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खौलते पानी का भंवर - 9 - रोशनी का अंधेरा

रोशनी का अंधेरा

‘‘क्यों बे, अपनी पढ़ाई-लिखाई का भी कुछ ख़याल है या सारा दिन इन किस्से-कहानियों में ही डूबे रहना है?’’ राकेश पर उसके बाबूजी बिगड़ रहे थे.

पिछले कुछ महीनो से उसके बाबूजी उसकी पढ़ाई का ख़याल कुछ ज़्यादा ही रखने लगे थे. उन्हें हर वक़्त बस उसकी पढ़ाई की ही चिंता लगी रहती. वे उससे ज़्यादातर उसकी पढ़ाई, इम्तहानों, नंबरों, नौकरी वगैरह की ही बातें करते. राकेश के ऐसे हर काम को, जो उसकी पढ़ाई से संबंधित न होता, नहीं करने को कहते.

अगर उन्हें राकेश के दो-चार कामों पर ही एतराज होता, तब भी चलो कोई बात नहीं थी. वह किसी तरह गवारा कर लेता. पर उन्हें तो उसके कई और ऐसे काम, जिनमें वह काफी दिलचस्पी रखता था, बेकार के और वक़्त बरबाद करने वाले लगते थे जैसे कि शाम को स्कूल में हॉकी खेलना, लाइब्रेरी जाकर पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ना, वगैरह-वगैरह. और तो और, उसके हर काम में ज़्यादा वक़्त लगने की शिक़ायत भी उन्हें रहने लगी थी. ब्रश करने, नहाने, कंघी करने और कपड़े बदलने जैसे कामों में राकेश उन्हें ज़्यादा वक़्त लगाता महसूस होता. यहाँ तक कि खाना भी वे उसे जल्दी-जल्दी खाने को कहते. ‘‘क्या गाय-भैंसों की तरह जुगाली करता रहता है. जल्दी-जल्दी खाया कर. एक-एक मिनट करके बचाएगा, तो बहुत सारा वक़्त बचा लेगा. यही बचाया हुआ वक़्त अपनी पढ़ाई में लगा. एक बार कहीं अच्छी-सी नौकरी पे लग गया, तो फिर खाने पे जितनी देर मर्जी लगाया करना.’’ खाना खाते हुए यह सब उसे अक्सर सुनना पढ़ता.

राकेश का जी चाहता कि बाबूजी को जवाब दे दे कि विज्ञान की उसकी किताब में तो लिखा है कि भोजन हमेशा धीरे-धीरे और चबा-चबाकर करना चाहिए. जल्दी-जल्दी खाने से यह ठीक तरह से पचता नहीं. पर यह सब कहते-कहते वह हर बार रूक जाता. उसे मालूम था कि उसके ऐसा कह देने भर से ही बाबूजी बहुत बिगड़ जाएंगे.

राकेश अच्छी तरह समझता था कि बाबूजी के ऐसे असामान्य व्यवहार की मुख्य वजह असमय उनकी नौकरी छूट जाना ही है. किसी झूठे अभियोग में साल भर पहले वे बर्खास्त कर दिए गए थे. उसके बाद जोड़-तोड़ करके उन्होंने एक प्राइवेट कम्पनी में तीन हज़ार रुपए महीना की नौकरी पा तो ली थी, पर इतने में घर का गुज़ारा कहाँ चल सकता है. और फिर ऊपर से दो-दो जवान बेटियों को ब्याहने की चिंता उनके सामने अलग से मुँह बाए खड़ी थी. इसके अलावा राकेश से छोटी उनकी दो बेटियाँ भी थी जो अभी स्कूल में पढ़ती थीं.

इस बात से राकेश अनजान नहीं था कि उसकी बहनों की शादी के लिए आवश्यक ढेर से रुपयों का बंदोबस्त कर पाना उसके बाबूजी के बस की बात नहीं. उसे कोई अच्छी-सी नौकरी मिल जाने पर ही कुछ हद तक बात बन सकती थी. लेकिन अभी तो वह दसवीं में ही पढ़ रहा था और फिलहाल नौकरी पा सकने के काबिल ही नहीं था, उम्र के लिहाज़ से भी और काबलियत के लिहाज़ से भी. इसी वजह से उसके बाबूजी चाहते थे कि जल्दी से जल्दी ग्रेजूएट होकर वह कोई अच्छी-सी नौकरी हासिल कर ले. वैसे उसकी नौकरी के लिए दौड़-धूप तो उन्होंने अभी से शुरू कर दी थी.

