Lahrata Chand - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

लहराता चाँद - 12

लहराता चाँद

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

  • 12
  • संजय जब घर पहुँचा अवन्तिका टेबल पर बैठकर पढ़ रही थी। अनन्या उससे होमवर्क करवा रही थी। अवन्तिका बीच-बीच में अनन्या को सवाल करती और अनन्या उसे समझने में मदद कर रही थी।
  • संजय को देख अनन्या उठ खड़ी हुई, "डैड आप आ गए।"
  • - हाँ बेटा, क्या कर रही हो? सूटकेस को अनन्या को बढ़ाते हुए पूछा।
  • - अवन्तिका के कॉलेज में कल से परीक्षा है डैड उसी की तैयारी हो रही है। आप बैठिए मैं आप के लिए अदरकवाली चाय लेकर आती हूँ।" अनन्या ने डॉ.संजय के सूटकेस लेकर अंदर चली गई।
  • - ठीक है बेटा।" कहकर संजय डाइनिंग टेबल पर अवन्तिका के पास जाकर बैठा। अनन्या संजय के लिए चाय बनाने रसोई में चली गई।
  • - अवन्तिका, बेटा क्या कर रही हो? संजय अवन्तिका के पास बैठकर सिर पे हाथ फेरते हुए पूछा।
  • - अभी दीदी मुझे एग्जाम की तैयारी करवा रही है डैड।"
  • - ठीक है! पर बेटा अब तुम बड़ी हो गई हो, एग्जाम की तैयारी तुम को खुद करना चाहिए। है कि नहीं बोलो?"
  • - हाँ, मैं खुद ही कर रही हूँ डैड, दीदी मेरी मदद कर रही है।
  • - फिर भी अब तुम को खुद से तैयारी करना चाहिए बिना किसीकी मदद के।
  • - पर अगर मैं फ़ैल हो गई तो मेरा साल खराब हो जाएगा ना। दीदी भी दुःखी हो जाएगी।"
  • - हम्म सोचने वाली बात है। और बेटा ये सोचो अगर तुम खुद पढ़कर पास हो गई तो तुम्हारी दीदी को कितनी ख़ुशी होगी।"
  • - हाँ, पापा, पर में खुद से नहीं कर पाऊँगी।"
  • - क्यों नहीं कर सकती कोशिश करो और मन लगा कर पढ़ो फिर फैल कैसे होगी? ये सोचो कल को दीदी अगर ससुराल चली जाएगी तब सारे काम तुम्हें करनी होगी, है की नहीं?" समझाते हुए कहा।
  • - हाँ, डैड सही है फिर मुझे क्या करना चाहिए?"
  • - आज से एग्जाम की तैयारी तुम खुद करोगी और पास भी होगी ठीक कहा न मैने।"
  • - हाँ डैड पर मैं इतनी कॉन्फिडेंट नहीं हूँ।" दोनों ऊँगली को क्रॉस रखते हुए कहा।
  • - तुम कर सकती हो बेटा और दीदी के सहयता बगैर। मुझे तुम पर पूरा भरोसा है।"
  • - अच्छा तो फिर मैं जरूर करूँगी डैड, मैं खुद पढूँगी भी और अच्छे नंबर से पास भी करूँगी।"
  • - गुड, तुमसे मुझे यही उम्मीद थी, माय चाइल्ड।" कहकर संजय उसके माथे को चूम लिया।
  • अवन्तिका ने मुस्कुराते कहा - मैं अभी चाइल्ड नहीं रही पापा, बड़ी हो गई हूँ न।
  • संजय भी हँसते हुए - हाँ बेटा बिलकुल सही कहा तुमने। तुम बड़ी हो गई हो। कहकर सिर पर हाथ से सहलाया।
  • तब तक अनन्या चाय बनाकर ले आई। तीनों साथ चाय पिए। संजय, अनन्या को समझाया और कहा, "अनन्या कुछ समय के लिए अवन्तिका को एग्जाम की तैयारी खुद से करने दो। इस तरह उसे खुद के काबिलियत पर भरोसा होगा और आगे के लिए चैलेंज लेने में सक्षम होगी।"
  • - हाँ दीदी, आज से मैं खुद से पढ़ाई करूँगी।" अवन्तिका भी संजय की बात पर सहमती जताई। अनन्या कहती भी क्या? मुस्कुराते हुए, "ओके डैड" कहकर भारी मन से वहाँ से चली गई।
  • संजय, अनन्या के दर्द से वाकिफ़ था। अनन्या बचपन से अवन्तिका को गले लगा कर माँ की तरह देखभाल जो की है। लेकिन अनन्या की भविष्य की ख़ातिर संजय को यह कदम लेना ही था। अवन्तिका को अपना ख्याल रखने के साथ उसको उसकी जिम्मेदारी का एहसास दिलाना भी जरूरी था। कभी कभी बच्चों की भविष्य के ख़ातिर माँ-बाप को न चाहते हुए भी सख्त कदम उठाना पड़ता है।
  • संजय कुछ देर अनन्या को सोचने के लिए अकेला छोड़ दिया। अनन्या दुःखी मन से खिड़की पर जा खड़ी हुई। वह समझ नहीं पा रही थी कि क्यों संजय ने उसे अवन्तिका को पढ़ाने से रोका, कहीं उससे कोई ग़लती तो नहीं हो गई? वह खिड़की से बाहर देख रही थी। बाहर का मौसम का मिज़ाज़ कुछ नरम था। शाम के 7 बजे थे, धूल मुंबई के शहर पर कोहरे सी छा गई थी। ठंडी बहुत ज्यादा न होने पर भी जनवरी के महीने का असर भी था। उसकी नज़र सामने एक पेड़ पर पड़ी। उसकी शाखाओं के बीच गौरैया का बसेरा बना हुआ था। उसमें से छोटे-छोटे गौरैया चोंच बाहर निकाल कर चूँ-चूँ कर रहे थे। उसकी माँ गौरैया ने कुछ ही दूरी पर ध्यान से बैठी हुई थी। अचानक उसकी नज़र किसी वस्तु पर पड़ी वह तुरंत ही मिट्टी से उसे अपने चोंच से उठा लायी और एक-एक कर दोनों गौरैया को खिलाया। कितना सुंदर दृश्य। एक माँ चाहे वह मनुष्य हो या पंछी उसके ममत्व में कोई कमी नहीं।
