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मानस के राम (रामकथा) - 52





मानस के राम

भाग 52



युद्ध समापन से पूर्व की रात्रि

दोनों ही सेनाएं अपने अपने शिविरों में लौट गई थीं। आज युद्ध में दोनों ही पक्षों को बहुत क्षति हुई थी। कई योद्धा घायल थे। जिनका उपचार किया जा रहा था।
लक्ष्मण राम के घावों पर औषधि का लेप कर रहे थे। पर राम के घावों को देखकर उनका ह्रदय द्रवित हो रहा था। वह इस युद्ध के लिए स्वयं को दोष दे रहे थे। उनका मानना था कि यदि पंचवटी में उन्होंने सीता के कटु वचन सह लिए होते राम के कहे अनुसार उन्हें अकेला छोड़ कर ना आए होते तो रावण सीता का हरण नहीं कर पाता। यदि ऐसा होता तो आज यह युद्ध ना हो रहा होता। अपने बड़े भाई के कष्टों का कारण वह स्वयं ही हैं।
राम के घावों पर औषधि लगाते हुए उनकी आंँखों से आंसू बहने लगे। लक्ष्मण के आंसू देख कर राम उनके हृदय की पीड़ा को समझ गए। अपने अनुज को समझाते हुए बोले,
"लक्ष्मण इस संसार में घटित होने वाली प्रत्येक घटना का एक उद्देश्य होता है। प्रत्येक घटना किसी विशेष कार्य को संपन्न करने के लिए होती है।"
लक्ष्मण ने कहा,
"आपको चौदह साल के वनवास पर आना पड़ा, सीता माता का हरण हो गया, अब आपको इतने कष्ट सहने पड़ रहे हैं। इन सब के पीछे क्या उद्देश्य हो सकता है ?"
राम ने मृदु मुस्कान के साथ कहा,
"चौदह साल का वनवास इसलिए मिला कि मैं जनसाधारण के बीच जाकर उनके कष्टों को समझ सकूँ। उनका प्रेम और आदर पा सकूँ। दण्डकारण्य में रह रहे ऋषि, मुनि व वनवासियों को राक्षसों के त्रास से मुक्त कर सकूँ।"
लक्ष्मण ने कहा,
"वह तो हो रहा था। फिर भाभीश्री सीता को वह दुष्ट रावण क्यों हर लाया ?"
"अनुज जो हो रहा था वह तो उस प्रमुख उद्देश्य की भूमिका मात्र था। वास्तविक उद्देश्य तो उस दुराचारी रावण का अंत करना था। सीता हरण तो उसका कारण मात्र है। यह युद्ध भी धर्म की स्थापना के उद्देश्य से लड़ा जा रहा है। रावण का अंत धर्म की स्थापना को सुनिश्चित करेगा।"
राम की बात सुनकर लक्ष्मण के ह्रदय को तसल्ली मिली।

सुग्रीव, जांबवंत, हनुमान और अंगद युद्ध के इस अंतिम दौर के विषय में चर्चा कर रहे थे। अंगद ने कहा,
"आज का युद्ध बहुत ही भयंकर रहा। आज वानर सेना के कई वीरों को अपनी जान देनी पड़ी।"
हनुमान ने कहा,
"राक्षस सेना का भी कम नुकसान नहीं हुआ है। स्वयं रावण भी युद्ध के बीच में अचेत होकर भाग गया था।"
हनुमान की बात सुनकर सुग्रीव ने कहा,
"हनुमान रावण एक वीर योद्धा है। वह रण छोड़कर नहीं भागा था। उसके अचेत हो जाने से घबराकर उसका सारथी उसे लेकर चला गया था। किंतु चेतना वापस लौटते ही रावण युद्ध के लिए आ गया था।"
जांबवंत ने कहा,
"महाराज सुग्रीव का कहना सही है। रावण अब प्रतिशोध की अग्नि में जल रहा है। वह बहुत अधिक घातक हो गया है। कल के युद्ध में बहुत सावधानी बरतनी होगी।"
सुग्रीव ने कहा,

"सावधानी तो हमें युद्ध की समाप्ति तक बरतनी होगी। परंतु मेरा मानना है कि आज रात हमें विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए। रात में राक्षसों की मायावी शक्ति विशेष रूप से जाग्रत हो जाती है। युद्ध जीतने के लिए राक्षस कुछ भी कर सकते हैं। अतः आज की रात हमें हर तरह से सतर्क रहना चाहिए।"
सभी सुग्रीव की बात से सहमत थे।