उसे लगता कि इन सब तनावों ने उसके बाबूजी को तोड़कर रख दिया है और उनका दिमाग़ कुछ-कुछ असंतुलित-सा हो गया है इन सब चिंताओं से. इसी कारण उन्हें उसका हर ऐसा काम, जो पढ़ाई से संबंधित नहीं होता, निरर्थक लगता है.

यूँ घर का गुज़ारा तो बड़ी मुश्किल से चलता था, लेकिन इसके बावजूद घरवाले अपनी तरफ से राकेश को बढ़िया खुराक ही देने की कोशिश करते. वनस्पति घी से चुपड़ी रोटी सिर्फ उसे ही मिलती. बाकी सब सूखी ही खाते. सिर्फ़ राकेश को ही रात को सोने से पहले आधा-पौना कप दूध दिया जाता. बाकी लोग तो दूध का स्वाद भी भूलते जा रहे थे. दूसरे लोग चाहे दो-दो चम्मच सब्ज़ी से ही रोटियाँ निगल लिया करते हों, पर राकेश को आधी-पौनी कटोरी सब्ज़ी ज़रूर दी जाती थी. राकेश के इस बारे में पूछने पर वे कहते कि बिन चुपड़ी रोटी उन्हें ज़्यादा अच्छी लगती है और दूध तो उन्हें हज़म ही नहीं होता, वग़ैरह-वग़ैरह.

अन्दर से तो सारी बात राकेश समझता था, पर कुछ कर पाना उसके बस में नहीं था. ज़्यादा से ज़्यादा वह यही कह सकता था कि वह भी बिन चुपड़ी रोटी ही खाएगा या दूध नहीं पिएगा या सब्ज़ी उन लोगों के साथ बाँटकर ही खाएगा. मगर उसके ऐसा कहने के बावजूद ऐसा करने नहीं दिया जाता था उसे. उससे कहा जाता कि उसे इम्तहान में अच्छे नंबर लाने हैं, इसलिए ये सब उसके लिए बहुत ज़रूरी है.

राकेश को अक्सर ग्लानि होती कि घर के बाकी जनों के मुकाबले अच्छा खाकर वह उनसे नाइंसाफी कर रहा है. पता नहीं इसका बदला वह कब चुका पाएगा.

पर पढ़ाई के लिए जितनी मेहनत राकेश को करनी पड़ रही थी, उसके हिसाब से उसकी ख़ुराक फिर भी काफी कम थी.

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‘‘चल राकेश, जरा लिबर्टी तक घूम आएं.’’ रवि था, राकेश का दोस्त.

‘‘अरे नहीं यार, मुझे घर में कुछ काम है.’’

‘‘क्या काम है?’’

‘‘यूँ ही है एक काम.’’

‘‘क्या बात है भई, आजकल तुझे हर वक़्त घर पर काम ही लगा रहता है. स्कूल के अलावा तो तू घर से बाहर नजर ही नहीं आता. कोई खास बात है क्या?’’

‘‘नहीं यार, खास बात तो नहीं. तूने शायद मुझे कभी देखा नहीं होगा, वरना मैं तो अक्सर बाजारों के चक्कर लगाया करता हूँ.’’

‘‘रहने भी दे! तू समझता है जैसे हमें कुछ पता ही नहीं है? और हाँ, आजकल तू पहले से थोड़ा कमजोर भी नहीं होता जा रहा क्या?’’

‘‘अरे नहीं यार, तुझे यूँ ही लग रहा है. मैं तो पहले जैसा ही हूँ. अच्छा अब चलूँ यार, जरा देर हो रही है.’’

और रवि से विदा लेकर वह तेजी से अपने घर की तरफ चल पड़ा. उसे डर था कि देर से पहुँचने पर कहीं माँ के व्यंग्यबाण न झेलने पड़ें.

‘‘कहां गुलछर्रे उड़ा रहा था इतनी देर से? घर का तो जैसे कोई होश ही नहीं है. अपनी पढ़ाई-लिखाई का भी कुछ ख़याल है या सारा दिन यूँ ही आवारागर्दी करनी है?’’ घर में घुसते ही माँ के मुँह से शब्दों की यह बौछार हुई थी उस पर. अब क्या जवाब देता वह इसका? बस फटाफट खाना निकलकर अपने कोर्स की कोई किताब पढ़ने के अलावा और चारा ही क्या था उसके पास.