  • अनन्या को अपनी माँ की याद आई। उसकी नज़र दीवार पर टंगी रम्या की तस्वीर पर पड़ी। बिन पलक झपकाए बहुत देर तक रम्या की तस्वीर को देखती रह गई। कितनी सुंदर होती है माँ। चाहे माँ के साथ वह कुछ ही समय बितायी हो लेकिन रम्या का प्यार दुलार आज भी उसे जीने के लिए हिम्मत देता है। एक हाथ में अवन्तिका को लिए और गोद में अनन्या को लेकर लोरी गाती हुई माँ की छवि आज भी उसके नज़र में जिन्दा है। अनन्या का मन कुछ साल पीछे चला गया, रम्या की लाश को देख अनन्या को रोकना किसी के बस में नहीं था। कई दिनों तक माँ के प्यार के लिए तड़पते दोनों बच्चे को गोद में लिए संजय अकेला रह गया था। कुछ समय नानी साथ रही फिर शून्यता घेरने लगी। तब से आज तक अनन्या अवन्तिका की माँ बन गई। जब भी अनन्या अवन्तिका को देखती उसकी माँ की याद आ जाती उसे गले लगाकर वो रम्या का दुःख को भूल जाती।
  • खिड़की से बाहर देखती हुई अनन्या की आँखों से अनजाने ही अश्रु बह रहे थे। बाहर की बगिया में एक बड़ा जलाशय है जिसमें कँवल के फूल खिले थे। आज भी उसमें दो सफ़ेद कँवल के फूल खिले थे। पूर्णिमा के चाँद की छवि जलाशय के पानी में लहरा रही थी या अनन्या के आँखों के पानी में चाँदनी की रोशनी लहरा रही थी समझ में नहीं आ रहा था। मगर उस जलाशय में लहराती चाँदनी को देख सफेद साड़ी में अपनी माँ के चेहरे को यादकर बहुत देर तक पलक झपकाना भूल गई।
  • अवन्तिका को पापा का रोकना उसके नाज़ुक दिल पर प्रहार किया। लगा जैसे बड़ी होती अवन्तिका धीरे-धीरे उससे दूर होती जा रही है। संजय का फैसला अनन्या और अवन्तिका के लिए बिल्कुल सही था लेकिन उससे अनन्या के दिल पर बहुत आघात हुआ। आखिर कब तक अनन्या अपनी जिंदगी अवन्तिका के लिए कुर्बान करती रहेगी? उसकी भी अपनी जिंदगी को सँवारना है, आगे बढ़ना है। एक दिन शादी कर अपने पति के संग घर बसाना है। तब अवन्तिका खुद को कैसे सँभालेगी? अगर दुर्योधन आज इस बात का एहसास न दिलाता तो शायद संजय इस बात को कभी समझ ही नहीं पाता। संजय अनन्या के कमरे में गया।
  • खिड़की पर खड़ी अनन्या को देख दरवाज़े पर आहिस्ता दस्तक दिया। अनन्या आँख पोछकर संजय की तरफ देख हँसने का प्रयत्न करी पर उसका चेहरा और आँखें उसकी दिल की चोट को छुपा नहीं सके। संजय अनन्या के काँधों पर हाथ रख आहिस्ता पलँग के पास ले आया और अपने पास बिठाया।
  • - अनन्या तुम ठीक तो हो ना बेटी?
  • - हाँ... " सिर को आगे पीछे हिलाते जवाब दिया।
  • - "पता है, तुम जब छोटी थी तुम्हारी माँ कहती थी मेरी बेटियाँ परियाँ हैं, भगवान हम पर बहुत मेहरवान हैं, इसलिए मेरी झोली में दो दो बेटियाँ डाल दी। माँ भगवान का स्वरूप है और बेटियाँ उस भगवान की दूत हैं। देखना मेरी बेटियाँ बड़ी होकर बहुत नाम कमाएँगी और साथ ही घर और बाहर की जिम्मेदारी बखूबी सँभालेंगी।"
  • अनन्या चुपचाप सुन रही थी। संजय कहने लगे, "बेटा, अवन्तिका अभी बड़ी हो गई है। उसे उसकी जिम्मेदारी का एहसास दिलाना जरुरी था। वह हर कदम पर तुम पर निर्भर हो रही है। उसे अपने पैरों पर खड़ी हो इसके लिए उसका खुद पर भरोसा और मनोबल बढ़ाना जरूरी है। इसलिए आज से आत्मनिर्भर बनाना होगा। मैं कुछ गलत नहीं किया है ना बेटी ?
  • - नहीं पापा। मैं जानती हूँ आप कभी गलत हो नहीं सकते। आपको मुझे ये बात बताने की जरूरत नहीं है।"
  • - और वह आत्मनिर्भर होकर अपने कार्य करने में सक्षम हो इसका ख्याल तुम्हें रखना है। अब तक तुम उसे उँगली पकड़ चलाया है। अभी उसे खुद सँभलने दो। चलना सीखने से पहले गिरना स्वाभाविक है। समाज और लोगों के साथ ताल मेल बनाए रखने के लिए उसे अकेले जिंदगी से सामना करना जरूरी है। उसे खुद से ये बात को समझना होगा। समझ रही हो न अनु? ये तुम दोनों के लिए जरुरी है। जैसे तुम हर तरह की मुश्किलों की सामना कर सकती हो वैसे उसे खुद ही लड़ने दो, खुद को समझने दो, और परिवेश के अनुसार ढलने दो। समझ रही हो ना मेरी बच्ची?"
  • - माँ के जाने के बाद अवन्तिका का जिम्मेदारी लेते ये भूल गई थी कि मैं उसकी माँ नहीं हूँ। आप चिंता मत कीजिए पापा। आगे मैं इसी बात का ख्याल रखूँगी कि वह खुद सब कुछ करे। आँखे नीचे कर फ़र्श की ओर देखते हुए कहा।

