Lahrata Chand - 17 books and stories free download online pdf in Hindi

लहराता चाँद - 17

लहराता चाँद

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

17

दूसरे दिन की सुबह के सूरज के साथ किरणें भी टूटी हुई खिड़की की मध्य से कमरे के अंदर प्रवेश कर रही थी। पूरा कमरा धूल मिट्टी से भरा हुआ था। एक दिन बीत चुका था। उसे घर से निकले 48घंटे हो चुके थे। ऑफिस के लिए निकलकर वह फिर घर नहीं पहुँची। न जाने पिताजी और अवि के हालात क्या होंगे सोच ही नहीं पा रही थी। असहनीय धूल के कारण अनन्या की खाँसी रुक नहीं रही थी। रात भर उसकी आँखों में नींद नहीं थी। मच्छरों की तानाशाही और चूहों के इधर-उधर फुदकने की आवाज़ से बेहाल थी। रात की निःशब्दता में झिंगुरुओं की आवाज़ और उल्लू की कुड़कती आवाज़ से भयभीत हो कर एक कोने में सिमट कर बैठी हुई थी।

अपने पिता बहन दोस्तों को याद कर रात बिताने की कोशिश कर रही थी। कब क्या हो जाए अनिश्चितता के ढ़ेर पर समय काटने को मजबूर थी। कब तक वह खुद की इज्जत और प्राण की रक्षा कर सकती है उसे पता नहीं था। जब टूटी खिड़की की पोरों से रोशनी कमरे में आने लगी तो सुबह होने का आभास होने लगाता। फिर शाम होते ही कमरे में अंधेरा छा जाता था। कोई आता था सूखी रोटी दे जाता, जो गले से उतरती भी नहीं। पानी का रंग भी खून-सा नज़र आता था। कितने दिन हुए उसे कोई खबर नहीं। ना खाने की इच्छा थी ना जिन्दा रहने की आशा। भूखी प्यासी फर्श पर बँधी पड़ी है।

अचानक कुछ आवाज़ें सुनाई दी। दो नहीं चार-चार कदमों की आवाज़। दरवाज़ा खुलने के साथ साथ कुछ फुसफुसाने की आवाज़ कानों में पड़ी फिर सब चुप। कुछ देर बाद एक औरत के साथ महुआ ने अंदर कमरे में प्रवेश किया। उस औरत ने अनन्या की मुँह से पट्टी हटा कर कहा, "कैसी है रे तू? चल तेरा बुलावा आया है।" अनन्या के हाथ पकड़कर उसे बाहर ले आई।

"कहाँ ले जा रही हो मुझे? मुझे कहीं नहीं जाना है छोड़ो, छोड़ दो।" अनन्या अपने हाथों को उसके हाथ से छुड़ाने को कोशिश करती उतना ही मजबूती से उसका हाथ अनन्या के हाथों को जकड़ लेता। अनन्या गिड़गिड़ाते हुए कहने लगी "तुम भी स्त्री हो मुझे छोड़ दो प्लीज। तुम भी किसी की माँ होगी, तुम्हारी मेरी तरह बेटियाँ होंगी अपनी बेटी समझ कर मुझे छोड़ दो प्लीज, देखो मेरा क्या हाल हो गया है। मुझे छोड़ दो।"

- देखो लड़की मुझे जो कहा जाता है उसे मानने के अलावा मुझे कुछ नहीं पता। चुपचाप चलो।

- प्लीज छोड़ दो मुझे।

- तुझे छोड़ना होता तो यहाँ पकड़ कर क्यों ले आते?

- कुछ मत करो, मुझे कहाँ ले जा रही हो? मैंने आप लोगों का क्या बिगाड़ा है आखिर कौन हो आप लोगों ने मुझे क्यों बाँध कर रखा है?