इस बात का भी उसे काफी दुःख था कि बाबूजी के साथ-साथ घर के बाकी लोग भी जैसे उसके खिलाफ़ हो गए थे. सब लोग बस हर वक़्त उसे पढ़ाई करने को ही कहते रहते. सिर्फ़ वही है जो पढ़-लिखकर घरवालों का सहारा बन सकता है - यह बात उसे अच्छी तरह से समझ में आ गई थी. पर उसे अक्सर हैरानी होती कि क्या घरवाले उसे इतना बुद्धू समझते हैं कि इस बात का भी महत्व नहीं समझता? उसकी दोनों बड़ी बहनें तो पढ़ाई में कमज़ोर निकली थीं. सबसे बड़ी कि गाड़ी बी.ए. के पहले साल पर ही अटक गई हुई थी और उससे छोटी कोशिशें कर-करके भी नवीं से आगे नहीं बढ़ पा रही थी.

वह अच्छी तरह समझता था कि उसके बाबूजी उसे बहुत चाहते हैं, पर से भावुक भी बहुत हैं. यह बात भी वह अच्छी तरह से समझता था कि घर में उसके साथ जो कुछ हो रहा है, उसके लिए उसके बाबूजी की अतिभावुकता भी एक हद तक ज़िम्मेदार है. असमय उनकी नौकरी छूट जाने ने आग में घी का काम किया था. वह अक्सर सोचा करता कि बस एक बार उसे कहीं अच्छी-सी नौकरी मिल जाए, फिर वह सारे घर को संभाल लेगा.

घर के दमघोटू माहौल ने पढ़ाई के लिए बहुत ज़्यादा मेहनत करने पर उसे विवश कर ही दिया था. अब वह अक्सर अपनी कापियाँ-किताबें लिए बैठा रहता. आराम करता भी तो बस नाममात्र का ही.

दिसम्बर में टर्मिनल परीक्षा के दिनों में तो उसकी हालत बहुत ही खराब हो गई थी. रात को एक-एक बजे तक उसे पढ़ने के लिए कहा जाता. बाबूजी अपनी खाट उसकी चारपाई के पास ही बिछा लेते. राकेश समझ नहीं पाता था कि बाबूजी उसके बत्ती बन्द करने तक जागते रहते हैं या सो जाया करते हैं, क्योंकि पढ़ते-पढ़ते जैसे ही उसे झपकी आ जाती, बाबूजी झट से उसे उठा देते. कई बार तो रात के बारह-साढ़े बारह बजे भी उसे डाँटने लगते कि तू बार-बार सो क्यों जाता है, ठीक तरह से पढ़ता क्यों नहीं.

सुबह भी चार बजे ही उसे उठा दिया जाता. नींद से उसकी आंखें भरी होतीं. उससे उठा नहीं जाता. उसे लगता कि बत्ती बन्द करके सोए हुए अभी दस-पन्द्रह मिनट ही तो हुए हैं. मगर बिल्कुल न चाहते हुए भी उसे जबरदस्ती उठना पड़ता, क्योंकि उसे पता होता था कि उसे उठाए बगैर बाबूजी चुप बैठने वाले नहीं.

रात को या सुबह जितनी देर वह अपने बिस्तर में बैठकर पढ़ता होता, बाबूजी उसकी तरफ़ ही मुँह करके सोते. देखने पर उसे बाबूजी की आँखें बंद ही लगतीं पर फिर भी उसे हरदम लगता रहता कि बाबूजी सो नहीं रहे, सोने का नाटक कर रहे हैं और उस पर कड़ी नज़र रखे हुए हें कि यह ठीक ढंग से पढ़ रहा है या नहीं.

वह कड़ी नज़र उससे सही नहीं जाती थी. कभी-कभी उसे लगता कि उसे ख़ामख़्वाह वहम हो रहा है, बाबूजी तो आँखें बंद किए सो रहे हैं. पर ज़रा-सी भी झपकी आ जाने पर जब बाबूजी एकदम से उसे जगा देते तो उसे लगने लगता कि नहीं, बाबूजी जागते रहते हैं और बराबर उसकी निगरानी किया करते हैं. इसी उधेड़बुन में वह ठीक तरह से पढ़ भी नहीं पाता था.

