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भेद - 10 - अंतिम भाग

10.

“सृष्टि! उस समय आज के जैसे मोबाईल नहीं हुआ करते थे| घरों में एक लेंड-लाइन फ़ोन होता था| घर वालों की उपस्थिति में सगाई के बाद हमारी बहुत गिनती की बातें होती थी| बातचीत में तेरे पापा बहुत अच्छे थे| माँ-बाऊजी के अच्छे संस्कार उनमें कूट-कूटकर भरे थे|....उनसे बात करके मुझे हमेशा अच्छा लगा|...

ख़ैर ख़ूब धूमधाम से हमारी शादी हुई| कहीं भी कोई कमी-पेशी नहीं थी| जिस रोज़ हमारी विवाह की पहली रात थी....मैं भी और लड़कियों की तरह बहुत ख़ुश थी| उस रात ही मुझे पहली बार कुछ गलत होने का आभास हुआ क्योंकि जैसे ही तुम्हारे पापा मेरे कमरे में आए....छोटू उनके साथ-साथ चला आया|....

तुम्हारे पापा ने उसे बाहर ही रुकने का बोला, पर भी वह किसी न किसी बहाने, तुम्हारे पापा को बाहर बुलाने की कोशिश कर रहा था| उसको यह बात बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं थी कि तुम्हारे पापा मेरे साथ रात गुज़ारे| शायद ख़ुद के मन की असुरक्षा की वज़ह से वह ऐसा कर रहा था|

“फिर क्या हुआ मां क्या आप दोनों ने.....”

“नहीं ऐसा कुछ भी नहीं हुआ| तुम्हारे पापा ने छोटू को तेज़ आवाज़ में बाहर ही रुकने को कहा और वह मेरे साथ रहे| यह बात छोटू को अखर गई| जब वो कमरे से बाहर निकला तो उसने दरवाज़ा कुछ ज़्यादा ही जोर से मारकर बंद किया| जिसकी आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूँजती है| जब मैंने तुम्हारे पापा से पूछने की कोशिश की....तो उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि सारी बात एक ही रात में नहीं जानी जा सकती| तुमको इसके लिए इंतज़ार करना होगा|...

एक-एक करके काफ़ी दिन गुजरते गए|...तुम्हारे पापा ने न तो मेरा साथ छोड़ा, न ही छोटू का साथ छोड़ा| मैं भी शादी के समय बहुत ज़्यादा समझदार नहीं थी| समलैंगिकता और बाई-सेक्शुअल जैसी बातें मुझे भी बहुत समझ नहीं आती  थी| समय के साथ तुम्हारे पापा ने मुझे सभी बातें बताई कि किन परिस्थितियों में उन्होंने छोटू के साथ इस तरह के संबंध बनाए|...

जब तुम्हारी दादी घर की समस्याओं में उलझी हुई थी....उस समय में तुम्हारे पापा की ओर ध्यान देने वाले दादा जी के सेवक और छोटू ही हुआ करते थे|  इसी बीच में छोटू की ग़लत आदतों ने तुम्हारे पापा को अपना मोहरा बना लिया| उसने तुम्हारे पापा की मासूमियत का ख़ूब फ़ायदा उठाया और वो  बुरी आदतों में घिरते गए| उन्होने अपनी इन सब कमियों को मेरे आगे स्वीकारा और मुझसे ख़ुद की गलतियों के लिए माफ़ी भी मांगी|...

बाद में महेंद्र ने ख़ुद को अपराधबोध में भी महसूस किया| शायद यही वज़ह है मेरे इतने गुस्सा करने पर भी वह शांत रहकर सुन लेते हैं| पर मेरे लिए आज भी यह आहत करने वाला है|

तेरे पापा के पास विकल्प है| तभी वह शांत रह पाते है|..मेरे पास नहीं| मैंने सिर्फ़ जीवन से समझौता किया है, तभी बहुत परेशान हो जाती हूँ| समझौते कभी मरहम नहीं लगाते बल्कि कसक बन जाते हैं बेटा| शायद अब तू इस बात की तह में भी पहुँच सके|”....

सृष्टि बहुत ख़ामोशी से माँ को सुन रही थी| वो अब माँ को अपने और भी क़रीब महसूस कर रही थी| तभी विनीता ने आगे बताया....

“साथ ही तुम्हारे पापा ने यह भी कहा....वह छोटू को नहीं छोड़ सकते| मैं जो भी निर्णय लेना चाहूँ....ले सकती हूँ| मुझे भी तुम्हारे पापा से यही शिक़ायत है...उनको छोटू को अगर नहीं छोड़ना था...तो मेरे से शादी क्यों की? मेरे लिए तुम्हारे पापा की बातें आहत और अपमानित करने वाली थी|...

“जब मैंने यह सब बातें माँ और बाऊजी को बताई| तो माँ और बाऊजी दोनों  का हृदय आत्मग्लानि से भर गया| मैं उस समय घर छोड़ने का निर्णय ले चुकी थी| तुम उस समय लगभग एक साल की हो गई थी| पर मुझे इस घर में रहना नहीं था| मैंने तुमको अपने साथ ले जाने का फ़ैसला कर लिया था|....

जब माँ ने मेरे आगे बहुत हाथ जोड़ी की| मुझे घर से न जाने के लिए वचन ले लिया। मेरे पास कोई भी विकल्प नहीं था| माँ ने सिर्फ़ तुम्हारे बड़े होने का इंतजार करने को कहा| ताकि तुमको माँ-पापा दोनों का प्यार मिले| वह नहीं चाहती थी कि टूटे हुए घरों में जो पीड़ा बच्चों को मिलती है...वो तुमको मिले| माँ भी शायद अतीत में जेठानी की बेटियों के साथ बहुत कुछ महसूस कर चुकी थी|...

