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मानस के राम (रामकथा) - 38





मानस के राम

भाग 38



अंगद का दूत बनकर जाना

अंगद राम का संदेश लेकर रावण के दरबार में जाने को तैयार था। राम ने समझाया,
"अंगद तुम्हारे ऊपर एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य के निर्वहन का दायित्व है। तुमको मेरा संदेश लेकर रावण के पास जाना है। संदेशवाहक दूत का काम बहुत दायित्व का होता है। तुमको ना केवल हमारा संदेश देना है बल्कि इस प्रकार देना है कि अपनी बात रखते हुए भी तुम लंका के राजा के सम्मान का पूरा खयाल रखो।"
अंगद ने कहा,
"आपने जैसे कहा है मैं उसी प्रकार लंकेश को आपका संदेश दूँगा।"
राम ने कहा,
"तुम शांति का प्रस्ताव लेकर लंका जा रहे हो। लंकापति रावण से कहना कि मैं रक्तपात नहीं चाहता हूँ। अतः वह सीता को सम्मान सहित हमारे पास भेजकर युद्ध को टाल दे।"
अंगद ने सर झुकाकर संदेश को ग्रहण किया। राम ने कहा,
"दूत होने के नाते तुम्हें एक और काम भी करना होगा। वानर सेना के सामर्थ्य का इस प्रकार बखान करना कि उनके दिल में एक भय उत्पन्न हो।"
अंगद ने कहा,
"मैं आपका संदेश और हमारी सेना के बलाबल को भलीभांति उन तक पहुँचा दूँगा।"
अंगद ने राम समेत वहाँ उपस्थित सभी को प्रणाम किया और लंका के द्वार की तरफ चल दिया।

लंका के द्वार की रक्षा के लिए परकोटे पर खड़े रक्षक ने आगे बढ़ते हुए अंगद से कहा,
"वहीं रुको...किस प्रयोजन से लंका के द्वार पर आए हो ?"
अंगद ने कहा,
"मैं श्री राम का संदेश लेकर आया हूँ। मुझे लंकापति रावण से मिलकर उन्हें श्री राम का संदेश देना है।"
रक्षक ने कहा कि वह प्रतीक्षा करे। वह पहले सेनापति से बात करता हूँ। रक्षक ने सेनापति के पास संदेश भिजवाया कि वानर सेना से कोई दूत संदेश लेकर आया है। वह महाराज रावण से मिलना चाहता है। संदेश पाकर सेनापति द्वार तक आया। उसने कहा कि पहले उस दूत से कहो कि द्वार के पास उनकी जो सेना है उसे कुछ दूर पीछे भेज दे। रक्षक ने अंगद से अपनी सेना को थोड़ा पीछे हटाने को कहा। अंगद ने वैसा ही किया। कुछ देर में लंका का द्वार खुला और अंगद ने राम के दूत के रूप में लंका में प्रवेश किया। सेनापति ने उससे अपना शस्त्र छोड़ देने को कहा। अंगद ने अपनी गदा हवा में उछाल कर फेंक दी। वह उसके सैनिकों के पास जाकर गिरी। जांबवंत अंगद की गदा देखकर समझ गए कि उसने दूत के रूप में लंका में प्रवेश कर लिया है।
सेनापति अंगद को लेकर रावण के दरबार की तरफ चल दिया।

