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मानस के राम (रामकथा) - 55





मानस के राम

भाग 55



सीता की अग्निपरीक्षा

लक्ष्मण के ह्रदय में एक भूचाल सा था। राम के शब्द उन्हें पीड़ा पहुँचा रहे थे। उन्हें क्रोध आ रहा था। उन्होंने कहा,
"भ्राताश्री आपके कहने का तात्पर्य है कि भाभीश्री को अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ेगा। यह तो सर्वथा अन्याय है। उनके जैसी पतिव्रता स्त्री ने इतने कष्ट सहे। रावण की अकूट संपदा को अस्वीकार कर बंदिनी बनकर रहना स्वीकार किया। उन्हें अपने सतीत्व की परीक्षा देनी पड़ेगी। यह तो सरासर अन्याय है।"
राम ने समझाने का प्रयास किया कि तुम इतना उत्तेजित हो मत हो। पर लक्ष्मण आवेश में उनकी बात सुनने को ही तैयार नहीं थे। उन्होंने उसी प्रकार क्रोध में कहा,
"सीता माता जैसी पतिव्रता स्त्री तीनों लोकों में मिलना कठिन है। राजा जनक की पुत्री, महाराज दशरथ की पुत्रवधू जो महलों का सुख भोग सकती थी सिर्फ आपके लिए सबकुछ त्याग कर हंसते हुए वन में चली आई। आज उनके उस त्याग का यह प्रतिफल है कि उन्हें यह प्रमाणित करना होगा कि रावण की लंका में रहते हुए उनके मन में कलुष तो नहीं आया। कपटी रावण उन्हें छल से हर कर ले आया था इसमें उनका तो कोई दोष नहीं था। फिर उनका यह अपमान क्यों ?"
कहते हुए लक्ष्मण भावुक हो गए। उन्होंने कहा,
"यदि जो कुछ भी हुआ उसमें किसी का दोष है तो वह मेरा है। मुझे भाभीश्री को अकेला छोड़ कर नहीं जाना चाहिए था। यदि आप को दंड देना है तो मुझे दीजिए। मेरी माता समान भाभी को यदि आप इस प्रकार दंडित करेंगे तो मैं आपका भी विरोध करूंँगा।"
लक्ष्मण भावाना के वशीभूत क्रोध में बहुत कुछ कह रहे थे। वह राम की बात सुनने को तैयार नहीं थे। इसलिए राम ने भी आवेश में ऊंचे स्वर में कहा,
"लक्ष्मण तुम क्या कह रहे हो ? तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो कि मैं अपनी जानकी का विश्वास नहीं करूंँगा। इतने दिनों में वह एक पल के लिए भी मेरे हृदय से दूर नहीं रही। उसे किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाने के विषय में तो मैं सोच भी नहीं सकता हूँ।"
उनकी बात सुनकर लक्ष्मण कुछ शांत हुए। उन्होंने कहा,
"तो फिर आपने अग्नि द्वार लांघ कर आने की बात क्यों की ?"
राम ने कहा,
"मैं जो कह रहा हूँ वह सीता की परीक्षा लेने के लिए नहीं है। मैं और सीता पृथक नहीं हैं। उस पर संदेह करने का अर्थ होगा कि मुझे अपने आप पर यकीन नहीं है। यदि किसी के मन में अपनी पत्नी के लिए इस तरह की शंका होगी तो भी वह इस प्रकार के परमाणु से मित्र नहीं जाएगी। मैंने सीता के अग्नि द्वार लांघ कर आने की बात किसी और प्रयोजन से कही है।"
राम की बात सुनकर लक्ष्मण को पूरा विश्वास हो गया था कि वह यह सब सीता पर शंका के कारण नहीं कर रहे हैं। उन्हें अब स्वयं पर लज्जा आ रही थी कि उन्होंने अपने बड़े भाई को कटु वचन कहे। आत्मग्लानि से भरे लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर कहा,
"मुझे क्षमा करें भ्राताश्री। मैंने आपसे उद्दंडता की। परंतु यदि परीक्षा लेना आपका प्रयोजन नहीं है तो फिर अग्नि द्वार की आवश्यकता क्या है ?"
राम ने लक्ष्मण को अपने पास बैठाकर उन्हें अग्नि द्वार लांघने वाली बात का सत्य बताया।

