुङता हूं तो सामने चांदनी को देखकर हङ़बङ़ा जाता हूं। पर ये क्या ....उसने मुझे अपनी ओर खींच लिया , कहती हैं " जानते हो बहुत दिनों से इस पेंटिंग को मैं ठीक ऐसी ही लाल सुर्ख बिंदी से सजाने का सोच रही थी पर कन्फ्यूजन था पता नहीं कैसी लगेगी पर आज तुमने तो कमाल ही कर दिया.....अब पूरी हो गई ये पेंटिंग.... बिल्कुल परफेक्ट.... लगता है इस कलाकार के साथ रहते-रहते आपके भीतर भी कोई कलाकार जन्म ले रहा है। चांदनी की मुस्कराहट देखकर मैं भी मुस्कुरा दिया।

मुझे लग रहा था उल्टी बाजी-सीधी बाजी सब मन का भ्रम है। चांदनी बदल रही है उसकी उम्मीदें, आकांक्षाएं, उसकी सोच बदल रही है, उसके व्यक्तित्व का विस्तार हो रहा है, उसके भीतर की छुपी हुई क्षमताओं को जागरण हो रहा है, गुङिया के भीतर एक और गुङिया का जन्म हो रहा है तो थोङ़ा सा मुझे भी बदलना होगा, छोङ़ना होगा अपना अहं, खुली सोच के खुला आसमान में ही भविष्य की सुंदर इबारत लिखी जा सकती है।

"कहां खो गये, चाय बना रही हूं, ब्रश कर लो फटाफट" चांदनी की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई।

मन हुआ कह दूं पूरी रात सोया नहीं मैडम, ब्रश की जरूरत नहीं मुझे.... पर कह नहीं पाया।कल की बात का कोई तनाव चांदनी के चेहरे पर नहीं था। वो हमेशा की तरह प्रफुल्लित और खिली-खिली थी।

उसकी मुस्कान देखकर मुझे भी लगा कहां छोटी-छोटी बातों में उलझ रहा है रतन, जिंदगी को जीना सीख,दो विपरीत लोगों में मतभेद तो होंगे ही, मीठे के साथ नमकीन भी तो जरूरी है यार, सोचते हुए मेरे होंठों पर भी मुस्कान पसर गई।

आज चाय मैं बनाता हूं चांदनी,अदरक इलायची डालकर एकदम कङ़क.... तुम्हारी तरह.....।

अरे वाह फिर तो मजा आ जाएगा.....कहते हुए चांदनी गैस स्लेब से हटकर बिस्किट, नमकीन निकालने लगी और मैं अदरक, इलायची के साथ अपने अहंकार को कूटते हुए सोच रहा था एक गुङिया के ‌भीतर कैसे रहती ‌है दूसरी गुङ़िया।

डॉ पूनम गुजरानी
सूरत
मो- 9825473857





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From: Dr. Poonam Gujrani <poonamgujrani@gmail.com>
Date: Thu, 8 Oct, 2020, 5:04 PM
Subject: संवादिया में प्रकाशन हेतु कहानी- गुङ़िया भीतर गुङ़िया
To: <samvadiyapatrika@gmail.com>


कहानी

गुङिया भीतर गुङिया

गुङ़िया भीतर गुङ़िया

चांदनी.... चांदनी.... चांदनी.... चिल्लाते हुए मैं लगातार उसके पीछे भाग रहा था पर वो मेरी पकड़ में नहीं आ पाई। हांफते-हांफते किसी ठोकर से गिरा तो रोने लगा पर आवाज गले में अटक गई, शरीर सुन्न‌ हो गया, हाथ- पांव में बेहिसाब वजन का अहसास हो रहा था कि तभी आंख खुली....ये ...ये क्या, क्या मैं सपना देख रहा था..... आवाज अभी भी हलक में अटकी हुई थी, पलंग पर चांदनी नहीं थी, आंखों की कोर भी गली थी, शरीर भी संज्ञा शून्य.... सपने और हकीकत में भेद ही नहीं कर पा रहा था मैं। बङ़ी मुश्किल से उठकर पानी पिया, खुद को संयत किया तो शाम का घटनाक्रम आंखों के आगे जीवंत हो गया ।

