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संगम--भाग (८)

अब आलोक दुकान और घर ठीक से सम्भाल रहा था, कभी-कभी गांव भी चला जाता, खेती-बाड़ी देखने, मास्टर जी को ये देखकर बहुत संतोष होता कि चलो अब बेटा अपनी जिम्मेदारी समझने लगा है,इन पांच साल में वो दो बच्चों का पिता भी बन गया था,अब मास्टर जी का घर-गृहस्थी में मन भी नहीं लगता था, प्रतिमा की वजह से उनका मन अब अशांत रहने लगा था,वो प्रतिमा को अपने पास भी नहीं बुला सकते थे क्योंकि प्रतिमा की उस घर को भी बहुत जरूरत थी।
फिर एक दिन मास्टर जी, सियादुलारी से बोले___
अब यहां मन नहीं लगता, भाग्यवान! मन बहुत ही अशांत रहने लगा है,प्रतिमा के बारे में सोच- सोचकर तो मन ऐसा घबराता है कि मन की शांति के लिए कहां चला जाऊं, उससे मिले बिना भी चैन नहीं मिलता और मिलने के बाद तो जो मनोदशा होती है,वो मैं बता नहीं सकता, जबसे उसके घर से आया हूं, कहीं भी मन नहीं लग रहा,उसका उदास चेहरा,बुझी बुझी सी आंखें, बिना सिंदूर और बिंदी का माथा देखकर ऐसा लगता है कि क्या करूं? जिससे मेरी बेटी के सारे दुःख दूर हो जाए।
सही कहते हो जी! मुझे मे हिम्मत नहीं रह गई है उसे सान्त्वना देने की, बहुत बड़ा दर्द लेकर जी रही है, हमारी प्रतिमा, सियादुलारी बोली।
हां, भाग्यवान, इसलिए सोचा है कि कुछ दिन के लिए प्रयाग हो आऊ,मन लग गया तो वहीं रह जाऊंगा,अब यहां की सारी जिम्मेदारी आलोक ने सम्भाल ही ली है,अब मैं भी अपने बूढ़े शरीर और दीमाग को आराम देना चाहता हूं, वहीं गंगा मैया में डुबकी लगाकर ही मन को शांति मिलेगी।
सियादुलारी बोली,तुम अकेले ही क्यो जाओगे जी, मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी, जहां तुम रहोगे, वहीं मैं भी रहूंगी।
मास्टर जी और सियादुलारी निकल पड़े, प्रयाग की ओर____
वहां एक मंदिर के पास किराये का कमरा लेकर रहने लगे___
कुछ दिन रहने के बाद उनका वहीं मन लग गया, मास्टर जी मंदिर में गरीब बच्चों को बुलाकर पढ़ा देते और सियादुलारी भी मंदिर के भोज-भण्डार में हाथ बंटा देती।
अब मास्टर जी का ध्यान मंदिर और बच्चों को पढ़ाने में लगा रहता तो चिन्ताये कम घेरती।
मास्टर जी ने सोचा कि प्रतिमा को यहां बुला लेता हूं कुछ दिन यहां रहेगी तो दुख भरे माहौल से दूर रहने से शायद उसके चित्त को शांति मिले, मास्टर जी पता-ठिकाना लिखकर प्रतिमा को चिट्ठी भेज दी लेकिन प्रतिमा ने आने से मना कर दिया कि बहुत सी जिम्मेदारी है उस पर ,वह नहीं आ सकती।
एक दिन सुबह-सुबह गुन्जा दरवाजे पर झाड़ू लगा रही थी तभी श्रीधर पहुंचा___
श्रीधर ने गुन्जा से पूछा, ये सीताराम पाण्डेय जी का घर है!!
गुन्जा ने कहा, हां, जी आप कौन? किससे मिलना है?
श्रीधर बोला, मैं निरंजन का मित्र, निरंजन के बारे में कुछ बताना है, जी अंदर चलिए,जो कुछ कहना है,आप पिता जी से कहिए,गुन्जा बोली।
गुंजा,श्रीधर को अंदर लेकर आई और बोली बाबूजी आपसे कोई मिलने आए हैं__
नेत्रहीन सीताराम जी बोले, जी कौन?
श्रीधर बोला, जी मैं निरंजन......
