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भेद - 5

5.

शायद यही वज़ह थी जब दादाजी ने दूसरी स्त्री के साथ नाता जोड़ा, तो उनको यह बात बहुत अख़र गई| कोई भी औरत ख़ुद के जीते-जी यह बर्दाश्त नहीं कर सकती| उन्होंने हर तरह से बड़े दादा जी के साथ निभाने की कोशिश की| पर दादाजी की दिनों-दिन बढ़ती मनमानियां उनको आहत करने लगी थी|....

जब तेरे बड़े दादा ने घर छोड़कर जाने का फ़ैसला लिया, तब बड़ी दादी ने  ख़ुद को ख़त्म करने का कुछ जल्दीबाज़ी में ही फ़ैसला कर लिया| उस फ़ैसले को लेते समय वह नहीं सोच पाई कि उनके पीछे से उनकी बेटियों का क्या होगा|

मैं आज सोचती हूं तो लगता है कि अगर मुझे उनकी मनःस्थिति का जरा-सा भी पता होता तो मैं उनको बचा लेती| बड़ी बहन के जैसे उनकी आजीवन सेवा करती क्योंकि उनके आत्महत्या कर लेने के बाद भी तो मैंने उनकी बेटियों को अपनी बच्चियां समझकर पाला-पोसा| पर होनी को कौन टाल पाया है बेटा...शायद ऐसा ही कुछ होना लिखा था|

तभी तेरे बड़े दादा जी के घर छोड़ने के बाद उन्होंने एक रात इतना ख़राब निर्णय ले लिया| सवेरे जब वह दस बजे तक कमरे से बाहर नहीं आई तब हम सभी ने मिलकर कमरे का दरवाजा तोड़ा क्योंकि उनका कमरा सबसे कोने में था| रात को भी उनके कमरे से कोई आवाज़ नहीं आई....नहीं तो हम तुरंत पहुंच जाते हैं| सवेरे जब कमरे का दरवाज़ा तोड़ा तब तक जीजी अपनी इहलीला समाप्त कर चुकी थी|

तेरे बड़े दादा जी को उनके आत्महत्या कर लेने की सूचना दी गई| वह तेरह दिनों तक उनके क्रिया-कर्म होने तक घर में रुके| उसके बाद वह वापस उसी स्त्री के पास लौटकर चले गए| बेटा! जब आदमी के पास विकल्प होते हैं न, तभी वह अपनी मनमानी करने और करवाने की गुस्ताख़ी करता है|

तेरे दादाजी ने घर छोड़ने से पहले उनको बहुत समझाया था| उनको चारों बेटियों का बहुत वास्ता दिया और उनको समझाने की बहुत कोशिश की| पर वो अपनी ज़िद से टस से मस नहीं हुए| उन्होंने सिर्फ़ एक ही बात बोली... ‘मेरी स्त्री ने मुझे दिया ही क्या था.... सिर्फ़ बेटियां ही| इनको तो तू भी पढ़ा-लिखा लेगा, मेरे रुकने की ज़रूरत कहां है|’

इतना निष्ठुर पिता किसी ने नहीं देखा होगा| समय के साथ जब बुद्धि भ्रष्ट होती है, तो कोई भी किसी को कुछ नहीं समझा सकता| कुछ ऐसा ही तेरे बड़े दादा जी के साथ हुआ| अपनी मनमर्ज़ी करते हुए वह घर छोड़ कर चले गए|

 

चारों बेटियां उस समय किशोर अवस्था में थी| मैं उनको अगर अपने आंचल की छांव में नहीं रखती तो हो सकता था कि भविष्य में उनमें से कोई अपनी माँ के जैसे कुछ भी कर सकती थी| बचपन के पालन-पोषण का बच्चे की मनःस्थिति पर बहुत प्रभाव पड़ता है बेटा|....

मुझे उन चारों को अपने प्रेम में बांधना ही था| लेकिन इस बीच मेरा बेटा महेंद्र प्यार-स्नेह से कहीं छूट गया| जितना मुझे अपने बेटे का ध्यान रखना चाहिए था नहीं रख पाई| बस मन में यही ख़्याल रहा....लड़का जात तो पत्थर जैसे होते हैं....उनको कौन आहत कर सकता है|....बस फूलों जैसी लड़कियों पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए| ख़ैर मेरे ऊपर उनकी चार बेटियों और अपने बेटे महेंद्र की ज़िम्मेदारी आ गई। जिसको निभाने में मेरी सारी उम्र निकल गई|"

दादी हमेशा अपने बेटे के लिए यह वाक्य कहना नहीं भूलती थी| पर कैसे छूट गया....क्या हुआ....यह नहीं बताती थी| ख़ैर सृष्टि ने दादी से कहा...

"ओह दादी। आप कितनी ग्रेट है।  आपने इतना सब कैसे किया दादी?"

"कैसे किया यह तो मैं ही जानती हूँ बेटा|”....बोलते-बोलते दादी की आवाज़ भर्रा गई और उन्होंने अपनी बात बदल दी।

सृष्टि को दादी की एक बात तो बहुत अच्छे से समझ आ गई कि वह कहीं न कहीं अपराध-बोध में हैं| अब सृष्टि दादी की सभी बातों को सुनना चाहती थी। ताकि उनका भी जी हल्का हो जाए| आज उसको दादी की बातें सुनकर ऐसा लगा कि दादी का दिल कितना बड़ा है| उन्होंने पूरे परिवार के लिए बहुत कुछ किया पर कभी भी किसी को गिनाया नही। दादी के विशाल कद ने सृष्टि को अभिभूत कर दिया। वह दादी से बोली..

"आगे बताओ न दादी..मुझे आप से अपने परिवार की बातें सुनना  न सिर्फ़ बहुत अच्छा लग रहा है बल्कि मैं बहुत कुछ सीख भी रही हूं ।"

दादी को लगा शायद सृष्टि को उसके पापा के लिए कही हुई बात  समझ नही आई....तभी उसने कोई प्रश्न नही पूछा। दादी को मन ही मन तसल्ली हो गई और उन्होंने आगे बताना शुरू किया।

हालांकि दादी सृष्टि से कुछ भी नही छिपाना चाहती थी। पर उनको लगता था जब उनकी बहु विनीता ही सृष्टि को नही बताना चाहती तो वह क्यों पहल करें। सो दादी ने घर-परिवार से जुड़ी बात पुनः शुरू की...

"घर गृहस्थी के कामों में सवेरे पांच बजे से रात के सात कब बजते थे....पता ही नही चलता था। ख़ैर अब मैंने सोच चुकी थी कि मेरे पांच बच्चे हैं।....