    - मेरी बच्ची।" अनन्या की माथे को चूमते हुए कहा।

  • - पर पापा मैं बच्ची नहीं हूँ।" अनन्या ने सिर हिलाते हुए मुस्कुराकर कहा।
  • - मेरी बेटी बहुत समझदार है। पापा की बात खूब समझती है।" संजय मुस्कुरा दिया।
  • अनन्या, - हाँ पापा।" कह कर आँख पोंछी।
  • - बेटा आज क्लिनिक पर दुर्योधन अंकल आये थे।"
  • - दुर्योधन अंकल? और क्लिनिक पर? क्यों? उनकी तबियत तो ठीक है न? बहुत बार कहती हूँ समय पर खाया कीजिए पर जब तक काम खत्म नहीं होता तब तक खाने पर ध्यान ही नहीं देते। जबरन खाने को बिठाना पड़ता है।"
  • - नहीं बेटा ऐसी कोई बात नहीं, वो बिलकुल स्वस्थ हैं। तुम्हारे बारे में बात करने आये थे।"
  • - मेरे बारे में?" प्रश्नार्थ नज़र से देखा।
  • - हाँ, तुम्हारे बारे में, वह तुम्हें किसी सेमीनार के लिए डेल्ही लेकर जाना चाहते हैं। मेरी इज़ाजत लेने क्लिनिक में आये थे।"
  • - लेकिन अंकल ने मुझे नहीं कुछ नहीं बताया।"
  • - शायद उन्हें लगा तुम मना कर दोगी इसलिए मेरे पास आये थे।"
  • - लेकिन पापा मैं नहीं जा सकती। मुझे नहीं जाना है।"
  • - मेरी सुनो तो तुम्हें जाना चाहिए। इतना अच्छा मौका हाथ से जाने देना ठीक नहीं। आखिर तुम्हारे भी कैरियर का सवाल है।" संजय समझाते हुए कहा।
  • - नहीं पापा आप मना कर दो मैं नहीं जा सकती।
  • - लेकिन क्यों? कोई तो कारण होगा, बिना कोई संकोच के बताओ? संजय ने जोर दे कर पूछा।
  • - पापा, बस मेरा मन नहीं है। मेरा भी कुछ काम हो सकता है न।"
  • - अगर तुम घर और अवन्तिका के लिए सोच रही हो तो दोनों मैं सँभाल लूंगा। तुम ख़ुशी-ख़ुशी जा कर आओ। ऊपर तुम्हारी माँ को और मुझे गर्व होगा कि हमारी बेटी ने कुछ ऐसा काम कर दिखाया जिसकी वजह से लोगों में सम्मान से खड़ी है। गर्व से सिर ऊँचा कर के कहा।