बात क्या थी .... कुछ भी तो नहीं.... फिर इतनी तीखी बहस का कारण.... । बात कहां से शुरु होती है और कहां पहुंच जाती है.... न किसी से लेना न देना .....पर हम अपने ही फंदों में उलझे हर बात को स्वयं पर ओढ लेते हैं और सामने वाले को ग़लत ठहराने का कोई मौका नहीं छोड़ते। तिस पर बात यदि नारी अस्मिता और पुरुष के अंहकार की हो तो फिर करैला ऐसा नीम पर चढ़ता है कि चीनी खाओ या कटोरी भर शहद चाट लो कङ़वाहट कम नहीं होती।

पति-पत्नी का रिश्ता तो बना ही दो विपरीत ध्रुवों को मिलाने के लिए है।जीवन साथी शब्द की सार्थकता ही ये है कि हम एक-दूसरे में एकाकार हो जाएं....पर कहां हो पाता है ऐसा..... जिंदगी भर एक-दूसरे को समझने को कोशिश करते हैं पर पूरी तरह तो क्या आधा-अधूरा समझने का दावा भी झूठा ही प्रतीत होता है। मिलकर भी न मिलेते..... समझकर भी न समझते.....एक दूसरे में एकाकार होकर भी अपने-अपने वजूद, अपने-अपने हक और अधिकार को मोह नहीं छोड़ पाते....पूर्ण परिचित होकर भी कहीं न कहीं अजनबीपन बाकी रह जाता है हर बार ..... । कभी-कभी ऊपर से सब कुछ सामान्य दिखता है पर भीतर ही भीतर एक लावा उबलता रहता है तो कभी-कभी ऊपर से एक-दूसरे की मिनट-मिनट में टांग खिंचाई करते रहते है पर भीतर प्रेम का मीठा दरिया बहता रहता है। अजीब सा रिश्ता है ये..... सब रिश्तों से मजबूत और उतना ही कमजोर भी.... बङ़ी- बङ़ी चुनौतियों को हंसते-हंसते सह जाता है लेकिन उखङ़ जाये तो छोटी सी बात पर दोनों के रास्ते बदल देता है। इस रिश्ते नाम है -पति-पत्नी।

मैं उठकर गैलरी में आ गया। रात के बारह बजे थे। बेहद उमस थी। छोटे-छोटे बादलों के टुकड़े आपस में एकाकार होकर शायद बरसने की प्लानिंग में लगे थे। बादलों ‌की साजिश से बेखबर चांद अपनी चांदनी बिखेरता धरती के नूर को बढ़ा रहा था। एक तो ये चांदनी है जो पल भर भी जुदा नहीं होती अपने चांद से और एक मेरी चांदनी.....बात-बात पर रुठ जाती है। कभी-कभी उसका रुठना अच्छा भी लगता है पर हर बार ..... ऐसा नहीं होता‌। कभी गुस्सा भी आ जाता है और मुझे गुस्सा आया नहीं कि गया काम से....।

दूसरे कमरे में जाकर देखा। चांदनी आराम से एकदम निर्विकार होकर बेटी से लिपट कर सो रही थी।उसका सौम्य,‌निश्छल सौन्दर्य देखकर प्यार से एक फ्लाईंग किस दोनों की ओर उछाल दी और दबे पांव लौट आया मैं। चाहकर भी जगा नहीं पाया। मुझे मां कि याद आ गई अक्सर कहती थी- रतन, सोते हुए को नहीं जगाना, पाप लगता है। वाकई बचपन के संस्कार इतने गहरे होते हैं कि जिंदगी भर साथ रहते।सोचते-सोचते अनमना सा बहुत देर तक टहलता रहा, आज का पूरा घटनाक्रम आंखों ‌में घूमता रहा।