"अभी तुझे किया ही क्या है री! अभी तो बहुत कुछ बाक़ी है। सारे प्रश्न का उत्तर भाई से सुनना।"

प्लीज छोड़ दो।" अनन्या गिड़गिड़ा रही थी। अनन्या उसके मजबूत हाथों से अपना हाथ छुड़ा नहीं सकी। उसने जींस पर फुल हैंड्स वाला शर्ट पहने रखा था। चेहरे पर कहीं भी स्त्री सुलभ करुणा, प्यार या ममत्व की छाया तक नहीं थी। उसके व्यवहार में संवेदना या स्त्री का कोई लक्षण नज़र नहीं आ रहा था। वह 45 से 50 साल उम्र की होगी। साँवले रंग के चेहरे पर कोई दया माया दिख नहीं रही थी। अनन्या पश्न पर प्रश्न कर रही थी और उस औरत के हाथ से खुद को छुड़ाने का नाकाम प्रयास कर रही थी।

"लड़की चुपचाप खड़ी रह ज्यादा बड़बड़ाने की जरुरत नहीं। समय आने पर तुझे पता चल जाएगा।"

"इतना तो बता दो मेरी गलती क्या थी? आप सब कौन हो?" अनन्या पूछती पर किसीने उसके प्रश्नों का जवाब नहीं दिया।

"देख लड़की तुझे हमारे मुखिया के पास ले जा रहे हैं। वहाँ जितना पूछा जाए उतना ही जवाब देना, वे लोग बड़ा खतरनाक हैं वरना गोली से वहीँ के वहीँ उड़ा देंगे। समझी।" अनन्या उससे खुदको छुड़ाने की नाकाम कोशिश करती रही। उस की आँखों पर काली रंग की पट्टी बाँध दी गई। एक तरह से घसीट कर उसे गाड़ी में ड़ाल दिया गया। गाड़ी करीब आधा घंटा ऊँचे-नीचे रास्तों से हो कर गुजरी, कुछ समय पक्के रास्ते पर चलने लगी, फिर कुछ दूर गड्ढों के रास्ते से जाने के बाद अचानक गाड़ी रुक गई। अनन्या को गाड़ी से उतार कर एक जगह ले कर छोड़ दिया। किसीने उसकी आँखों से पट्टी खोल दी।

अचानक आँखों पर सूरज की किरणें पड़ने से उसने अपनी आँखें बंद करली। जब धीरे आँखें खोल कर देखा, तो सामने लंबे घनेरे दरख़्तों के बीच एक फैला हुआ मैदान पाया। वह मैदान चारों और बड़े-बड़े पत्थरों और पेड़ों से भरा हुआ था। कँटीली लताएँ भी अपने अड्डे जमा चुकी थीं। बीच में लकड़ियों को इकट्ठा कर आग की धूनी थी जो बुझ कर राख हो गई थी। कहीं आस-पास से न किसी पंछी की फड़फड़ाने की आवाज़ ना ही उनकी उल्लसित करती ध्वनियाँ सुनाई दे रही थी। चारों ओर अजीब सन्नाटा।

उस मैदान में जगह-जगह बहुत सारे लोग फैले हुए बैठे थे। कोई पेड़ के पीछे तो कोई पेड़ के ऊपर, कुछ हाथ में गन लेकर उससे कुछ ही दूर पर खड़े थे। देखने में भयानक चेहरे दाढ़ी मूँछे बढ़ी हुई थीं। गंदे मैले कपड़े पहने हुए थे। विकृत और भयानक चेहरे, आँखों में उनकी लालसा। लग रहा था जैसे भूखा शेर शिकार को घूर रहा था और मौका मिलते ही सब उस पर झपक पड़ेंगे और नोचकर खा जाएँगे।

अनन्या इस तरह उन्हें देख डर से काँपने लगी थी। उसके माथे से पसीना छूटने लगा था। घने जंगल में पिस्तौल धारी व्यक्तियों के बीच अकेली निसहाय खड़ी हुई एक लड़की, न अब वह पत्रकार थी, न पापा की लाड़ली बेटी। बस एक बे-सहारा लड़की थी, जिस के हाथ पहले से बँधे हुए थे। वह समझ गई कि वह किसी अलगाव वादी के गुर्गे के हाथ लगी है। न जाने इन ख़तरनाक लोगों ने किस मकसद से उसे यहाँ ले आया है? जंगल काफ़ी घना था। लंबे-लंबे बृक्षों के साये में पलते इन लोगों के चहरे पर एक खतरनाक हँसी थी। जैसे कई सालों के बाद किसी लड़की को देखा हो। अनन्या को एक पेड़ के नीचे ले जाया गया और उसे पेड़ से सख्ती से बाँध दिया गया। उसके चारों तरफ खड़े हुए बदमाश ऐसे देख रहे थे जैसे कि उनके लिए ऐसी बात कोई नयी नहीं हो बल्कि वे खूब मज़ा ले रहे थे।