जो-जो पेपर राकेश देकर आता, उस-उसके बारे में घर के लोग उससे इतने विस्तार से पूछते कि उसे खीझ होने लगती. जो कुछ वह पेपर में लिखकर आया होता, वह सब उसे सुनाने को कहा जाता. गणित के सवाल उससे रफ कॉपी पर निकलवाकर देखे जाते. बाकी पेपरों में भी किसी-किसी प्रश्न का कोई टुकड़ा उससे लिखवाकर देखा जाता. उसके बाद हर पेपर में आ सकने लायक नम्बरों का अनुमान लगाया जाता.

उस साल के पहले के इम्तहानों में आए उसके नम्बरों की सूची तो उसके बाबूजी ने पहले से ही बनाकर रखी हुई थी. उस सूची के साथ अब के अनुमानित अंकों की तुलना करके उसकी प्रगति का अंदाजा लगाया जाता.

इस बात पर उसे अक्सर हैरानी होती कि जितनी चिन्ता ख़ुद उसे अपने पेपरों की नहीं है, उससे ज़्यादा उसके बाबूजी कर रहे हैं.

पेपर वापिस मिलने का इन्तज़ार भी बहुत बेताबी से किया था उसके बाबूजी ने. जो-जो पेपर उसे मिलता जाता, उस-उसके बारे में उसकी प्रगति का विश्लेषण करना वे फिर से शुरू कर देते. अगर किसी पेपर में उसके नम्बर अच्छे आए होते तो उसकी पीठ नहीं ठोकी जाती थी. बस यही कहा जाता कि असली मज़ा तो तब आए, जब इससे भी ज़्यादा नम्बर लेकर दिखाओ. ज़्यादातर पेपरों में उसके नम्बर पहले से अच्छे ही आए थे. लेकिन अगर किसी में पहले से कम आए होते, तब तो बस उसकी शामत ही आ जाती. बाबूजी उससे कहने लगते, ‘‘तुझे भगवान का वास्ता है! मैं पहले से ही दुखों के पहाड़ के नीचे डूबा हुआ हूँ. मेहरबानी करके मुझपे और जुल्म मत ढा. इससे ज्यादा सहने की ताकत नहीं है मुझमें?’’ यह सब कहते-कहते उनकी आवाज आवाज कम और गिड़गिड़ाहट ज्यादा बन जाती.

राकेश समझ नहीं पाता था कि एकाध पेपर में बाकी पेपरों के औसत 82 प्रतिशत अंकों के मुकाबले 74 प्रतिशत अंक लेकर उसने बाबूजी पर कौन सा जुल्म ढा दिया है? कुल मिलाकर तो उसके अंक तीन महीने पहले हुई परीक्षा के अंकों से ज़्यादा ही थे. उसे लगता कि इस तरह तो उसके बाबूजी एक दिन पागल ही हो जाएंगे. लेकिन वह कर भी क्या सकता था. मजबूर था. ज़्यादा-से-ज़्यादा वह उन्हें समझा ही सकता था. लेकिन किसी बात पर बहस करके वह उनकी नाराज़गी मोल लेना भी नहीं चाहता था. घर में दिन-रात चलते तमाशे में बस कठपुतली बनकर चुपचाप नाचते रहने के अलावा और कोई चारा उसके पा रह नहीं गया था.

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‘‘राकेश! यह बोरी तो साइकिल पर रखवा दे जरा. फिर तू पढ़ते रहना. गेहूं मैं खुद पिसवा लाऊँगा.’’ बाबूजी थे. राकेश से आजकल वे घर का कोई काम नहीं करवाया करते थे. घर के बाकी सब जनों को भी उन्होंने ऐसा ही करने की हिदायत दे रखी थीं. वजह इसकी यही थी कि राकेश की वार्षिक परीक्षा में सिर्फ दो महीने बाकी रह गए थे और उसके बाबूजी चाहते थे कि पढ़ाई के लिए राकेश के ज़्यादा-से-ज़्यादा वक़्त मिला करे और उसकी पढ़ाई में कोई बाधा न पड़ा करे.

पढ़ते-पढ़ते राकेश उठकर आया और बोरी उठवाने में बाबूजी की मदद करने लगा. मगर बोरी उससे उठाई ही नहीं जा रही थी. उसे लग रहा था जैसे बोरी में मनों बोझ हो. बड़ी मुश्किल से उसने बोरी साइकिल पर रखवा तो दी, पर इतने में ही उसकी साँस बेतरह फूल गई थी. उसने जल्दी से अपना मुँह दूसरी तरफ फेर लिया ताकि उसके बाबूजी को उसकी ऐसी हालत का पता न चले.