बेटी को किसी सहेली के बर्थ डे पार्टी में जाना था सो तय हुआ कि उसे वहां छोङकर हम दोनों फिल्म चले जाएंगे और लौटते हुए उसे ले लेंगे। चांदनी का मन था नई रिलीज मूवी "थप्पङ" देखने का.....। मुझे तो नाम से अजीब सी लगी पर बैठ गया उसके साथ।एक थप्पङ को लेकर जो हाहाकार मूवी में दिखाया जा रहा था मुझे कुछ अनुचित सा ही लगा। हो सकता है ये मेरी पुरुष प्रधान मानसिकता हो पर मैं मूवी छोङकर बाहर आ गया। थोङ़ी देर बाद भुनभुनाती चांदनी भी निकल आई।लगी बरसने-"अजीब आदमी हो, मूवी छोङकर बाहर आ गये, अच्छी-खासी वैचारिक मूवी है पर नहीं.... तुम्हें तो सिरगेट फूंकने में मजा आ रहा है..... मेरी पसंद की मूवी का सत्यानाश कर दिया....मैं तो तुम्हारे साथ तुम्हारी पसंद की मूवी मजे से देख लेती हूं हर बार ..... कभी कुछ नहीं कहती ...... कभी मेरी पसंद का भी तो ख्याल रखना सीखो रतन..... तुम्हें तो बस बै-सिर पैर की कॉमेडी पसंद आती है.... बेमतलब की हा... हा...ही...ही... अजीब सी ओवर एक्टिंग.... पर सब झेल जाती हूं तुम्हारी पसंद की खातिर.....और तुम.....इस फिल्म में जरा सा सच क्या दिखा दिया मिर्ची लग गई तुम्हें....और तुम्हें ही क्या.... तुम्हारी पूरी जमात को मिर्ची लग गई...."।

"अरे यार, मैनें कब कहां तुम मेरे पीछे-पीछे आ जाओ, तुम पूरी देखकर आती, जरूरी तो नहीं कि हमारी हर पसंद मिले, मुझे कॉमेडी मूवी पसंद है जो तुम्हें बे-सिर-पैर की लगती है। ये वैचारिक मूवी तुम्हें ही मुबारक हो.... । फिल्म देखने आते हैं अपने मन बहलाव के लिए .... रोजमर्रा के तनाव से हल्का होने के लिए ....थोङ़ा टाइम पास और मनोरंजन ही उद्देश्य होता है अपना तो....अगर फिल्म देखकर सरदर्द हो तो उसे देखना मेरे वश की बात नहीं... तुम्हें देखना हो तो देख लो मैं बाहर बैठा हूं...."।

"जी नहीं.... बाहर बैठे-बैठे आपका सर गर्म हो जाएगा .....सब समझती हूं.... हर मर्द औरत को अपनी मुट्ठी में रखना चहाता है....."।

"तिल का ताड़ मत बनाओ यार ....."।

"हां... हां.... तिल का ताड़ तो‌ मैं ही बना रही हूं। मेरी मति मारी गई थी जो आपके साथ ये मूवी देखने आ गई। तुम्हारे इगो पर चोट जो लग गई ..... कैसे बर्दाश्त करते कि एक पत्नी इतना बोल्ड डिसीजन ले सकती। अपनी पत्नियों को मुठ्ठी में रखने वाले लोगों के मूंह पर करारा तमाचा है ये मूवी"।

"होगी ..... पर तुम मुझे क्यों सुना रही हो ये सब"।

"इसलिए कि आप मुझे अबला समझने की भूल मत करना"।

"अरे बाबा बारह साल हो गये शादी को ये अबला-सबला हमारे बीच कहां से आ गई"।

"हां.... हां..... सब जानती हूं।जब तक आप लोगों की हां में हां मिलाओ सब ठीक .....जरा सा अपने मन की करो तो आप लोगों का असली रूप सामने आ आता है।उपर से कितना ही मॉर्डन हाने का ढोंग करें पर होते हैं सबके सब दकियानूसी....हजम नहीं होती स्त्रियों की आजादी..... आंखों में किरकिरी सा चुभता है उनका पावर ....पर अब ओर नहीं....आज की औरत कमजोर नहीं है ....समझे जनाब...."।

चांदनी लगातार बोले जा रही थी । बात कुछ भी नहीं थी पर स्त्री और पुरुष पुराण एक बार शुरु हो जाये तो बंद कहां होता है। सदियों से साथ-साथ चलने के बावजूद भी दोनों रेल की पटरियों के सामान साथ चलते हैं, जितनी परवाह एक-दूसरे की करते हैं उतनी ही अनदेखी भी करने से बाज नहीं आते दोनों.....दूर रहे तो दूरी पल पल अखरती है..... और साथ रहे तो हर कदम पर मनमुटाव.... बात बात पर खीज....टकराहट..... लङ़ाई.... भी साथ चलती है.....अजीब दास्तां है इस रिश्ते की न कहते बनती है न मन के भीतर रह पाती है ।

हमारे बीच भी बात इतनी बढ़ी कि हम दोनों ने खाना नहीं खाया। चांदनी बेटी के साथ जाकर सो गई और मैं करवटें बदलता अकेला ....।