रावण को सूचना मिली कि राम का संदेश लेकर कोई वानर आया है। रावण ने उसे दरबार में पेश करने के लिए कहा। सैनिक अंगद को लेकर दरबार में आए। जब अंगद ने दरबार में प्रवेश किया तो उसकी चाल इस प्रकार थी जैसे कोई सिंह वन में टहल रहा हो। वह उसी प्रकार निर्भीक था जैसे कोई सिंह जंगल में होता है।
रावण ने कहा,
"कहो वानर तुम्हारा नाम क्या है ? तुम क्या संदेश लेकर हमारे पास आए हो ?"
अंगद ने निडरता से कहा,
"महाराज रावण जब कोई राजदूत किसी सभ्य देश के राजा के दरबार में आता है तो उस राजा का कर्तव्य है कि वह पहले उसे उचित आसन देकर उसका सम्मान करे। उसके बाद उसके आने का प्रयोजन पूँछे।"
अंगद की बात सुनकर रावण जोर से हंसा। अभिमानपूर्वक बोला,
"राजदूत उसे कहते हैं जो किसी राजा द्वारा भेजा जाता है। तुम तो वन वन भटकते उस वनवासी राम का संदेश लेकर आए हो। अतः वह नियम तुम पर लागू नहीं होता है।"
रावण का अभिमान पूर्ण व्यवहार अंगद को उचित नहीं लगा। परंतु उसने पूरी नम्रता से कहा,
"महाराज रावण जिन्हें आप वन वन भटकने वाला कह रहे हैं वह तो तीनों लोकों के स्वामी हैं। वह तो राजाओं के भी राजा हैं।"
रावण ने क्रोध में कहा,
"व्यर्थ की बातें मत कर वानर। जिसे तू तीनों लोकों का स्वामी बता रहा है उसे तो अपने ही राज्य से निष्कासित कर दिया गया है। उसका क्या सम्मान है।"
अंगद ने संयत किंतु गंभीर आवाज में कहा,
"लंकापति रावण आपने मेरे स्वामी श्री राम का अपमान किया है। नियमानुसार तो मुझे इस अपमान के कारण यह दरबार छोड़कर चले जाना चाहिए। किंतु मेरे स्वामी श्री राम ने मुझे एक अति महत्वपूर्ण संदेश देकर भेजा है। उस संदेश का संबंध सिर्फ आपसे नहीं है बल्कि लंका तथा उसके संपूर्ण निवासियों से है। अतः लंका तथा उसके निवासियों एवं समस्त राक्षसकुल के हित को ध्यान में रखते हुए मैं अपना संदेश देकर ही जाऊंँगा। यदि आप मुझे यथोचित आसन नहीं दे पा रहे हैं तो मैं अपने लिए स्वयं ही आसन का प्रबंध कर लूंँगा। क्योंकी इस दरबार में मेरा सम्मान मेरे स्वामी श्री राम का सम्मान है।"
अपनी बात कहकर अंगद ने अपनी पूँछ बढ़ाकर उससे रावण से भी ऊंँचा आसन तैयार किया और उस पर चढ़कर बैठ गया। रावण के दरबार में उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए। अपने आसन पर बैठने के पश्चात अंगद ने कहा,
"पहले मैं आपको अपना परिचय देता हूँ। मेरा नाम अंगद है। मैं सूर्यपुत्र बाली का पुत्र हूंँ। अब मैं आपको अपने आने का प्रयोजन बताता हूंँ। दशानन आप बहुत ही वीर तथा बलशाली हैं। ऋषि पुलस्त्य के कुल में जन्मे आप एक कुलीन व्यक्ति हैं। भगवान शिव तथा ब्रह्मा जी की तपस्या करके आपने उनसे कई प्रकार के वरदान भी प्राप्त किए हैं। आपने अपने बाहुबल से देवताओं, असुरों आदि सभी को पराजित किया है। मैं आपकी श्रेष्ठता से भली भांति परिचित हूंँ।"
अंगद ने रावण को पहले उसके उच्च कुल और पुरुषार्थ का भान कराया। उसके पश्चात बोला,
"परंतु इतना होते हुए भी ना जाने किस कुमति के कारण आपने एक अपराध कर दिया है। मेरे स्वामी श्री राम की भार्या देवी सीता का हरण कर लिया है। इसका परिणाम यह है कि आज लंका के द्वार पर श्री राम अपनी विशाल वानर सेना के साथ आक्रमण करने के लिए उपस्थित हुए हैं। परंतु मेरे स्वामी श्री राम यह नहीं चाहते कि जो पाप आपने किया है उसका दंड आपकी निर्दोष प्रजा को भुगतना पड़े। इसलिए उन्होंने मुझे शांति का प्रस्ताव देकर भेजा है। उनका कहना है कि आप उनकी पत्नी सीता को सम्मानपूर्वक उनके पास पहुंँचा दें। जिससे व्यर्थ के रक्तपात को रोका जा सके।"
रावण ने कहा,
"मूर्ख वानर तू ऐसा संदेश देख कर मेरे पास आया है। क्या मेरा वैभव मेरा सैन्य बल देखकर तुम्हारे स्वामी के पसीने छूट गए हैं। इसीलिए भय के मारे उसने शांति का संदेश भिजवाया है।"
