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मेरी कीमत क्या है ? (व्यंग्य)


मेरी कीमत क्या है ? (व्यंग्य)

हम ठहरे एक आम आदमी ........नहीं ... नहीं , जनता..... अरे......नहीं...... फिर राजनैतिक हो गया । खैर आप तो समझ ही गए है कि हम और आप एक जैसे है । अब हमारे नामों पर ही राजनैतिक दल चलने लगे है जिन्होंने हमारा ही नाम बदनाम कर दिया है । तो साहब अब अपने जैसे लोगों को अक्सर ही झोला ले कर बाजारों में देखा जा सकता है । हम भी एक दिन ऐसे ही बाजार में झोले के साथ विचरण करते हुए कुछ सस्ता और सस्ता खोज रहे थे । हमारी मुलाकात जुम्मन भाई से हो गई । जुम्मन भाई आलू और प्याज का धंधा करते है । दुआ सलाम के बाद वे बोल पड़े ‘‘ मिश्रा जी हमारी कीमत क्या है ? ’’ हम तो अचकचा ही गए । सोचने लगे ‘‘हमारी कीमत ....... ।’’ हम जब तक जवाब देते उन्होंने उसके पहले ही दूसरा सवाल दाग दिया ‘‘ अच्छा आप तो शिक्षक हो , वो भी गणित के , ये बताओ सौ करोड़ में कितने शून्य होते है ? ’’ हम मन ही मन शून्य गिनने में लग गए । जुम्मन भाई शायद आज किसी भी सवाल का जवाब सुनने के मूड में नहीं थे । वे किसी राजनैतिक पार्टी के प्रवक्ता के समान ही केवल और केवल प्रश्न पूछना चाह रहे थे । वे आगे बढ़ कर और प्रश्न मेरी ओर उछालने लगे ‘‘ आप समाचार सुनते हो क्या ? ’’ इसमें सोचना क्या था, बस हमने अपना सिर हाॅं में हिला दिया । वे बोले ‘‘तो आपने सुना तो होगा ही चुनाव के बाद विधायक सौ करोड़ में बिक रहे है ।’’ हमने भी ईमानदारी से अपना सर फिर हाॅं में झटक दिया । वे अब अपनी लय में बोलने लगे ‘‘ बताईए वो चुनाव के पहले अपने आपको ईमानदार बताते है ,वोट हम ड़ालते है और वो जीतते है, फिर बिक जाते है । यहाॅं हम और आप है झोला ले कर बाजार में घूमते रहते है । ’’ मै बोल ही पड़ा ‘‘ तो आप ही बताओ क्या करना चाहिए ? ’’ उन्होंने हमारे प्रश्न को जैसे अनसुना ही कर दिया आखिर उन पर प्रवक्तापन जो सवार था । वे बोले ‘‘ अब आप ही बताओ आप की कीमत क्या है ? ’’ मै अपनी कीमत आंकता उसके पहले ही उन्होने बता दी ‘‘ दो कौड़ी की .........कोई आपको हजार दो हजार में न खरीदे । ’’ हमें अपनी कीमत जान कर बुरा लगा । हमने बुरा सा मॅुह बनाया तो शायद वे समझ गए वे बोले ‘‘ अरे ..... आप बुरा न मानें लेकिन आपकी और हमारी यही कीमत है । माना आप कुछ हमसे अधिक ही कमाते होंगे लेकिन आपको और हमको कौन खरीदेगा ? बस हमारी कीमत दो कौड़ी की ही है । ’’ जब उन्होने अपने आपको भी हमारे साथ शामिल किया तो हमारे अहम् को संतुष्टि मिली । वे बोले जा रहे थे ‘‘ हम तो अच्छे लोग है और अच्छा कौन होता है ? वही न जो दूसरों के लाभ का कारण बने । बस हम भी अच्छे बन कर इनके लाभ के लिए वोट ड़ाल आते है और वो है जो लाभ कमाते है । ’’ हम सोचने लगे हम जैसे लोगों के पास विकल्प ही क्या है ? हर बार बेईमानों में से किसी कम बेईमान को चुनने की कोषिष करो और फिर उससे ये अपेक्षा करो कि वो हमारे हित में काम करेगा । जुम्मन भाई सही है जो अब अपनी कीमत पूछने लगे है । उन्होंने तो मुझे भी मेरी कीमत बता दी । मैनें बात बदलने के लिए उनसे पूछा ‘‘ जुम्मन भाई आलू क्या भाव है ?’’ वे बोले ‘‘ आलू के भाव वही है जो कल थे , आपकी हमारी ही तरह । भाव बदले है तो केवल उनके । ’’ हमें लगने लगा आज वे सौ करोड़ के सदमे से बाहर नहीं निकलने वाले । हमने उनसे आलू तौलने को कहा । वे आलू तौलते हुए बोले जा रहे थे‘‘ अब तो साहब हमें भी अपनी कीमतें तय ही कर लेनी चाहिए । अबकी चुनाव आने दो , मैने अपनी कीमत न उन्हें बताई तो मेरा नाम भी जुम्मन नहीं । ’’ हम आलू तो ले आए लेकिन सोचते रहे क्या वो लोग सही है शराब और पैसे में बिक कर उन्हें चुनते है और फिर उन्हें मौका देते है बिकने का ? या वो लोग सही है जो जुम्मन जैसों को धोखा दे कर चुने जाते है और खुद बिक जाते है ? इस मंड़ी मे सब खुले आम होता है हो सकता है सब सही हों ? इस पूरे नाटक में यह भी तो सही है कि मेरी कीमत दो कौड़ी की है ।

आलोक मिश्रा"मनमौजी"