इसके आगे बोलने वाला था कि मैं निरंजन का मित्र... वैसे ही सीताराम जी श्रीधर को गले लगा कर रोने लगे,तू वापस आ गया निरंजन!! कहां चला गया था? हम सबको छोड़कर,अजी! सुनती हो! देखो तुम्हारा निरंजन वापस आ गया, पार्वती रोते हुए भागकर आई,अंधे मां-बाप को रोता हुआ देखकर,श्रीधर उलझन में पड़ गया, सालों से बिछड़े हुए मां बाप को अपना बुढ़ापे का सहारा जो मिल गया था,अब वो उसे बस गले से लगा कर जीभर कर रोना चाहते थे और मां बाप के आंसू देखकर श्रीधर को कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी,जब मां बाप का रोते रोते जी भर गया तो बोले,गुन्जा , ये तेरा बिछड़ा भाई, तूने पहचाना नहीं,जा अपनी भाभी से मिलवा दे।
श्रीधर ने गुन्जा से इशारे में कहा कि, मैं निरंजन नहीं हूं!!
तब गुन्जा ने भी इशारे में कहा कि अभी चुप रहो!!
श्रीधर को प्रतिमा के कमरे में ले जाते हुए__
गुन्जा ने पूछा, आप निरंजन भइया के मित्र हैं,क्या कहने वाले थे, निरंजन भइया के बारे में,
श्रीधर बोला, जी निरंजन मेरे मित्र थे।
गुन्जा बोली, मित्र थे,क्या मतलब?
अब वो इस दुनिया में नहीं रहे, बहुत ज्यादा नशा करने से उनके सीने में दर्द रहने लगा था और उनके फेफड़े खराब होने लगे थे फिर भी उन्होंने नशा करना बंद नहीं किया फिर उन्हें खून की उल्टियां होने लगी, जांच करवाने पर पता चला कि उन्हें तपैदिक हो गया है, उनकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ फिर एक दिन उनकी तबियत ज्यादा ही ख़राब हो गई और वे हम सब को छोड़कर चले गए, उन्होंने मुझसे वचन लिया था कि ये सूचना मैं आप लोगों से मिलकर आप लोगों तक पहुंचा दूं, इसलिए मैं यहां आया, लेकिन आपके मां बाबूजी ने मुझे ही निरंजन समझ लिया और आपने भी उन्हें कुछ नहीं बताने दिया।
हे! भगवान इतना बड़ा कष्ट लिखा था, मेरे मां बाप के भाग्य में,सालों से खोए बेटे की आश में मां ने रोते रोते अपनी आंखों की रोशनी गंवा दी और बूढ़े मां-बाप का बुढ़ापे का एकमात्र सहारा बड़े भइया ही रह गये थे,वो भी फ़ौज में शहीद हो गए, दिन-रात रोने से बाबूजी की भी आंखें जाती रही,जवान विधवा भाभी को देखकर कलेजा मुंह को आता है, कितना बड़ा कष्ट लेकर जी रही है बेचारी, बिना के श्रृंगार उनका सूना चेहरा देखकर दिल पर क्या गुजरती है, ये मैं ही जानती हूं और गुन्जा फूट-फूटकर रोने लगी,श्रीधर उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था, बड़ी मुश्किल से गुन्जा ने अपने आंसू रोके ताकि मां बाबूजी को ये ना पता चल जाए कि निरंजन भइया अब नहीं रहे।
वो श्रीधर को लेकर प्रतिमा के कमरे में गई__
श्रीधर से बोली,आप अभी बाहर ठहरे,मै भाभी से बताती हूं कि आप आए हैं,
श्रीधर बोला, जी ठीक है...
गुन्जा ने कमरे में जाकर प्रतिमा से सारी बात बताई कि कोई निरंजन भइया के मित्र आए हैं और उन्हें मां बाबूजी ने निरंजन भइया समझ लिया है और वे कह रहे हैं कि निरंजन भइया अब नहीं रहे___
ऐसे कैसे किसी अंजान पर तुमने भरोसा कर लिया और अंदर भी बुला लिया,प्रतिमा बोली।
माफ करो भाभी, लेकिन आप खुद ही उससे सबकुछ पूछ लेती तो अच्छा होता,गुन्जा बोली।
हां, ठीक है कहां है वो, प्रतिमा बोली।
बाहर ही खड़े हैं, बुलाऊं,गुन्जा ने कहा।
हां,बुलाओ,मैं बात करती हूं, प्रतिमा बोली।
और गुन्जा ने आवाज दी, सुनिए अंदर आ जाइए___
जैसे ही श्रीधर,प्रतिमा के सामने आया दोनों एक-दूसरे को देखकर आश्चर्यचकित हो गये.......

क्रमशः___
सरोज वर्मा___🥀


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