अंगद ने एक बार फिर संयत स्वर में ही कहा,
"महाराज जिनके एक बाण में इतनी शक्ति है कि वह उससे इस लोक के सारे सागर सुखा सकते हैं। तीनों लोकों में भूचाल ला सकते हैं। जिन्होंने जनस्थान को राक्षसों से मुक्त कर दिया। वह भला इस धरती के एक छोटे से भूभाग के स्वामी लंकापति रावण की सेना से क्यों डरेंगे। वह तो बस यह नहीं चाहते कि आपके किए का दंड व्यर्थ में आपकी साधारण जनता को भुगतना पड़े। आप अभिमान त्याग कर माता सीता को लेकर अपने कुटुंबियों के साथ श्री राम के पास जाइए। उनसे अपने अपराध की क्षमा मांगिए। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह आपको क्षमा कर देंगे। अपनी समस्त सेना के साथ माता जानकी को लेकर यहांँ से चले जाएंगे।"
रावण ने एक बार फिर अट्टहास किया। वह बोला,
"राम शांति नहीं चाहता। वह तो अपने प्राणों की रक्षा करना चाहता है। अन्यथा जिसकी पत्नी को किसी ने बलपूर्वक हर लिया हो वह क्या उसके सामने शांति का प्रस्ताव भेजेगा। उससे जाकर कहना कि यदि सचमुच उसने एक क्षत्रिय कुल में जन्म लिया है तो फिर अपने बाहुबल से अपनी पत्नी को प्राप्त करे। भिखारियों की भांति भिक्षा ना मांगे।"
अंगद ने कहा,
"क्षत्रिय की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह अपने शत्रु को अपने अपराध की क्षमा मांगने का एक अवसर प्रदान करता है। रघुकुल नाथ श्री रामचंद्र एक सच्चे क्षत्रिय हैं। इसलिए उन्होंने क्षत्रिय धर्म निभाते हुए आपको आपकी भूल सुधारने का एक अवसर प्रदान किया है। अतः इस अवसर को व्यर्थ ना जाने दें। अभिमान त्याग कर उनकी शरण में जाएं और अपने किए की क्षमा मांग कर माता सीता को पूरे सम्मान के साथ उन्हें सौंप दें।"
रावण ने देखा कि अंगद किसी प्रकार दबाव में नहीं आ रहा है। उसने दूसरी युक्ति अपनाई। उसने अंगद से कहा,
"तुमने अपना परिचय देते समय कहा था कि तुम वानर राज बाली के पुत्र हो। वानर राज बाली एक शक्तिशाली योद्धा थे। किंतु तुम उनके नाम को डुबो रहे हो। ‌अपने पिता के हत्यारे राम की चाकरी कर रहे हो। तुम्हें तनिक भी लज्जा नहीं आती है।"
अपने पिता की चाल को समझकर इंद्रजीत ने कहा,
"महाराज हो सकता है इसमें अंगद का कोई दोष ना हो। इसके काका सुग्रीव ने राम के हाथों अपने ही भाई की हत्या करवा दी। बेचारा अनाथ हो गया। वहांँ इसकी सुनने वाला कोई नहीं होगा। अतः उन लोगों की आज्ञा का पालन करने के अतिरिक्त इसके पास कोई और चारा भी नहीं है।"
रावण झूठी सहानुभूति दिखाते हुए कहा,
"अंगद तुम्हारे पिता बाली मेरे मित्र थे। उसके अनुसार तुम मेरे पुत्र के समान हो। इसलिए अपने आपको अनाथ मत समझो। मैं तुम्हारी सहायता के लिए सदैव तैयार हूँ। सुग्रीव ने राम के साथ मिलकर कपट से किष्किंधा के जिस राज्य को अपने अधिकार में ले लिया है वह तुम्हारा है। हम तुम्हें तुम्हारा राज्य वापस दिलाने में सहायता करेंगे। तुम अपने भीतर जो प्रतिशोध की अग्नि जल रही है उसे शांत ना पड़ने दो।"
रावण की बात सुनकर अंगद ने कहा,
"महाराज रावण अब आपकी बातों से स्पष्ट है कि श्री राम की शक्ति व सामर्थ्य से आप भयभीत हो रहे हैं। तभी इस तरीके की अनर्गल बातें कर रहे हैं। मेरे पिता बाली ने मरते समय स्वयं मुझसे कहा था कि मैं श्री राम को ही अपना सबकुछ मानूँ। श्री राम मेरे लिए आराध्य हैं। आप उनसे ही प्रतिशोध लेने की बात कर रहे हैं। मैं एक बार पुनः आपसे प्रार्थना करता हूँ कि अपने विनाश को स्वयं मत बुलाइए। श्री राम का शांति प्रस्ताव मानकर सीता माता को वापस कर उनसे क्षमा मांग लीजिए।"
अंगद की यह बात सुनकर रावण बहुत क्रोधित हुआ।