पिछले कुछ दिनों से वह काफी कमज़ोरी-सी महसूस करने लगा था. हर वक़्त थका-थका-सा रहता. शायद ज़्यादा पढ़ाई करते रहने की वजह से उसमें कमज़ोरी आ गई होगी - उसे लगा था. इसलिए अपनी पढ़ाई कुछ हद तक कम करने की बात उसने सोची थी. पर घरवाले उसे ऐसा करने देते तब न! वे तो हमेशा उस पर तलवार की तरह लटके रहते थे. जब भी वे उसे पहले से कुछ कम पढ़ाई करते देखते, बस शुरू हो जाते भाषण झाड़ने. अब बेचारा राकेश क्या कहता उन्हें? अगर अपनी कमजोरी की बात वह उन लोगों को बता देता, तो इससे घर के बाकी सब जने तो चाहें इतने विचलित न ही होते, लेकिन उसके बाबूजी तो पागल-से हो उठते.

अपनी कमज़ोरी कुछ ज़्यादा बढ़ती देख उसने किसी तरह पढ़ाई कुछ कम कर ही दी थी. मगर अपनी कमज़ोरी में कोई सुधार होता उसे फिर भी नहीं दीख रहा था. अब तो उसे खाँसी भी रहने लगी थी, जिसमें बलगम भी आती. बलगम में ख़ून के क़तरे भी उसने कई बार देखे थे. सुबह उठने पर तबीयत बहुत भारी-भारी-सी लगती उसे. अपनी छाती में हल्का-हल्का दर्द उठता भी उसने अक्सर महसूस किया था. इसके अलावा भूख भी काफी कम हो गई थी उसकी.

न जाने कौन सी बीमारी हो गई है उसे, वह इसी चिंता में घुलता रहता. आख़िर घबराकर एक दिन अपने ये सब लक्षण उसने विज्ञान की किताब के बीमारियों वाले पाठ में मिलाकर देखे थे. किताब के मुताबिक ये लक्षण फेफड़ों की तपेदिक के थे. मगर उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उसे तपेदिक हो गई है. मन में बार-बार सिर उठाती तपेदिक हो जाने की आशंका को वह हर बार जबरदस्ती दबा देता, क्योंकि उसे पता था कि अगर वाकई ऐसा हुआ तो उसके बाबूजी तो इस बात को बर्दाश्त ही नहीं कर पाएंगे. वे तो जीते जी मर जाएंगे.

इसलिए वह जबरन अपनी खाँसी को दबाए रखता, हमेशा चुस्त दीखने की कोशिश करता और पहले की तरह हर वक़्त पढ़ाई-लिखाई में ही लगा रहता. ज़्यादा खाँसी आने पर अगर घर में कोई उससे इस बारे में पूछता भी, तो वह टाल जाता. कह देता, ‘‘यूँ ही आजकल गला ज़रा खराब है न इसलिए.’’

घरवालों से छुपाकर उसने कई बार थर्मामीटर लगाकर भी देखा था. अकसर उसे थोड़ा-थोड़ा बुख़ार होता. तपेदिक हो जाने का उसका शक धीरे-धीरे पक्का होता जा रहा था. मगर उसे समझ नहीं आ रहा था कि ऐसे में उसे करना क्या चाहिए. कभी वह सोचता कि उसे खुद डॉक्टर के पास जाकर अपनी जाँच करवा लेनी चाहिए. पर उसी वक़्त यह बात भी उसके दिमाग़ में आ जाती कि अगर वाकई उसे तपेदिक हुई तो इलाज के लिए ज़रूरी ढेर से रुपयों का बंदोबस्त कैसे होगा? इसके अलावा ठीक होने तक हुई पढ़ाई के नुकसान को कैसे पूरा कर पाएगा वह? ऐसे में उसके घरवालों, ख़ासकर उसके बाबूजी पर क्या बीतेगी? सोच-सोचकर उसका सिर चकराने लगता.

कभी-कभी उसके जी में यह भी आता कि वह अपने घरवालों को सारी बात बता दे. ऐसे में उसकी पढ़ाई का एक बहुत कीमती साल चाहे ज़रूर खराब हो जाएगा, पर कम-से-कम उसका इलाज तो सही ढंग से हो पाएगा न! लेकिन अपने बाबूजी के करूण और दयनीय चेहरे की कल्पना ही उसके इस विचार को बहुत पीछे धकेल देती.