पंचवटी में सीता हरण से कुछ दिन पहले ही राम तथा सीता को इस बात का पता था कि आगे क्या होने वाला है। अतः एक दिन जब लक्ष्मण वन में ईंधन के लिए लकड़ी लाने गए थे तब राम ने अग्निदेव का आवाहन कर उनसे निवेदन किया कि आगे की लीला के लिए वह सीता को अपने पास सुरक्षित रख लें।‌ सीता अग्निदेव के पास चली गईं। जाते हुए लीला के लिए अपनी एक छाया राम के पास छोड़ गईं। रावण ने उसी छाया का हरण किया था। अब लीला समाप्त होने पर अग्नि द्वार में प्रवेश द्वारा राम अग्निदेव से वास्तविक सीता को वापस लेना चाहते थे।
सारी बात जानकर लक्ष्मण ने एक बार फिर राम से क्षमा मांगी। उसके बाद वह अग्नि द्वार लांघने की व्यवस्था करने चले गए।
सुग्रीव अंगद और हनुमान सीता को अशोक वाटिका से मुक्त करा कर ले आए। सीता के आने पर वानरों और रीछों में एक उत्साह की लहर दौड़ गई। सभी सीता माता की जय के नारे लगा रहे थे। सीता की एक झलक पाने और उनके चरण स्पर्श करने की प्रतिस्पर्धा सी हो रही थी। सीता यह सब देखकर भाव विह्वल हो रही थीं। परंतु उनके नेत्र अपने पति राम के दर्शनों के लिए व्याकुल थे।
राम ने जब सीता माता का जयघोष सुना तो वह लक्ष्मण के साथ शिविर के बाहर आए। सीता की दृष्टि राम पर पड़ी तो उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे। राम भी भावनाओं से भरे उनकी तरफ देख रहे थे। बड़ा ही भावुक दृश्य था। सभी के नेत्र भींगे हुए थे। सीता अपने को रोक नहीं पा रही थीं। वह राम की तरफ बढ़ीं। तभी राम ने उन्हें वहीं रुकने को कहा। यह सुनकर सभी आवाक रह गए। राम ने कहा कि सीता को अग्नि में प्रवेश कर उनके पास आना होगा।
सीता लकड़ियों के ढेर के पास गईं। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा,
"हे अग्नि देव आप प्रकट होकर मेरी सहायता करें।"
लकड़ियों के ढेर में अग्नि उत्पन्न हो गई। सीता अग्नि की लपटों से होती हुई बिना किसी क्षति के आगे बढ़ गईं। एक बार फिर सीता माता की जय के नारे गूंजने लगे। कई दिनों के वियोग के बाद सीता राम से मिलीं थीं।
राम तथा सीता ने हाथ जोड़कर अग्निदेव को प्रणाम किया।
लक्ष्मण ने आगे बढ़कर सीता के चरण स्पर्श किए।

राम सीता और लक्ष्मण की दशरथ से भेंट

देवता गण स्वर्ग से राम तथा सीता के पुनर्मिलन का पावन दृश्य देखकर हर्षित हो रहे थे। उन्होंने ऊपर से पुष्पों की वर्षा की। ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर कहा,
"हे प्रभु आप साक्षात नारायण का अवतार हैं। नर रूप में आपने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है। अब आप जगत के समक्ष अपने नारायण होने के सत्य को उजागर कीजिए।"
राम ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर,
"ब्रह्मा जी इस संसार में प्रत्येक प्राणी नारायण का ही रूप है। मैं भी एक साधारण नर हूँ जो नारायण का रूप है। अपना कर्तव्य करते हुए मैं विधि द्वारा प्रदान हानि लाभ को भोग रहा हूँ।"
ब्रह्मा जी ने कहा,
"राम आपकी कीर्ति सभी दिशाओं में फैलेगी।"
उसी समय महाराज दशरथ आकाश में प्रकट हुए। उन्होंने कहा,
"हे राम तुम्हारे जैसा पुत्र पाकर मैं धन्य हूँ। मेरे वचन के पालन के लिए तुमने राज्य पर अपना अधिकार त्याग कर खुशी खुशी चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार कर लिया। देवताओं के द्वारा मुझे पता चला है कि तुम नारायण का अवतार हो। परंतु पुत्र के रूप में तुमने मुझे जो सुख दिया है उसके समक्ष स्वर्ग का सुख भी नगण्य है। अतः मुझ पर इस बात की कृपा करना कि मैं सदैव तुम्हें पुत्र के रूप में ही चाहता रहूँ।"
राम ने सजल नेत्रों से कहा,
"आपसे पिता का प्रेम प्राप्त करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। पुत्र के रूप में मैं आपके प्यार के लिए तरस रहा हूँ।"
दशरथ ने लक्ष्मण से कहा,
"पुत्र तुमने निस्वार्थ प्रेम का एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। अपने बड़े भाई की सेवा करने के लिए तुम स्वेच्छा से वन में चले आए। तुम्हारा यश दिग दिगांतर तक बना रहे।"
सीता को आशीर्वाद देते हुए उन्होंने कहा,
"पुत्री तुमने अपने आचरण से अपने पिता के कुल और पति के कुल का मान बढ़ाया है। अखंड सौभाग्यवती रहो।"
दशरथ ने राम से कहा,
"पुत्र मैं तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ। मुझे बताओ कि तुम क्या चाहते हो ?"
"पिताश्री अंत समय आपके दर्शन नहीं कर पाया था। आज वह इच्छा भी पूरी हो गई। मुझे किसी चीज़ की इच्छा नहीं है।"
"पुत्र मेरी इच्छा है कि तुम मुझसे कुछ मांगो।"
राम ने कहा,
"यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो मेरी माता कैकेई को क्षमा कर दें।"
दशरथ ने कहा,
"तुम धन्य हो पुत्र। तुम्हारे इस उदार ह्रदय को देखकर मेरे ह्रदय में भी जो कलुष था वह समाप्त हो गया। मैंने कैकेई को क्षमा कर दिया है।"
यह कहकर दशरथ अंतर्ध्यान हो गए।