अंगद का पांव जमाना

रावण ने क्रोध में कहा,
"दुष्ट वानर मैं तेरी सहायता करने की बात कर रहा था और तू मुझे ज्ञान दे रहा है। किस शक्ति व सामर्थ्य की बात करता है। तेरे स्वामी राम के पास है ही क्या ? मेरी चंद्रहास तलवार की चमक से तीनो लोक कांप उठते हैं। तेरी उस वानर सेना में उन तुच्छ वानरों और रीछों के अतिरिक्त ऐसे कौन से शक्तिशाली योद्धा हैं जो शक्तिशाली रावण का सामना कर सकें।"
अंगद ने हंसकर कहा,
"जब से मैं आया हूंँ आप अपने गुणों का ही बखान कर रहे हैं। परंतु मैंने आप के विषय में जो कहानियां सुनी हैं उनके अनुसार तो इनमें से एक भी गुण आप में नहीं है। आप वही रावण हैं जो जब राजा बलि को पराजित कर पाताल लोक को जीतने के लिए गए थे तो बच्चों ने उन्हें घुड़साल में बांध दिया था। राजा बलि ने दया करके आपको छुड़वाया था। सहस्त्रबाहु ने आपको एक कीड़े की भांति अपनी बाहों में पकड़ लिया था। तब ऋषि पुलस्त्य ने आपको छुड़वाया था। मेरे पिता बाली भी लंबे समय तक आपको अपनी कांख में दबाकर अपने आराध्य की पूजा करते रहे थे।"
अंगद की बात सुनकर रावण ने कहा,
"मेरी वीरता की कहानी कैला‌श को पता है। उसे मैंने अपने हाथों में उठा लिया था। मेरी छाती में इतना बल है कि दसों दिशाओं के हाथी यदि अपने दांत मेरी छाती में गड़ाना चाहें तो उनके दांत टूट जाएंगे। तू नादान मेरी शक्ति को नहीं समझ सकता है।"
अंगद ने राम का शांति संदेश रावण को सुना दिया था। किंतु उस पर कोई असर नहीं हुआ था। अंगद ने कहा,
"लंकापति रावण तुमने मेरे स्वामी श्री राम का शांति संदेश ठुकरा दिया है। तो अब उनकी भेजी चेतावनी सुनो। उन्होंने कहा है कि यदि तुम उनका शांति प्रस्ताव स्वीकार नहीं करोगे तो फिर वह युद्ध में तुम्हें अपना पराक्रम दिखाएंगे। युद्ध में तुम्हारा वध कर इस संपूर्ण पृथ्वी को राक्षसों से मुक्त कर देंगे। तुम स्वयं ही अपने विनाश का कारण हो। तुमने मेरे प्रभु श्री राम की बात मानी नहीं।"
अंगद द्वारा दी गई चेतावनी सुनकर रावण आपे से बाहर हो गया। उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वह अंगद को ले जाकर उसका वध कर दें। अंगद अपने बनाए हुए आसन से नीचे उतर आया। उसने आगे बढ़ते हुए सैनिकों को एक प्रहार में ही धराशाई कर दिया।‌ अपनी पूंँछ को छोटा कर वह रावण से बोला,
"तुमको श्री राम की वानर सेना की शक्ति का अनुमान लगाना है। मैं तुम्हारे दरबार में अपना एक पांव जमा कर खड़ा हूंँ। इस दरबार में उपस्थित सभी लोगों को मेरी चुनौती है। यदि इनमें से किसी ने भी मेरे इस पांव को हिला भी दिया तो मैं अपने स्वामी श्री राम की तरफ से वचन देता हूँ कि वह बिना युद्ध किए अपनी पत्नी को लिए बिना यहांँ से चुपचाप चले जाएंगे।"
यह कहकर अंगद ने अपना एक पांव भूमि पर जमा दिया।