कितना बदल गई है चांदनी। मुझे शादी के समय की छुईमुई सी शर्मीली, नजाकत से भरी, बिना किसी प्रतिवाद के हर बात को मान लेने वाली, संस्कारों की उस मूरत की याद आई जिसकी मुस्कराहट पर मैं फिदा था।हर छोटी खुशी को बङ़ा बना देने में एक्सपर्ट चांदनी ने परिवार को वो सारी खुशियां दी जो एक पत्नी, बहू, मां के रूप में वो दे सकती थी।जब तक मां थी एकदम अनुशासनबद्ध रहा उसका जीवन।हर काम में समय की पाबंद मां का हर कार्य वो इस तरह करती मानो बरसों से उसके साथ हो। कभी-कभी मां की बातों से मैं झुंझला जाता पर चांदनी उसी बात को हंसकर टाल देती। कहती- " मां-बाप इतना करते हैं अपने बच्चों के लिए कि उसका कर्ज हम चाहकर भी नहीं चुका सकते फिर मांजी ने तो बरसों अकेले परवरिश की आपकी। पिताजी के जाने के बाद कितनी कठिनाईयां झेली होगी उन्होंने आप समझकर भी नहीं समझ सकते। मां के अनुशासन को मानने वाली चांदनी ने मां के जाने के बाद उस अनुशासन को तिलांजलि दे दी।मैं अनुभव कर रहा था कि वो लगातार बदल रही है उसकी भीतर की मनमौजी, हठी, अपनी मान्यताओं को स्पष्ट रुप से सामने रखने वाली, अपनी बात पर अडिग, अपने शौक को अपना जीवन मानने वाली स्त्री निरन्तर मेरे सामने प्रस्तुत हो रही है। क्या अभी तक उसका व्यक्तित्व मां के कारण दबा हुआ था जो अब झटके से स्प्रिंग वाले सांप की तरह बाहर आकर मुझे डरा रहा है.....,क्या मेरा अंहकार उसे दबाना चाहता है....., क्या पुरुष और स्त्री के मघ्य सदियों से चलने वाला संघर्ष हमारे बीच हावी हो रहा है....., क्या टीवी, मैगजीन, इंटरनेट, फेसबुक ने इसका दिमाग़ खराब कर दिया है....इस तरह के जाने कितने प्रश्न मेरे मस्तिष्क को बैचैन कर रहे थे पर इन सबका उत्तर नहीं है मेरे पास। बदलाव की इस बयार का मैं साक्षी जरुर हूं पर कारण की खोज वश में नहीं है।

मैं बालकनी से उठकर गेस्ट रूम में चला आया। जहां तीन-चार कैनवास पर चांदनी की पैन्टिंग जो लगभग पूरी होने वाली है लगी हुई है।रंग, ब्रश, तारपीन और भी पेंटिंग में इस्तेमाल होने वाले कई सामान वहां रखे हैं। ये शौक भी तो मां के जाने के बाद बाहर आया....उन दिनों चांदनी ने मुझसे छुपाकर एक पेंटिंग बनाई थी सरप्राइज दिया था मुझे। उसके भीतर के कलाकार को देखकर मैं हैरान था। मैनें कहा - "अब से पहले क्यों नहीं बनाई" तो उसका सपाट सा उत्तर था- "कल्पना करना और उसे मूर्त रूप देना समय मांगता है जनाब ...., मेरे पास समय कहां था। मैं बहू , पत्नी और मां की भूमिकाओं में इतना खो गई थी कि अपने भीतर में बैठे कलाकार से आंखें भी नहीं मिला पाई। जानते हैं, जब ये कलाकार बाहर निकलता है तो फिर रात-दिन कुछ नहीं देखता..... पूरा समय और समर्पण कला के नाम हो जाता है।अब समय भी है,मन भी है और समर्पण के लिए जीवन में कुछ रिक्तता का भी अनुभव हो रहा है मुझे .....अब मैं अपने कलाकार को न्याय दे पाऊंगी.... "।

उसने अपनी पहली पेंटिंग पूरे पच्चीस हजार में बेची थी .... उसकी खुशी से अनजान मैनें इतना सा कह दिया था कि- "अरे यार, बेचने की बजाय अपने ही हॉल में लगा लेती"। बिफर गई थी वो - "हां....हां.... हॉल में लगा लेती.... ताकि मेरे भीतर के कलाकार का दम घुट जाये....तुम तो चहाते ही नहीं कि लोग मुझे मेरी कला के बलबूते पहचाने....बस तुम्हारी बीबी बनना ही मेरी उपलब्धि रहे....दूसरों की सौ तारीफों के पूल बांधोगे पर मेरे लिए एक शब्द नहीं निकलता मूंह से.....पर बहुत हो गया पिछले दस सालों से आपकी सुन रही हूं और मान भी रही हूं पर अब नहीं.... अब अगले दस साल मैं कहूंगी और आप सुनोगे....." कहते हुए उसने गाड़ी की चाबी उठाई और बाहर निकल गई।