सामने एक पेड़ के नीचे बैठा एक आदमी उठ खड़ा हुआ। शायद उस गुर्ग का मुखिया है- "क्या नाम है तेरा?" अनन्या को उदेश्य करते पूछा।

"अ... अनन्या।"

- काम?"

"...." अनन्या चुप रही।

"सुनाई नहीं दे रहा? क्या करती है?"

- पत्रकारिता।"

"हम्म... यानी समाज सेवा करने का शौक है। बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।"

अनन्या चुप रही।

"आखिर क्यों तू उन लोगों से उलझी? अच्छा खा पी कर अपना काम करने में कष्ट हो रहा था? हाँ, समाज सुधारने का बीड़ा जो हाथ में ले रखा है। ये सब तुझ ही को करने की जरूरत क्या थी? बच्ची हो, अभी खेल कूद की उम्र है, ऐसे बड़े-बड़े लोगों से उलझोगे तो परिणाम बुरा ही होगा ना। पहले खुद को देखो, पैसा कमाओ, खाओ पीओ, मज़े करो? नहीं होता है न?" जोर से चिल्लाया उसने।

- अनन्या चुप्पी सी खड़ी थी। उसे समझ में आने लगा कि हाल ही में उसके द्वारा की गई शोध और हलचल मचा देने वाली खबर का परिणाम स्वरूप उसकी अपहरण तो नहीं हुआ।

- क्यों री अब भी कोई प्रश्न है?जान गई तुझे यहाँ क्यों लाया गया?

- मौन के सिवा अनन्या के पास कोई जवाब नहीं था।

- ऐ लड़की, जवान हो, प्यार करो नाचो गाओ और खुशियाँ मनाओ। क्या जरूरत थी बड़े लोगों से उलझने की? अब देखो, इस जंगल में तेरा मंगल हो जाएगा।" जोर जोर से हँसने लगा।

- अरे मुँह में कुछ है क्या जवाब दे। उन गली के कीड़े मकौड़े से तेरा क्या वास्ता। तू तो अच्छी खाती पीती खानदान की लड़की है। बेकार से साँप की बिल में हाथ डालोगी तो साँप डंक मरेगा ही, एक गोली बस एक गोली फट् कर निकलकर सीने में चुभ जाएगी बस फिर न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। जोर जोर से हँसने लगा।

- लड़की हो कच्ची उम्र है, चूड़ी पहनो शादी करों रंग रलियाँ मनाओ... पर नहीं समाज सुधारना है।"

"तो क्या आप किसीको भी कुछ भी करोगे और सब देखते रहेंगे? गरीबों की मेहनत की कमाई छीन कर उन्हें बदहाली में जीने के लिए मजबूर किसने किया है? इन्हीं नेताओं ने जिनकी वजह से उनका हाल बेहाल है। क्या ये गलत नहीं है?"

- सही गलत तुम सुधारोगी? इन नेताओं को तुम ठीक करोगी? इनकी फितरत तुम क्या जानों इनसे बच के रहो तो ही अच्छा है। और लोगों का क्या वे तो जड़ बन चुके हैं, वो क्या कहते हैं काठपुतली, जैसे नचाओ नाचेंगे। सब खेल पैसों का है, पैसों का। और पैसा निकलवाना हमें अच्छे से पता है।

- हाँ पता है, इन नेताओं को तुम लोगों का सहारा है और तुम लोगों के पीछ बड़े-बड़े नेताओं का हाथ है लेकिन इंसानियत भी कोई चीज़ है। लोगों के साथ कीड़े मकोड़े जैसा व्यवहार, गरीबों के मुँह से रोटी छीनना क्या पाप नहीं है? और पाप की सज़ा तो कभी न कभी हर इंसान को मिलेगी ही।" अनन्या के दिल का आक्रोश आँखों में दिख रहा था।