  • - पापा, मैं घर और ऑफिस सँभालूँ उतना मेरे लिए काफी है मुझे बहुत बड़ा बनने या नाम कमाने की कोई इच्छा नहीं। अनुनय करते हुए कहा।
  • - बस इतनी सी बात है? अगर यही बात है तो मैं कहूँगा तुम्हें जाना चाहिए।
  • - लेकिन पापा अवन्तिका अकेले घर कैसे सँभालेगी? वो अभी बच्ची है, आप को, घर को कौन सँभालेगा?"
  • - अनु! बस यही बात है न तो सुनो, अवन्तिका अभी छोटी नहीं है। वह बखूबी घर को सँभाल लेगी। जब जिम्मेदारी काँधों पर आती है तो इंसान खुद व खुद सब सीख जाता है। इसलिए कहता हूँ तू बेफिक्र जाकर आओ, अवि का मदद करने मैं हूँ और कुछ मत सोचो तुम जाने की तैयारी करो।"
  • - ठीक है पापा। नत मस्तक हो कर कहा।
  • - मेरी अच्छी बेटी।" कहकर संजय उसे गले लगाया। तब अवन्तिका दोनों को पीछे से पकड़ कर पापा के गले लग गई और कहा, "और मैं?"
  • संजय उसे भी दूसरे हाथ से पकड़कर कहा, "मेरी दोनों बच्चियाँ बहादुर हैं।"
  • अवन्तिका और अनन्या मुस्कुराते हुए एक साथ कहा - हम अभी बच्ची नहीं रहे पापा।
  • तीनों हँसने लगे।
  • - अच्छा ठीक है अब सो जाओ। बहुत रात हो गई।" कहकर संजय दरवाज़े को उड़काए अपने कमरे में चले गए।
  • अवन्तिका का पलँग को ठीक करके उसकी चादर को ठीक से ओढ़ कर अनन्या खुद की सोने की तैयार करने लगी। अवन्तिका चादर के पीछे से अनन्या को देखती रही। कुछ समय बाद वह कहने लगी, "दीदी मेरी वजह से आप इतना अच्छा मौका खोने को तैयार है। मेरे लिए आप कब तक अपनी जिंदगी में आगे बढ़ने से रोकोगी? डैड सच कह रहे थे की मुझे अब अपनी जिम्मेदारी सँभालनी होगी।"
  • - चल पगली, बहुत बड़ी-बड़ी बात कर रही है। चाहे तू जितनी भी बड़ी हो जा मुझसे छोटी ही रहेगी। चुप-चाप सो जा।"
  • - नहीं दीदी सच कह रही हूँ, आज तक आपने मुझे बहुत सँभाला है, अब मुझे आपके लिए, पापा के लिए कुछ करने दो। आप खुशी-खुशी दिल्ली जाकर आओ और देखना कि मैं यहाँ सब कुछ सम्भाल लूँगी। कोई शिकायत का मौका नहीं दूँगी।"
  • - अरे वाह! मेरी बहन तो बहुत बड़ी-बड़ी बातें करने लगी। लगता है सच में तुम बड़ी हो गई।"
  • - दीदी आप वादा करो कि इस बार आप दिल्ली जाओगी, मना नहीं करोगी।"
  • - ठीक है बाबा चली जाऊँगी।"
  • - नहीं ऐसे नहीं वादा करना पड़ेगा।" अवन्तिका जिद्द की। इस बार अनन्या को वादा करना ही पड़ा।