"अरे यार,रूको...." कहते हुए मैं बाहर लपका।

"कहां जा रही हो, चलो मैं भी चलता हूं...." भीतर ही भीतर किसी अनहोनी की आशंका मुझे डरा रही थी पर उन सबको निराधार साबित करते हुए वो यह कहकर निकल गई कि - "कहीं नहीं जा रही, वापस आ जाऊंगी थोङ़ी देर में, बरसों हो गये गाङ़ी में आपके साथ आते-जाते, मैं तो भूल‌ ही गई कि मैं भी ड्राइव करना जानती हूं।सर में गैस भर गई घर में पङ़े-पङ़े....जरा हवा खाकर आती हूं...." कहकर वो तीर की तरह निकल गई।

अगले एक घंटे तक मेरी जान हलक में अटकी रही। मैं चांदनी के लौटने तक वहीं दरवाजे पर खङ़ा रहा और वो लौटी केक और समोसे लेकर, अपनी पहली पेंटिंग के बिकने का सेलिब्रेशन करने.....। मान गया था उस दिन से चांदनी को, जिसके पंखों का विस्तार अब असमान नाप लेना चाहते थे।

उस दिन के पश्चात् मैनें महसूस किया सचमुच आजकल उल्टी बाजी खेल रहे थे हम लोग। पूरी ठसक से वो अपनी बात मनवाती, अपने मन के अनुसार घर सजाती, कपङ़े पहनती, खरीददारी करती और वो सब कुछ करती जिसका वो सपना खुली आंखों से देखती....। मैं समझ नहीं पा रहा था कि एक ही स्त्री में कितने रूप छुपे हैं।एक रूप वो भी था कि कॉलेज की चंचल हिरनी कैसे एकदम गंभीर , संस्कारी बहू बन गई थी और एक रूप ये भी है कि संस्कारी बहू अब मनमौजी पत्नी बनकर सामने है। कहते स्त्री को बनाने के बाद खुद ब्रह्मा जी उसे नहीं समझ पाये..... फिर आदमी और मेरे जैसे साधारण आदमी की क्या बिसात कि उसे समझ पाये....बचपन में एक गुङ़िया के भीतर से निकलती हुई दूसरी गुङिया वाला खिलौना देखा था और अब साक्षात देख रहा था कि कैसे एक ही व्यक्ति में अनेक व्यक्तित्व छुपे हुए होते हैं।

मैं गेस्ट रूम में खङ़ा चांदनी की पेंटिंग निहारने लगता हूं‌। कहते हैं - कलाकार अपना प्रतिरूप अपनी कृतियों में रख देता है। आजकल तो समय मिलते ही पेंटिंग बनाने में उलझ जाती चांदनी .... अच्छी कीमत में बिकती हुई पेंटिंग उसके उत्साह को दुगना कर जाती।

मैं देख रहा हूं चार पेंटिंग पर काम चल रहा है । पहली भगवान बुद्ध की पेंटिंग है।एकदम शांत, स्निग्ध, मुस्कुराते हुए भगवान बुद्ध। वो पेंटिंग सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर रही है पर ये क्या उनके मस्तिष्क पर दुनिया का एक नक्शा दिखाई दे रहा है जहां बहुत सारे द्वन्द दिखाई दे रहे हैं। इतने सारे द्वन्दों के बीच भला कोई कैसे मुस्कुरा सकता है....। क्या उनके मन में भी द्वंद रहे होगें.....। क्या उनका आधी रात को अपनी बेटी और पत्नी को छोङ़कर जाना सही था.....क्यों गये थे वे बिना बताए.... कैसे बने भगवान ....। बहुत देर तक मैं इसके बारे में सोचता हूं, खुद से ही पूछता हूं पर ज़वाब नहीं मिलता मुझे।