"चुप कर.....। कौन देगा सज़ा, तुम दोगी?" कुछ गालियाँ सुनाकर फिर बोला, "अब इसकी सुनो, ये हमें पाठ पढ़ाएगी। कल की छोकरी सँभल जा नहीं तो ये नेता टुकुड़े-टुकुड़े कर कुत्तों को खिला देंगे। समझ रही है ना तू। हम तो पैसा ले कर काम करते हैं लेकिन वे लोग इंसान की खाल में शैतान हैं। तुम्हारे बीच रहकर तुम्हें खा जाएँगे और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। दीमक जानती हो न दीमक ऐसे लोग हैं।" गन से भूमि पर प्रहार करते हुए कहा। अचानक उसका मोबाइल फ़ोन बजने लगा।

"उहुँ, फ़ोन को भी अभी बजना था।" कहते हुए फ़ोन उठा कर "हेल्लो" कहा। दूसरे तरफ की बातें ध्यान से सुनी और कहा, " हाँ भाई, अभी आ रहा हूँ, चिंता मत करो, मैं हूँ न।"

"जल्दी आजा छोटे, तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ।"

"हाँ भाई अभी आया।"

वह मुखिया-सा दिखने वाला आदमी महुआ को आवाज़ दे कर बुलाया, "अरे महुआ! कहाँ गया रे?"

महुआ उसके सामने हाथ बाँध कर खड़ा हुआ। "मेरे वापस लौटने तक इस पर नज़र रख रे महुआ। इस लड़की को ऐसे ही बँधे रहने दे। मरने का सोच सोच कर अकल ठिकाने पर आ जाएगी फिर भी अकल न आये तब देखते हैं, तब तक देख कर तो आऊँ क्या चल रहा है शहर में इसके बिना।" कह कर वह गाड़ी में बैठ कर चला गया।

उसके जाने की ओर देख महुआ रस्सी ले कर आगे आया। धीरे से अनन्या के कान में कहा, "अरे, क्यों इनकी चक्कर में पड़ती है, बहुत बदमाश लोग हैं, आँखें बंद करो तो नोच खा जाएँगे। जैसे कहे चुप चाप सुन लो, नहीं तो जान से हाथ धो बैठोगी।" धीरे से दबे होंठों से कहा। अनन्या घूर कर उसे देखा, ये वही लड़का था जो अनन्या को खाना खिलाता था।

उसने अनन्या को पेड़ से बाँध दिया।

"मुझे क्यों बाँध कर रखे हो छोड़ दो मुझे ...." अनन्या जोर-जोर से चिल्लाने लगी।

कुछ ही दूरी पर बैठे छगन अपनी बंदूक को काँधे पर रख उठ खड़ा हुआ। वह दूसरी ओर जाते हुए रुका आँखों के कनी से अनन्या की ओर देखकर उसके पास आ खड़ा हुआ। मिट्टी की परत चढ़ी अनन्या को नीचे से ऊपर तक घूरते हुए कहा, "ऐ छोकरी, एक बार कोई यहाँ आ गया न समझो हमारा हो गया। अब तू भी .. शेरों के बीच हिरन .. हा हा हा.. कभी बच पाया है? नोचकर खा जाएँगे जंगली भेड़िये हैं। चुप रहेगी तो बच सकती है।" कह कर पीछे मुड़ कर जा रहा था अनन्या ने कहा, " मुझे ऐसे क्यों बाँध रखा है, आपके मन में दया माया कुछ है कि नहीं, मुझे छोड़ दो।"

- दया ... हा हा हा .. दया ... यहाँ दया-माया कुछ नहीं होता। यहाँ सिर्फ गोली और मौत होती है। बोल तुझे क्या चाहिए?" गोली या मौत? हाहाहा .. भयानक सी हँसी हँसते हुए वहाँ से चला गया।