कभी-कभी उसे यह भी लगता कि कहीं उसे तपेदिक हो जाने का वहम ही न हो. ये सब लक्षण किसी छोटी-मोटी बीमारी के भी तो हो सकते हैं. यह ख़याल आते ही उसकी आँखों के आगे यह सपना तैरने लगता कि वह डॉक्टर के पास गया है जिसने जाँच करके बताया है कि उसे तो एक मामूली-सी बीमारी है. तपेदिक-वपेदिक बिल्कुल नहीं है. इस ख़याल के साथ ही उसके होठों पर एक मुस्कुराहट-सी तैरने लगती. पर ऐसा सपना बस चन्द पलों के लिए ही उसका मेहमान रहता. अगले ही क्षण दिनोंदिन बिगड़ती जा रही उसकी हालत तपेदिक ही होने की आशंका को और भी पक्का कर देती और उस आशंका के बोझ तले वह दबता चला जाता.

इसी उधेड़बुन में वह कोई फैसला नहीं कर पा रहा था और दिन बीतते जा रहे थे. साथ ही उसकी हालत भी बद से बदतर होती जा रही थी. पढ़ाई करना तो अब उसे बहुत मुश्किल काम लगने लगा था. स्कूल में वह बस गुमसुम-सा बैठा रहता और घर में भी किताब आगे रखे पढ़ते रहने का नाटक किया करता.

एक सुबह जब राकेश के बाबूजी नहाकर गुसलखाने से निकले, तो उन्होंने देखा कि घर के लोग घबराए-से राकेश के इर्द-गिर्द जमा हैं और वह चारपाई पर औंधे मुँह लेटा खून की उल्टी कर रहा है. यह सब देखते ही उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई.

आख़िर किसी तरह मिल-जुलकर घर के सभी जने राकेश को अस्पताल ले गए. सब बेहद घबराए हुए थे. पर राकेश के बाबूजी पर तो मानो मुर्दनी छा गई हुई थी.

अस्पताल में राकेश की पूरी जाँच हुई. उसे वहीं भर्ती कर लिया गया. अगले दिन सभी रपटें आ जाने पर डॉक्टरों ने बताया कि राकेश को फेफड़ों की तपेदिक है. सुनते ही राकेश के बाबूजी तो मानो ज़िन्दा लाश बन गए. घर के बाकी जनों पर भी मुर्दनी छा गई.

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राकेश के बाबूजी अपनी सामर्थय से भी बढ़कर उसका इलाज करवा रहे थे, लेकिन इसके बावजूद उसकी हालत दिनोंदिन बिगड़ती चली जा रही थी क्योंकि जिस वातावरण में वह रह रहा था वह कतई स्वास्थ्यवर्द्धक नहीं था. उसके बाबूजी उसके सामने हमेशा रोनी सूरत लिए ही आते. उसके सामने ही दूसरों से कहते रहते, ‘‘हम तो लुट गए! बरबाद हो गए! क्या-क्या सपने देखे थे और क्या हो गया! इससे अच्छा तो भगवान मुझे यह खतरनाक बीमारी लगा देता.’’ बाबूजी का राकेश को दिलासा दिलाना तो दूर रहा, उल्टे दूसरों को उन्हें हिम्मत बंधानी पड़ती. बाबूजी की बातों से घर के बाकी जनों का रहा-सहा हौसला भी ढहने लगता.

फलस्वरूप इलाज के दौरान राकेश हरदम अपनी पढ़ाई, नौकरी और बाबूजी की चिन्ता में ही डूबा रहता. सारा दिन उसे यही फ़िक्र रहती कि उसकी बीमारी की वजह से उसके बाबूजी के दिल पर न जाने क्या बीत रही होगी. क्या पता अब वह ज़िन्दा भी रह पाएगा या नहीं. और अगर वह मर गया तो उसके परिवार पर क्या बीतेगी? उसकी बहनों की शादी कैसे हो पाएगी? उसके बाबूजी और माँ को बुढ़ापे में कौन संभालेगा? इन्हीं चिन्ताओं में वह सारा दिन घुलता रहता.

और फिर एक दिन सफेद चादर से ढकी राकेश की लाश अस्पताल की चारपाई पर पड़ी थी. घर के सभी लोग उसे घेरे खड़े थे और बिलख रहे थे. ख़ून करके कुछ लोग पछताते भी तो हैं न.

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