मंदोदरी के लिए यह रात चिंता से भरी हुई थी। रावण को समझाने के उसके सारे प्रयास व्यर्थ गए थे। कुछ समय पूर्व भी रावण के घावों पर लेप लगाते हुए भी उसने रावण को समझाने की चेष्ठा की थी। पर वह नहीं माना। अब वह मन ही मन आने वाले अनिष्ट के बारे में सोचकर व्यथित हो रही थी। वह अपना पुत्र खो चुकी थी। अब उसके पति के प्राणों पर संकट था।
रावण का मन बेचैन था। अपने पुत्रों, भतीजों और अनुज कुंभकर्ण के चेहरे बार बार उसकी आँखों के सामने घूम रहे थे। उसका मन उन्हें याद करके द्रवित हो रहा था। वह उन सबके वध का प्रतिशोध लेने के लिए छटपटा रहा था।

इंद्र द्वारा राम के लिए रथ भेजना

वह अंतिम रात दोनों ही खेमों के लिए बेचैनी से भरी थी। हर कोई अपनी अपनी तरह से युद्ध को निर्णय तक पहुँचाना चाहता था।
अगले दिन एक बार फिर दोनों सेनाएं युद्ध भूमि में एक दूसरे से टक्कर लेने को आतुर थीं। दोनों तरफ से लगते नारे सैनिकों में उत्साह भर रहे थे।
देवलोक में सभी देवता देवराज इंद्र के सम्मुख उपस्थित थे। उनकी चिंता राम को लेकर थी। रावण अपने दिव्य रथ पर सवार था। जबकी राम रथविहीन भूमि पर थे। देवताओं ने देवराज इंद्र के सामने अपनी बात रखी। ब्रह्मा जी ने देवराज इंद्र से कहा कि देवताओं को राम की सहायता करनी चाहिए। अतः वह अपना रथ राम के पास भिजवा दें।
देवराज इंद्र ने अपने सारथी मातलि को बुलाकर आदेश दिया कि वह उनका रथ लेकर राम के पास उनकी सेवा में ले जाए।
देवराज इंद्र की आज्ञा का पालन करके मातलि दिव्य रथ के साथ युद्धभूमि में प्रकट हुआ। राम के सामने हाथ जोड़कर विनीत भाव से बोला,
"प्रभु मेरा नाम मातलि है। मैं देवराज इंद्र के रथ का सारथी हूँ। उनके आदेश पर यह दिव्य रथ आपकी सेवा में लेकर आया हूँ।"
राम ने कहा,
"परंतु मैंने देवराज इंद्र से किसी प्रकार की सहायता नहीं मांगी थी।"
"यह रथ देवराज ने ब्रह्मा जी के कहने पर भिजवाया है।"
लक्ष्मण को इस प्रकार युद्धभूमि में एक सारथी का रथ लेकर आना सही नहीं लग रहा था। उन्हें लग रहा था कि यह राक्षसों की कोई चाल भी हो सकती है। उन्होंने कहा,
"भ्राताश्री इस प्रकार किसी की बात पर विश्वास करना ठीक नहीं है। हमारा युद्ध राक्षसों से हो रहा है।‌ राक्षस जाति माया रचने में दक्ष है।"
लक्ष्मण की बात सुनकर मातलि ने कहा,
"युद्ध में सतर्कता बरतना बहुत अच्छा है। मैं आपको इस रथ के बारे में कुछ विशेष बातें बताता हूँ। रथ की यह विशेषताएं केवल देवताओं को ही विदित हैं। उन्हें सुनकर आपकी शंका का निवारण हो जाएगा।"
मातलि ने बताया कि देवराज इंद्र के दिवस रथ का निर्माण स्वयं ब्रह्मा जी ने किया है। इसमें सातों कुंलगिरियों का बल है। अष्टमहानाग वासुकी अनंत तक्ष शंखपाल पद्म महापद्म कुलिक कार्कोटक रथ के रास की रस्सियों में विद्यमान हैं। नक्षत्र रत्न रूप में जड़े हुए हैं। इसमें देवराज इंद्र का धनुष, दिव्य बाण और कवच हैं। तीव्र गति से चल सकता है। आवश्यकता के अनुसार आकर बदल सकता है। सागर की लहरों और आग की लपटों पर चल सकता है।
रथ की विशेषताएं बताने के बाद मातलि ने कहा,
"रावण के साथ युद्ध में यह उसकी मायावी शक्तियों से आपकी रक्षा करेगा। कृपया आप इस रथ को स्वीकार करें।"
मातलि द्वारा रथ की विशेषताएं बताने से लक्ष्मण का सारा संशय दूर हो गया था। विभीषण ने कहा,
"प्रभु अब आप किसी प्रकार का संकोच ना करके देवराज इंद्र द्वारा भेजे गए रथ को स्वीकार कर लीजिए।"
राम ने हाथ जोड़कर सभी देवताओं को धन्यवाद दिया। रथ की प्रदक्षिणा करने के बाद उस पर आसीन हो गए।
उन्होंने मातलि से कहा,
"युद्ध में शत्रु चाहे जो भी कुचाल चले परंतु तुम मेरी आज्ञा के बिना कुछ ना करना। अब रथ को युद्धभूमि के बीच में ले चलो।"