दिन के साथ धूप की तेजी भी बढ़ने लगी। अनन्या को पेड़ से बाँध दिया गया था। दुपहर की तेज़ धूप उस पर पड़ रही थी। उसकी आँखे मुँद रही थीं, गला सूखने लगा । "पानी पानी" कह कर वह तड़पने लगी। खूंखार आतंकी उसके चारों ओर होने के बावजूद उसे पानी तक नहीं दिया। उनसे यह आशा रखना भी बेकार था। तब एक औरत पानी लेकर आई। उसे औरत कहने से अच्छा, आतंकी कहा जाए क्योंकि आतंकी कोई एक व्यक्ति विशेष नहीं होता वह सिर्फ आतंकी होता है। न जात पात न रंग भेद न स्त्री पुरुष। अगर स्त्री में स्त्री की आत्मीयता, करुणा, शील, लज़्ज़ा, व सहानुभूति गुण ही न हो तो उसे स्त्री कहलाने का हक़ नहीं। ले पानी कहकर उँगलियों से उसकी दोनों गालों को जोर से दबाया। होंठ खुलते ही पानी से भर दिया। अनन्या के मुँह और नाक में पानी भर गया, उसकी साँस के साथ पानी अंदर जाते ही वह खाँसने लगी। साँस रुक जाने से तड़पने लगी। खाँसते खाँसते उल्टी करने लगी।

बिलकुल उसी वक्त दूसरे आदमी ने उस औरत के कांधे पर हाथ फेरते इशारा करके कहा, "इस छमिया को मैं देख लूँगा तू जा।" वह वहाँ से चली गई। अनन्या डरते हुए उस की और देखा। अनन्या के एक-एक पल एक घंटे बराबर कट रहे थे। वह हर एक पल में एक जिंदगी जी रही थी। उसके साथ कब क्या हो सकता है इस सोच से भी काँप रही थी। आज के बाद फिर सूरज उगते हुए देख भी पाएगी या नहीं उसे पता न था।

वह आदमी अनन्या के करीब आने लगा। दाढ़ी मूँछे भरा भयानक चेहरा उसके नज़दीक आ रहा था। वह चिल्लाना चाह रही थी लेकिन अपने साँस को रोक कर जोर से आँखें मूंदकर मुँह फेर लिया। धक्का देने के लिए उसके हाथ पैर पेड़ को बँधे हुए थे। अपनी जगह से एक इंच भी हिल न पाने की मजबूरी। उसकी चील जैसी नज़रें अनन्या को घूर रही थीं कहने से अच्छा पी रहे थे कहना ठीक होगा। घिन और मजबूरी से वह पेड़ से चिपक कर सकुचा गई।

उस आदमी की गरम साँस गले पर महसूस हो रही थी। एक अजीब गंध आ रही थी उसकी शरीर से। अनन्या ने साँस रोक ली थी, उसकी ओंठ अनन्या को छूने आगे बढ़ रहे थे, तभी दूर से गोली चली, गोली तीब्र वेग से जाकर उस आदमी के पीठ से होकर सीने को छल्ली कर दिया। एक पल में एक विशाल दरख़्त जैसे भूमी पर गिरकर धराशायी हो गया। उसके शरीर से खून के छींटे ने अनन्या के शरीर को भिगो दिया। अनन्या भय से काँपते हुए जोर-जोर से चिल्लाने लगी। उसकी चिल्लाहट से पेड़ के पत्ते हिलने लगे। उस जगह खून होना या गोली की आवाज़ कोई नयी बात नहीं थी। वहाँ के पशु पंखी इन घटनाओं के वाकिफ़ थे। लेकिन अनन्या की डर से चिल्लाती हुई आवाज़ से पंखियाँ फड़-फड़ाकर उड़ने लगे।

- तभी उनका मुखिया उस जगह पहुँचकर - महुआ, सदफ को कहो लाश को ठिकाने लगा दे।" उसने बड़े ही आराम से कहा जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

महुआ "जी भाई " कहकर किसी को इशारा किया।

वह गाली देते हुए कहा, "... कहा था उसे औरत के पास न जाओ वर्ना शरीर जल जाएगा। अब जल गया ना? औरत माँ, बहन होती है, इज्जत करो वर्ना मरो। कीड़े मकोड़े की जिंदगी किस काम की, जीना है तो शेर बन कर जियो। कहा था..इसे भी.. अब मर गया ...(गाली)..। "