राम सीता और लक्ष्मण की अयोध्या वापसी

लंका पर विजय प्राप्त हो चुकी थी। सीता राम के पास वापस आ गईं थीं। वनवास की अवधि समाप्त होने में अब सिर्फ दो दिन ही बचे थे। राम अब अयोध्या वापस जाने की तैयारी कर रहे थे। परंतु उनके मन में एक चिंता थी। चित्रकूट में जब राम अंतिम बार भरत से मिले थे तब भरत ने कहा था कि वनवास की अवधि पूरी होने के बाद यदि राम अयोध्या लौटने में एक दिन की भी देरी करेंगे तो वह जलती हुई चिता में प्रवेश कर जाएंगे। राम समझ नहीं पा रहे थे कि इतनी जल्दी अयोध्या वापस कैसे पहुँचेंगे।
सुग्रीव, हनुमान, जांबवंत और विभीषण सभी मौजूद थे। विभीषण ने राम से उनकी चिंता का कारण पूँछा। राम ने कारण बताने के बाद कहा,
"भरत बहुत ही भावुक है। वनवास की अवधि पूरी होने वाली है। यदि मैं नहीं पहुँचा तो हो सकता है कि वह अपने प्राण दे दे।"
हनुमान ने कहा,
"प्रभु यह कौन सी बड़ी बात है मैं आप लोगों को अपने कंधे पर बैठाकर कल सुबह तक अयोध्या पहुँचा दूँगा।"
विभीषण ने कहा,
"प्रभु उसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। पुष्पक विमान से हम सब अयोध्या जाएंगे। यह विमान आवश्यकता के अनुसार घट और बढ़ सकता है। हम सभी आसानी से अयोध्या पहुँच जाएंगे।"
सुग्रीव ने कहा,
"हमने पहले ही यह व्यवस्था कर ली है। हम सभी आपको लेकर अयोध्या चलेंगे।"
जांबवंत ने कहा,
"हमारी इच्छा आपका राज्याभिषेक देखने की है। जब आप अयोध्या के राजा बनेंगे तो वह दृश्य देखने के योग्य होगा। अतः आप हम सबको अपने साथ ले जाने की कृपा करें।"
राम ने कहा,
"मित्रों आप सभी को अपने साथ ले जाने से मुझे अपार हर्ष होगा। विपत्ति काल में आप सभी ने मेरा बहुत साथ दिया था। मेरे लिए आप सभी ने अपने प्राण तक संकट में डाल दिए थे। आप सबको अयोध्या ले जाकर मैं अपने स्वजनों से मिलवाऊँगा। सब आप लोगों से मिलकर अत्यंत प्रसन्न होंगे।"
राम की बात सुनकर सभी बहुत खुश हुए। विभीषण ने कहा कि अब विलंब करने का कोई कारण नहीं है। पुष्पक विमान तैयार खड़ा है।
सब लंका के सागर तट पर खड़े पुष्पक विमान पर सवार हो गए। चलने से पहले राम ने वानर और रीछों के दल को संबोधित करते हुए कहा,
"आज मैं अपनी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ अयोध्या वापस जा रहा हूँ। आप सबसे विदा लेते हुए मेरा मन द्रवित हो रहा है। रावण मेरी पत्नी सीता का हरण कर लंका ले आया था। आप सभी ने मेरी सहायता की जिसके कारण मैं समुद्र लांघ कर लंका आ सका और रावण को पराजित कर अपनी पत्नी को पा सका। मैं आप सभी का आभारी हूँ।"
राम ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए उनके समक्ष हाथ जोड़ दिए। सभी राम की जय जयकार करने लगे।
सभी सही प्रकार से पुष्पक विमान पर बैठ गए थे। विमान सबको लेकर अयोध्या की तरफ उड़ गया।