दूसरी पेंटिंग में एक युवा प्रेमी जोड़ा समन्दर के बीच नाव पर सवार है, आसमान में बादल घिर रहे हैं , हवाएं जोर से चल रही है लगता है तूफान आने वाला है पर युवती अपनी साङ़ी को बेपरवाह होकर पाल बनाकर फहरा रही है। उसकी मुस्कान में भय का लेशमात्र भी नहीं है जबकि युवक कुछ परेशान लग रहा। मैं उस पेंटिंग में खुद को युवक और युवती में चांदनी की प्रतिछाया को महसूस करता हूं पर वहां ज्यादा देर स्थिर नहीं रह पाता हूं।

अगली पेंटिंग में श्वेत वस्त्रों में लिपटी एक बेहद खूबसूरत स्त्री है जो चांदनी रात में चंद्रमा को अपलक निहार रही है। एकदम दुधिया रंग में लिपटी वो पेंटिंग देखकर मेरी पलकें झपकना तक भूल जाती है । जाने कितनी देर मैं उसे निहारता रहता हूं। मनमोहक इस तस्वीर में मुझे कुछ कमी सी लगती है अचानक मेरे हाथ ब्रश में लाल रंग लेकर उस युवती के चौङे ललाट पर सुर्ख बङ़ी सी बिंदी सजा देते हैं।मैं भूल जाता हूं कि ये चांदनी की पेंटिंग है और उसे अपनी पेंटिंग में फेर-बदल तो क्या.... इस कमरे में किसी की ताक-झांक तक बर्दाश्त नहीं है।

पता नहीं क्यूं .....पर सब कुछ जानते हुए भी मुझे लगता है ये पेंटिंग अब पूरी हो गई है।मैं मुङता हूं तो सामने चांदनी को देखकर हङ़बङ़ा जाता हूं। पर ये क्या ....उसने मुझे अपनी ओर खींच लिया , कहती हैं " जानते हो बहुत दिनों से इस पेंटिंग को मैं ठीक ऐसी ही लाल सुर्ख बिंदी से सजाने का सोच रही थी पर कन्फ्यूजन था पता नहीं कैसी लगेगी पर आज तुमने तो कमाल ही कर दिया.....अब पूरी हो गई ये पेंटिंग.... बिल्कुल परफेक्ट.... लगता है इस कलाकार के साथ रहते-रहते आपके भीतर भी कोई कलाकार जन्म ले रहा है। चांदनी की मुस्कराहट देखकर मैं भी मुस्कुरा दिया।

मुझे लग रहा था उल्टी बाजी-सीधी बाजी सब मन का भ्रम है। चांदनी बदल रही है उसकी उम्मीदें, आकांक्षाएं, उसकी सोच बदल रही है, उसके व्यक्तित्व का विस्तार हो रहा है, उसके भीतर की छुपी हुई क्षमताओं को जागरण हो रहा है, गुङिया के भीतर एक और गुङिया का जन्म हो रहा है तो थोङ़ा सा मुझे भी बदलना होगा, छोङ़ना होगा अपना अहं, खुली सोच के खुला आसमान में ही भविष्य की सुंदर इबारत लिखी जा सकती है।

"कहां खो गये, चाय बना रही हूं, ब्रश कर लो फटाफट" चांदनी की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई।

मन हुआ कह दूं पूरी रात सोया नहीं मैडम, ब्रश की जरूरत नहीं मुझे.... पर कह नहीं पाया।कल की बात का कोई तनाव चांदनी के चेहरे पर नहीं था। वो हमेशा की तरह प्रफुल्लित और खिली-खिली थी।

उसकी मुस्कान देखकर मुझे भी लगा कहां छोटी-छोटी बातों में उलझ रहा है रतन, जिंदगी को जीना सीख,दो विपरीत लोगों में मतभेद तो होंगे ही, मीठे के साथ नमकीन भी तो जरूरी है यार, सोचते हुए मेरे होंठों पर भी मुस्कान पसर गई।

आज चाय मैं बनाता हूं चांदनी,अदरक इलायची डालकर एकदम कङ़क.... तुम्हारी तरह.....।

अरे वाह फिर तो मजा आ जाएगा.....कहते हुए चांदनी गैस स्लेब से हटकर बिस्किट, नमकीन निकालने लगी और मैं अदरक, इलायची के साथ अपने अहंकार को कूटते हुए सोच रहा था एक गुङिया के ‌भीतर कैसे रहती ‌है दूसरी गुङ़िया।

डॉ पूनम गुजरानी
सूरत
मो- 9825473857