मैंने अपनी उपेक्षाओं और अपेक्षाओं का गला घोट कर तुम्हारे पापा के साथ निभाने की कोशिश की| पर मैं भी इंसान थी| सालों-साल से अपने साथ-साथ तुम्हारे पापा को छोटू के साथ देखकर ख़ुद को आत्मग्लानि से नहीं निकाल पाई|..

शायद यही वज़ह थी कि तुम्हारे पापा की कही हुई छोटी से छोटी बात मुझे बुरी लगती गई| मैं हर बात के लिए उन्हें दोषी बनाकर उनसे लड़ाई-झगड़ा करती रही| पापा के चुप रहने की शर्त भी यही थी कि मैं छोटू को कुछ नहीं बोलूँ| पर तुम ख़ुद ही सोच कर बताओ कि मैं छोटू को अपने घर में कैसे बर्दाश्त कर सकती थी। औरतों की सौतन तो औरत होती है....मेरी सौतन तो आदमी ही था|”

सृष्टि को अब समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी माँ को क्या बोले क्योंकि  माँ ने भी घर की बात घर में रखने और अपनी बेटी के लिए बहुत बड़ा त्याग किया था| जहां तक पापा का सवाल था, वह भी कहाँ ग़लत थे| बचपन में उनके साथ हुई उपेक्षाओं ने उन्हें अंधकार की ओर धकेल दिया था|... शायद यही वज़ह है कि वह अपनी हर गलती के लिए माँ से कभी भी माफ़ी मांग लेते थे और उनको घर न छोड़कर जाने के लिए मना लेते थे| दरअसल वह सृष्टि को दूर नहीं जाने देना चाहते थे और शायद माँ के इतने साल से साथ रहने के कारण उनको, उनसे भी जुड़ाव हो गया था|

जहाँ तक छोटू का सवाल था उसने भी अपनी सारी जिंदगी महेंद्र के साथ गुजार दी थी| अब उसके पास भी कोई दूसरा ठौर-ठिकाना नहीं था|

सृष्टि को अब अपनी सभी गलतियों का एहसास हो चुका था| तभी उसने अपनी माँ से माफ़ मांगी और कहा

“आप ठीक कहती थी माँ| ज़िंदगी में बहुत सारी ऐसी छुपी हुई बातें होती हैं जो जब तक न पता लगे तभी तक अच्छी होती हैं| और अगर पता भी चले तो उनको समझने के लिये समझदार होना बहुत ज़रूर है|

सृष्टि को अब अपने आप से ही वितृष्णा हो रही थी कि क्यों उसने सभी के बारे में

सोचा| जो भी कुछ हुआ किसी के हाथों में नहीं था| पर सबसे सुंदर बात यह थी कि दादी ने अपने बेटे के व्यवहार को कभी भी न्यायसंगत नहीं ठहराया...बल्कि अपनी बहु का भी साथ दिया|

अपने प्रॉमिस के अनुसार आज दादी ने अपनी बहु विनीता को कोई भी निर्णय लेने के लिए भी मुक्त कर दिया था| ताकि अपने शेष बचे जीवन में वह जैसे जीना चाहे जी सके| हालांकि दादी अपनी बहु से जुड़े अपराधबोध के लिए खुद को पूरी तरह कभी भी मुक्त नहीं कर पाई| उनकी वजह से माँ ने अपनी जवानी कुढ़ते हुए खत्म कर दी थी|

विनीता को भी दूसरे शहर में गर्ल्स हॉस्टल की वार्डेनशिप मिल चुकी थी| समय पर सृष्टि के साथ सभी बातें साझा हो जाने से अब वह सृष्टि के लिए निश्चिंत थी|

अब वह दादी,पापा और मम्मी तीनों में से किसी के भी पास जाने और रहने के लिए स्वतंत्र थी| सृष्टि ने जब अपने पापा के पास जाकर उनसे माँ और दादी की बातों को साझा किया तो महेंद्र ने अपनी बेटी के सिर पर हाथ रखकर कहा....

“अपनी बेटी को बड़ी होते देखना हर माँ-बाप का ख्वाब होता है| मैंने तो तुमको न सिर्फ़ बड़े होते देखा है बल्कि बहुत समझदार होते हुए भी देखा है| अब तुम लॉ पढ़ने दिल्ली जा रही हो....वह भी अपने पापा के ही कॉलेज में| मैं बहुत ख़ुश हूँ बेटा| ख़ूब ख्याल रखना अपना| मेरे पास जरूर आते रहना| तुमको और तुम्हारी माँ को बहुत प्यार करता हूँ| बस कुछ चीज़ें बदली नहीं जा सकती| तुम्हारे और विनीता के आने का हमेशा इंतज़ार करूंगा| यह घर हम सबका है बेटा|”

पापा की बातें सुनकर सृष्टि उनके गले लगकर बहुत जोर से रोई और अपने पापा से बोली....

“आप मेरे पापा हैं....और हमेशा ही रहेंगे| आपको बहुत प्यार करूंगी| आप सबके पास नहीं आऊँगी...तो कहाँ जाऊँगी|”

दादी आज एक बार फिर घर का मज़बूत स्तंभ बनकर विनीता और सृष्टि दोनों के साथ खड़ी थी क्योंकि अब उनके बेटे के जीवन का भेद उन दोनों माँ-बेटी के बीच में ही महफूज़ था| शेष बचे समय में वह अपनी बहु को ख़ुश देखकर अपनी आत्मग्लानि से बाहर आना चाहती थी|||

प्रगति गुप्ता