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मानस के राम (रामकथा) - 37





मानस के राम
भाग 37



राम की छावनी में युद्ध की रणनीति पर चर्चा

वानर सेना की छावनी में भी सभा बैठी थी। इस सभा में राम और लक्ष्मण के अलावा वानर राज सुग्रीव, जांबवंत, हनुमान और अंगद उपस्थित थे। विभीषण के विश्वासपात्र मंत्रियों ने लंका में चल रही गतिविधियों के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियां लाकर दी थीं।
विभीषण ने कहा,
"मेरे विश्वासपात्र मंत्री पनस, अनल, संपाती और प्रवृति लंका से लौटकर आए हैं। उन्होंने बताया है कि रावण ने एक सभा बुलाकर युद्ध के लिए रणनीति बनाई है।"
राम ने पूँछा,
"आप तो लंका की सैन्य शक्ति के विषय में भलीभांति जानते होंगे। रावण के सैन्य बल के बारे में बताइए।"
विभीषण ने कहा,
"रावण का सैन्य बल बहुत अधिक है। उसमें एक से बढ़कर एक महाबली योद्धा हैं। सब मायावी शक्तियों के स्वामी हैं। उसका सैन्य बल इंद्र और कुबेर से भी अधिक है।"
विभीषण ने राम को वह सारी बातें बताईं जो उनके विश्वासपात्र मंत्रियों ने आकर बताई थीं। सब सुनकर राम कुछ देर विचार करने के पश्चात बोले,
"रावण ने जो रणनीति बनाई है उसके अनुसार तो ऐसा लगता है वह चाहता है कि आक्रमण पहले हमारी तरफ से हो। आप बताइए कि जो व्यूह रचना रावण ने की है उसके पीछे उसकी सोच क्या है ?"
विभीषण ने कहा,
"मेरे अनुसार तो रावण की इस व्यूह रचना के पीछे उसकी सोच यह है कि आप जब अपनी सेना के साथ किसी एक द्वार को तोड़कर लंका में प्रवेश का प्रयास करेंगे तो बाकी के तीन द्वार खोलकर उसकी सेना आपको पीछे से घेरकर आक्रमण करेगी।"
लक्ष्मण ने कहा,
"हम ऐसा भी तो कर सकते हैं कि अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर किसी एक द्वार पर आक्रमण करें। उस द्वार को तोड़कर लंका नगरी में प्रवेश कर जाएं। फिर तो हम लंका पर अपना अधिकार कर सकते हैं।"
विभीषण ने कहा,
"यदि हम ऐसा करने में सफल भी हो गए तो भी नगर के मध्य रावण का एक और योद्धा विरुपाक्ष अपनी सेना के साथ मौजूद होगा। फिर अन्य द्वारों से भी सेना आकर हमें घेर लेंगी।"
राम ने कहा,
"आपने रावण की व्यूह रचना का सही विश्लेषण किया है। हमें भी अपनी सारी शक्ति एक स्थान पर केंद्रित नहीं करनी चाहिए। अब हमें भी अपनी व्यूह रचना का निर्माण करना चाहिए।"
सुग्रीव ने कहा,
"आप सही कह रहे हैं। यदि शत्रुदल अपनी तैयारियां कर रहा है तो हमें भी देर नहीं करनी चाहिए।"
राम ने कहा,
"हमें भी अपनी सेना को इस प्रकार तैनात करना चाहिए कि हम हर तरफ से उन्हें घेर सकें। जिससे हर तरफ से अपनी सुरक्षा करते हुए उन पर आक्रमण कर सकें।"
राम ने नील से कहा,
"तुम अपने दल के साथ पूर्व दिशा में प्रहस्त की सेना का सामना करने के लिए तैयार रहोगे।"
उसके बाद उन्होंने युवराज अंगद से कहा,
"आप दक्षिणी द्वार पर तैनात रावण के योद्धाओं महापार्श्व और महोदर का अपने दल के साथ सामना करेंगे।"
अंगद ने राम को प्रणाम करके कहा,
"मैं अपने दायित्व का पूरी निष्ठा के साथ पालन करूँगा।"
राम ने हनुमान को संबोधित करते हुए कहा,
"हे महाबली हनुमान तुम लंकापति रावण के पुत्र इंद्रजीत का सामना करने के लिए पश्चिमी द्वार पर अपने दल के साथ कमान संभालो।"
हनुमान ने हाथ जोड़कर कहा,
"हे प्रभु आपने इस सेवक की सामर्थ्य पर भरोसा कर इंद्रजीत जैसे योद्धा का सामना करने के योग्य समझा। मैं अपने कर्तव्य पालन में किसी प्रकार की चूक नहीं होने दूँगा।"
राम ने कहा,
"उत्तर दिशा में जो द्वार है उसका दायित्व मैं और लक्ष्मण संभालेंगे। उस दुष्ट लंकापति रावण को उसके किए का दंड मुझे ही देना है।"
सबने उनकी बात का अनुमोदन किया। उसके बाद राम ने कहा,
"महाराज सुग्रीव, जांबवंत तथा विभीषण आप तीनों बाकी सेना के साथ मध्य भाग में रहेंगे।"
तीनों ने प्रणाम कर राम के आदेश को स्वीकार किया। राम ने आगे कहा,
"युद्ध के समय कुल सेना का एक चौथाई भाग सदैव अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित रहकर छावनी में रहेगा। यह दल आवश्यकता पड़ने पर घायल तथा क्लांत सैनिकों की जगह लेगा। राक्षस अपनी माया से कई प्रकार के रूप रखकर हमें भ्रमित करने का कार्य करेंगे। वानर और रीछ भी अपना रूप बदलना जानते हैं। अतः नियम के तौर सभी वानर और रीछ युद्धकाल में अपना रूप परिवर्तित नहीं करेंगे। मैं लक्ष्मण विभीषण और उनके मंत्री सभी मानव रूप में ही रहेंगे। इस प्रकार किसी भी तरह के भ्रम की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी। क्योंकी अभिमान वश मानव तथा वानरों को अपने से निम्न समझने वाले राक्षस कभी भी मनुष्य या वानर का रूप धारण नहीं करेंगे।"
इस प्रकार वानर सेना की रणनीति का भी निश्चय हो गया। राम ने लक्ष्मण, सुग्रीव और हनुमान से कहा कि वह सभी वानर शिविरों में जाकर जो व्यूह रचना व रणनीति बनाई गई है उसके बारे में बताएं।
सब जानकर सेना का उत्साह देखते ही बनता था। सभी बस यही चाहते थे कि युद्ध का आरंभ हो। राम रावण का वध कर सीता माता को मुक्त कराएं।