रथ पर आरूढ़ राम का रावण से सामना

रावण अपने रथ पर आरूढ़ युद्धभूमि में पहुँचा था। जब उसने राम को दिव्य रथ पर सवार देखा तो हैरान रह गया। उसने अपने एक योद्धा महोदर से पूँछा,
"इस दर दर भटकते वनवासी के पास यह रथ कहाँ से आया ?"
महोदर ने कहा,
"महाराज यह रथ तो देवराज इंद्र का है।"
यह सुनकर रावण ने कहा,
"देवता अब मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रच कर इस राम का साथ दे रहे हैं। किंतु उनका कोई भी षड्यंत्र रावण को हरा नहीं सकता है। एक बार वनवासी राम से निपट लूँ फिर देवताओं से भी निपट लूँगा।"
राम को दिव्य रथ पर आरूढ़ देखकर रावण बहुत अधिक क्रोधित हो गया था। उसने राम से कहा,
"इंद्र से यह रथ मांगकर तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे इस भ्रम में मत रहना। तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाओगे। मैं तुम्हारा और तुम्हारे अनुज का वध कर आज ही इस युद्ध को समाप्त कर दूँगा।"
राम ने प्रत्युत्तर में कहा,
"रावण तुम जैसे कामी और लंपट स्वभाव के व्यक्ति की बराबरी कर मैं नीचे नहीं गिरना चाहता हूँ। तुम्हारे पापों का घट अब भर चुका है। तुम्हारा वध करके आज मैं इस धरा को तुम्हारे अत्याचारों से मुक्ति दिलाऊँगा।"
राम की बात सुनकर रावण अट्टहास कर बोला,
"रथ पाकर बड़ी बड़ी बातें कर रहे हो। तुम त्रिलोक विजेता रावण का वध करोगे। इससे अधिक हास्यास्पद बात हो ही नहीं सकती है। दंड तो आज मैं तुम्हें दूँगा। अपने स्वजनों की मृत्यु का प्रतिशोध लूँगा। रथ पर सवार होकर बहुत साहस दिखा रहे हो। पर ऐसा ना हो कि मेरे पराक्रम से डर कर युद्ध भूमि से भाग जाओ।"
"रावण तुम्हारे मुख से पराक्रम शब्द अच्छा नहीं लगता है। जो छल से साधू का रूप बनाकर एक स्त्री का अपहरण कर ले। अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए अपने स्वजनों के प्राण संकट में डाल दे वह पराक्रमी नहीं हो सकता है। तुम एक कायर हो। किंतु मैं तुम्हें प्राण बचाकर भागने का भी मौका नहीं दूँगा।"
राम की बात सुनकर रावण ने अपने धनुष पर बाण का संधान कर चलाया। राम ने भी उस पर बाण चलाया।
रावण अपने अहंकार को सत्य साबित करना चाहता था। वह अधर्म को धर्म से ऊपर रखने के लिए युद्ध कर रहा था।
राम मर्यादाओं की रक्षा और धर्म की स्थापना हेतु युद्ध कर रहे थे।
दोनों योद्धाओं का उद्देश्य एक दूसरे से भिन्न और विपरीत था। परंतु दोनों ही अपनी विजय के लिए पूरे साहस और शौर्य के साथ एक दूसरे के साथ युद्ध कर रहे थे।
यह युद्ध बहुत भयंकर था जो सदैव के लिए इतिहास में अमर होने वाला था।