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छुट-पुट अफसाने - 8

एपिसोड--८

कुछ यादें टीस की तरह रह-रह कर ताउम्र दर्द देती रहती हैं पर जान बख्श देती हैं बल्कि जीने के एहसास को हर पल चुनौती देती रहती हैं------

‌इन हालात में काफी दौड़-धूप की जा रही थी कि अब क्या किया जाए । लाहौर में glamour world से जुड़े थे, उसका तो यहां दूर-दूर तक कोई नामोनिशान ही नहीं था।तो फिर अब--?

मल्होत्रा अंकल वकील थे। वकालत की प्रैक्टिस करते थे। बातों-बातों में उन्हें किसी मुवक्किल से पता चला कि जबलपुर से ६४ मील उत्तर की ओर "कटनी " शहर में अॉर्डिनेन्स फैक्टरी के आर्मी - केंटीन के ठेके की नीलामी है । १९४७ में अंग्रेज एकदम से भारत नहीं छोड़ गए थे। उनको अपना कारोबार समेटने में एक-दो वर्ष का समय तो लगा ही था । जबलपुर में "Gun Carriage Factory" थी (मैंने अपने कॉलेज के समय NCC में वहां visit किया था। ऊपर से पहाड़ दिखता है किन्तु भीतर दुनिया ही दूसरी है) और कटनी में Ordinance factory थी । पापा मल्होत्रा अंकल के साथ गए और tender भर दिया ।

रिज़ल्ट आने में समय लगने से उन्हें वक्त की चाल धीमी लग रही थी । कहते हैं जब सारे रास्ते खो जाते हैं, तो इंसान ऊपरवाले पर सब छोड़ देता है -- वही सही होता है शायद ।और---

‌उन्हें Army Canteen का ठेका मिल गया आखिर । इसके मिलने से कुहांसा छंटता लगा क्योंकि गहराया भी तो शिद्दत से था सो वक्त तो लगना ही था छंटने में । वैसे कटनी शहर बहुत छोटा था "लाहौर" के मुकाबले में किन्तु ज़िन्दगी के अथाह अॅंधेरों में एक चिराग जल उठा था, उसकी रोशनी में जीवन को अब सहज बनाना था । माना उनकी उदासी और अवसाद की जड़ें काफी गहरी थीं। अकबर इलाहाबादी ने ज़िक्र किया है --अफ़्सुर्दगी ओ ज़ोफ़ की कुछ हद नही 'अकबर'।(उदासी और निराशा)लेकिन थोड़ी -बहुत खुशियों की दस्तक उनको अपनी ओर आती सुनाई दे रही थी ।

कटनी शहर काफी पिछड़ा शहर था । चंद पंजाबी परिवारों से शहर में रौनक थी । जौहर साहब की पत्नी

राम रानी जौहर पापा के गांव की ही थीं। उन्होंने मम्मी-पापा को उन सबसे मिलवाया तो मम्मी को कुछ ढांढस बंधा ।

मेरा एडमिशन बाडस्ले गर्ल्स स्कूल में हुआ। वहां निशा जौहर और वीना भास्कर मेरी सहेलियां बन गईं थीं । अभी मिस टॉन्ग (अंग्रेज) वहां की प्रिंसिपल थीं । वो इंग्लैंड वापिस जा रहीं थीं और मिस शॉर्ट नई प्रिंसिपल आ रहीं थीं। मेरे स्मृति-पटल पर black-board पर बनीं दो रेलगाड़ियां opposite direction में धुंआ छोड़ती जातीं, आज भी जीवित हैं। जो मिस राम ने draw की थीं । मिस टॉन्ग अपने साथ स्कूल की film बनवा कर लें जा रहीं थीं। उसके लिए हम तीनों सहेलियों का चयन हुआ । हम तीनों ने इसके लिए पैंट, शर्ट और कोट पहने थे।

हमें स्कूल के पूरे कैम्पस में घुमाया जा रहा था । हमारी बाकि class-mates क्लास से झांक-झांक कर हमें देख रहीं थीं । बचपन भेद-भाव से परे होता है ना, सो सब खूब खुश थीं । हम तीनों भी बेहद खुश थीं । आज भी उन पलों को याद करके मेरे चेहरे पर मीठी सी मुस्कान नेआधिपत्य जमा लिया है ।

उधर, मम्मी रेलगाड़ी के डिब्बे जैसा घर पाकर भी खुश थीं। अब अपना घर तो था । मेन रोड से घर की पहुंच ऊबड़-खाबड़ थी, जिसे उन्होंने ३-४ रेजा (स्त्री मजदूर) के साथ मिलकर ठीक किया । जो लाहौर के घर में इतने मोटे कालीनों पर चलतीं थीं कि तीन -चार इंच की सैंडल की हील कालीन में घुस जाती थी, वो उत्साह पूर्वक परिस्थितियों से जूझ रहीं थीं । कुछ ही दिनों में पापा ने पूरी पंक्ति में बने चार नीचे के फ्लैट किराए पर ले लिए । उनमें कैंटीन के माल व सब्जियों के ट्रक खाली किए जाने लगे। कभी हम गाजर के कमरे में तो कभी मटर, गोभी आदि के कमरे में खेलते थे । आस-पड़ोस से जैन, तिवारी, गट्टानी, शुक्ला, दूबे आदि घरों के बच्चे भी हमारे साथ खेलने आ जाते थे ।

पापा ने जल्दी-जल्दी काम सैट किया और वे निकल पड़े थे अपने अभियान पर। उन्हें दिन-रात पीछे पंजाब में छूटे अपने परिवार की चिंता चैन नहीं लेने दे रही थी । पता नहीं कौन किस हाल में कहां होगा ! ठंडक बढ़नी शुरू हो गई थी। मम्मी को सब समझा कर वे दिल्ली पहुंचे । वहां बेजी (हमारी दादी) हमारे भाई के साथ मिल गईं। इनके मिलने से पापा की जान में जान आई। बड़ी बुआ और उनके तीनों बेटों को लेने वो अमृतसर गए । उनको भी दिल्ली भेजा । और स्वयं रईस मुसलमानी वेश-भूषा में सिर पर फर्र की टोपी सजाए जा पहुंचे लाहौर। बड़ी बुआ ने यह खतरा मोल लेने को बार-बार मना किया, पर वे नहीं माने थे।

धड़कते दिल से वे अपनी कोठी के सामने पहुंचे तो वहां पहरा देते अर्दली ने रोका। अब फंस गए। न हिन्दू और न मुसलमान कुछ भी न बने रह पाए । वहां कोई लीडर रह रहे थे, बस इतना ही जान सके थे । घर में एक पूरी दीवार में जड़ाऊ गहनें सजे थे । जो गुप्त थी । लेकिन मंज़िल तक पहुंच कर भी खाली हाथ लौटने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था । "जैसी तेरी रज़ा मालिक" कह कर वे एकदम अपना मन पक्का कर वहां से खोटे सिक्के के मानिंद लौट आए थे।

बड़े भाई के परिवार को बादशहान से साथ लेकर दिल्ली पहुंचे। वहां से सब को इकट्ठा करके एक ही ट्रेन से अपना पूरा परिवार, अपना असली खजाना लेकर वे कटनी के लिए चल पड़े थे। सदा साथ रहने के लिए...

बाकि, फिर

आपकी

वीणा विज'उदित

२०/१२/२०१९