सुग्रीव का रावण के साथ द्वंद

प्रातः काल राम लक्ष्मण, सुग्रीव तथा विभीषण के साथ सुबेल पर्वत पर चढ़कर त्रिकूट पर्वत पर स्थित लंका का अवलोकन करने गए। विभीषण उन्हें लंका के विस्तार, उसके सुदृढ़ परकोटे एवं हर दिशा के द्वार के बारे में बता रहे थे। लंका की विशालता को देखकर राम भी मोहित हो गए थे। उन्होंने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा,
"यह लंका नगरी कितनी भव्य और मनोरम है। विश्वकर्मा द्वारा रचित यह नगरी तो इंद्र की अलकापुरी को भी मात आज दे रही है। रावण ने अपने पुरुषार्थ से यह वैभव और ऐश्वर्य प्राप्त किया है। किंतु अब अपने दुष्कर्म की वजह से उसे इस समस्त वैभव से वंचित होना पड़ेगा।"
सभी लंका नगरी की तरह देख रहे थे। उसी समय रावण अपने महल की छत पर आया। विभीषण ने कहा,
"यही इस लंका नगरी का स्वामी रावण है।"
राम तथा लक्ष्मण रावण को देखने लगे। अचानक सुग्रीव ने ज़ोर से गर्जना की। उन्होंने एक छलांग लगाई और देखते ही देखते रावण के महल की छत पर चले गए। रावण को ललकार कर बोले,
"दुष्ट रावण मैं राम का मित्र एवं हितैषी सुग्रीव हूँ। आज तू मेरे हाथों से नहीं बचेगा। आज इस धरती पर तेरा यह अंतिम दिन है।"
यह कहकर सुग्रीव रावण पर टूट पड़े। रावण और सुग्रीव का मल्ल युद्ध होने लगा। दोनों ही बल में एक दूसरे को टक्कर दे रहे थे। कभी रावण सुग्रीव पर भारी पड़ता तो कभी सुग्रीव उसे पटकनी देकर उसकी छाती पर सवार हो जाते थे। उन दोनों के बीच बहुत देर तक मल्ल युद्ध होता रहा।
रावण शक्ति में सुग्रीव से कम नहीं था। फिर भी उसने अपनी आसुरी शक्तियों का प्रयोग कर माया रचनी आरंभ कर दी। सुग्रीव उसकी चाल को समझ गए। उन्होंने फिर से एक छलांग लगाई और वापस लौट आए।
सुग्रीव के अचानक रावण पर हमला कर देने से सभी चिंतित हो उठे थे। जब वह लौटकर आए तो राम ने समझाते हुए कहा,
"मित्र सुग्रीव आपके सकुशल लौट आने से हम सबको तसल्ली मिली। परंतु आपने यह क्या किया। इस प्रकार बिना सोचे समझे आपने अचानक रावण पर आक्रमण कर दिया।"
रावण को सामने देखकर सुग्रीव के मन में क्रोध की एक लहर सी उठी थी। वह अपने आप पर संयम नहीं रख पाए थे। परंतु बाद में उन्हें भी इस तरह भावना में बह जाने पर पश्चाताप हो रहा था। उनकी मनोदशा को समझ कर राम ने कहा,
"मैं आपके मन की भावनाओं को समझ रहा हूँ। परंतु आप हमारे राजा हैं। आपके आधीन ही हमारी सेना युद्ध के लिए आई है। आज यदि आप पराजित हो जाते तो हम सबकी भी पराजय हो जाती।"
राम की बात सुनकर सुग्रीव लज्जित हुए। उन्होंने क्षमा मांगते हुए कहा,
"मैं अपने किए पर बहुत लज्जित हूँ। उस समय मैं अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख सका।"
राम ने कहा,
"अब हमें सबकुछ भूलकर अपना समस्त ध्यान युद्ध पर केंद्रित करना होगा।"
उसके पश्चात सब लोग छावनी में लौट आए।