अनन्या अब भी जोर-जोर से रोँ रही थी। अनन्या को समझाते हुए उसने कहा, "देखो लड़की ये सब किस लिए? तुझे क्या जरूरत है बड़ों से उलझने की। वह लोग बड़े आदमी हैं, हरामी हैं, क्यों उलझती है? मेरी बात सुन ये नेताओं के मामले में मत पड़। हम कुछ नहीं करेंगे, पूरी इज्जत से छोड़ देंगे लेकिन अगर कोई ऐसी वैसी हरकत या भागने की कोशिश की तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा। महुआ इसे बंद कर दे जब तक बात न माने तब तक यहीं रहेगी लेकिन पूरी इज्जत से ... कोई भी चूक बरदाश्त नहीं होगी। हम जो भी करते हैं ईमानदारी से करते हैं। शर्त है इसे इज्जत से रखा जाए, इसके लिए पैसे मिले हैं वरना इससे हमें क्या?"

कुछ देर बाद उसे उसी झोंपड़ी में छोड़कर बाहर से ताला लगा दिया गया। अनन्या अकेले बैठकर रोने लगी, "पापा मुझे बचाओ, ये लोग मुझे मार डालेंगे। पापा.." रोते-रोते जब गला सूखने लगा चुप हो गई।

अनन्या के हालात बहुत खराब हो गए थे। शरीर पर खून के धब्बे, और आँखों के सामने भयानक मौत के खेल ने उसके दिमाग पर बहुत असर किया था। वह फर्श पर बैठे-बैठे ही सो गई। थकान से नींद ने उसे घेर लिया। दिन और रात में कुछ फर्क नहीं था। कोई आता है प्लेट में कुछ सूखे चावल या रोटी देता है, अनन्या को उसे देखते ही उल्टियाँ आने लगती। रात के अँधेरे में न कोई दीया न कोई रौशनी अँधेरे में चूहों और मच्छरों का राज़। भागने के लिए कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। महुआ को मिन्नतें करती, "मुझे छोड़ दो, मेरे पापा तुम्हें अच्छी नौकरी देंगे, इन जंगलियों के बीच रहने से अच्छा एक इंसान बन कर गाँव में एक इज्जत भरी जिंदगी जियो। तुम्हें पैसे चाहिए तो पैसे ले लो पर मुझे छोड़ दो। प्लीज।"

महुआ सिर्फ सुनता पर कुछ नहीं कहता, क्यों कि वह अच्छी तरह जानता था कि इन लोगों से धोखा यानी जिंदगी से हाथ धोना, यानी मौत। उसे अनन्या पर दया आ रही थी पर मदद करने के लिए उस में हिम्मत नहीं थी।

"नहीं हो सकता ये लोग मुझे मार डालेंगे। तुम्हारी आँखों के सामने जो हुआ तुमने देखा है ये लोग बहुत खतरनाक हैं। इनकी पहुँच बहुत बड़े-बड़े लोगों तक है। छोटी सी भूल, जान से हाथ धो बैठूँगा।"

"महुआ प्लीज, मेरी मदद करो। मुझे जाने दो नहीं तो मेरे घर या पुलिस तक मेरी खबर पहुँचा दो। वह तुम्हें कुछ होने नहीं देंगे। तुम्हें कुछ नहीं होगा, मैं वादा करती हूँ, तुम्हारा हर गुनाह माफ़ करवा दूँगी। मेरा मदद करो ।"

"मैं नहीं छोड़ सकता, लेकिन पुलिस तक खबर पहुँचा सकता हूँ। अगर उन्हें पता चल जाएगा तो मुझे मार डालेंगे।"

"महुआ कुछ भी करो, मुझे किसी न किसी तरह यहाँ से निकाल दो, तुम्हारा एहसान मैं कभी नहीं भूलूँगी।"

" देखता हूँ।" कहकर प्लेट लेकर वहाँ से चला गया।