राम द्वारा शांति के लिए अंतिम प्रयास

जैसा तय हुआ था वानर सेना उसके अनुसार अपने अपने मोर्चे पर डट गईं। सुग्रीव ने राम के पास आकर कहा,
"जैसा आपने आदेश दिया था उसके अनुसार हमारी सेना अपने अपने तय स्थान पर जाकर तैनात हो गई है। अब बस आपके आदेश की प्रतीक्षा है। आप आदेश दीजिए कि किस द्वार पर तैनात सेना की टुकड़ी प्रथम आक्रमण करे।"
राम कुछ देर विचार करने के बाद गंभीर स्वर में बोले,
"महाराज सुग्रीव मेरे मन में एक विचार आया है। मैं चाहता हूँ कि रावण को समझाने का एक अंतिम प्रयास करके देखा जाए। यदि वह शांतिपूर्वक सीता को हमें वापस कर दे तो युद्ध करने की क्या आवश्यकता है।"
लक्ष्मण को यह प्रस्ताव बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा,
"आप उस पापी दुष्ट रावण को क्षमा करने के बारे में विचार कर रहे हैं। वह भी तब जब हमारी सेना आपके आदेश की प्रतीक्षा में उत्सुक खड़ी है। सब युद्ध करने के लिए उतावले हैं। यह समय तो उस रावण को उसके किए का दंड देने का है।"
लक्ष्मण को इस प्रकार उत्तेजित होते देखकर राम ने कहा,
"अनुज शास्त्रों के अनुसार क्षमा वीर पुरुषों का आभूषण है। इसलिए हमें भी अंतिम प्रयास अवश्य करना चाहिए।"
लक्ष्मण ने उसी प्रकार उत्तेजित होकर कहा,
"जिस दुष्ट ने माता सीता का हरण किया, पितृतुल्य जटायू की हत्या की। मेरा मन उसे क्षमा करने को तैयार नहीं है।"
राम ने अपने अनुज लक्ष्मण को समझाया,
"राजनीति की शिक्षा देते समय गुरु बृहस्पति ने कहा है कि यदि परिस्थिति इस प्रकार हो जहाँ किसी एक व्यक्ति को उसके पापों का दंड देते हुए कई और निर्दोष लोगों को हानि हो तो वीर पुरुष को अपना निजी क्रोध भूलकर उस पापी क्षमा कर देना चाहिए। रावण को दंड देने के लिए हमें उसकी निर्दोष सेना से युद्ध करना होगा। इससे उसकी निर्दोष प्रजा को कष्ट होगा। इसलिए आवश्यक है कि हमें एक प्रयास करके देखना चाहिए।"
राम की बात सुनकर लक्ष्मण शांत हो गए। जांबवंत ने कहा,
"आपकी बात राजनीति धर्मनीति दोनों के अनुसार अनुकूल है। हमें पहले किसी दूत को भेजकर शांति की पहल करनी चाहिए।"
राम ने कहा,
"अब हमको अपनी सेना में से किसी ऐसे व्यक्ति को दूत बनाकर भेजना होगा जो शक्तिशाली होने के साथ साथ बुद्धिमान भी हो। जो निर्भीकता से शत्रु के खेमे में जाकर हमारा संदेश दे सके। यदि कोई विपरीत परिस्थिति उत्पन्न हो तो अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करके उस स्थिति से बाहर निकाल सके।"
लक्ष्मण ने कहा,
"फिर तो विचार करने की आवश्यकता ही नहीं है। पवनपुत्र हनुमान इन दोनों ही बातों में खरे उतरते हैं। वह एक बार दूत बनकर लंका जा चुके हैं।"
राम ने कहा,
"नहीं लक्ष्मण यदि हम दोबारा हनुमान को दूत बनाकर भेजेंगे तो रावण को यह संदेश जाएगा कि हमारी सेना में बल और बुद्धि से युक्त केवल एक ही व्यक्ति है। इस बार हमें किसी और को भेजना चाहिए।"
सुग्रीव ने हाथ जोड़कर कहा,
"मेरे सुझाव है कि इस कार्य के लिए युवराज अंगद को भेजा जाना चाहिए।"
राम ने कहा,
"आपका सुझाव अति उत्तम है। युवराज अंगद इस काम के लिए सबसे उपयुक्त हैं।"
उन्होंने अंगद से कहा,
"युवराज अंगद क्या आप मेरा संदेश लेकर रावण के पास जाएंगे ?"
अंगद ने हाथ जोड़कर कहा,
"हे प्रभु इतने गुणीजनों के मध्य यदि आपने मुझे इस काम के योग्य समझा है तो मेरे लिए यह परम सौभाग्य की बात होगी।"
अंगद राम का शांति प्रस्ताव ले जाने के लिए प्रस्तुत था।