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खौलते पानी का भंवर - 3 - दिहाड़ी

दिहाड़ी

उसकी घड़ी पौने दस बजा रही है जब वह अपने दफ़्तर के भवन में दाखिल हुआ है. हालाँकि दफ़्तर लगने का वक़्त नौ बजे है, मगर उसके चेहरे पर हड़बड़ी का कोई भाव नज़र नहीं आ रहा. दूसरी मंज़िल पर स्थित अपने कमरे में जाने के लिये सीढ़ियाँ चढ़ने की बजाय वह आराम से लिफ्ट की लाइन में लग गया है और आगे-पीछे नज़रें घुमाकर देखने लगा है कि लाइन में कोई लड़की-वड़की तो नहीं खड़ी.

थोड़ी देर बाद सुस्त चाल से चलते हुए उसने अपने सेक्शन में प्रवेश किया है. कमरे से शोरगुल और हँसी-ठहाकों की हल्की-हल्की आवाज़ें बाहर तक सुनाई पड़ रही हैं. कमरे में उसके घुसते ही ‘आओ’ ‘आओ’ की दो-एक आवाज़ों ने उसका स्वागत किया है. बहुत सों को अभिवादन करता व बहुत से अभिवादन स्वीकारता वह अपनी सीट की ओर बढ़ने लगा है.

अपना बैग एक कोने में रख वह सीट पर बैठकर सुस्ताने लगा है. सेक्शन का वातावरण पहले की बजाय आज कुछ ज़्यादा ही शोर भरा है, क्योंकि कपूर साहब यानी कि सेक्शन ऑफीसर (एस.ओ.) आज छुट्टी पर हैं. हाज़िरी रजिस्टर किसी ने उसी की मेज़ पर रख दिया हुआ है. कपूर साहब होते तो साढ़े नौ तक उसका इन्तजार करके रजिस्टर कुट्टी साहब यानी कि अंडर सेक्रेटरी (यू.एस.) के पास भिजवा देते. चलो साइन तो मार ही दें, सोचते हुए उसने अपने बैग में से पैन निकालना चाहा है, पर शायद आज उसे वह घर पर ही भूल आया है. अपने करीब बैठने वाले एल.डी.सी., आज़ाद, की मेज़ पर पड़ा बॉलपैन उठाकर उसने नौ बजे के साइन मार दिए हैं और जम्हाई लेकर उठ खड़ा हुआ है.

कोने की मेज़ पर सेक्शन में उपस्थित बाकी जने ताश पीट रहे हैं और सेक्शन का चपरासी मगनराम हरेक की मेज़ से गिलास उठा-उठाकर उसमें चाय डालता हुआ हरेक को देता जा रहा है.

‘‘ला भई, मुझे भी चाय दे दे मगना!’’ उसने चिल्ला कर मगनराम से कहा है.

‘‘आ रहा हूं. रूक जाओ’’ सूखा-सा जवाब आया है.

कुछ देर बाद वह चाय का गिलास थामे ताश खेलनेवालों के पास जा खड़ा हुआ है. बाज़ी अभी शुरू ही हुई, इसलिए उसके खेलने की बारी अभी कुछ देर तक आने की कोई उम्मीद नहीं.

तभी खेलते-खेलते यादव, जो सेक्शन का सबसे वरिष्ठ सहायक है और एस.ओ. की गैर हाज़िरी में सेक्शन का काम देखा करता है, उससे कहने लगा, ‘‘यार अग्रवाल, जरा एस.ओ. की टेबल पर आई डाक तो देख लो. कोई चीज़ अर्जेन्ट न हो.’’

‘‘देख लो यार, खुद ही देख लो. मैं जरा बाहर जा रहा हूं.’’ कहते हुए उसने चाय का अंतिम घूँट भरा और गिलास को अपनी मेज़ पर पटककर दरवाज़े से बाहर हो गया है.

कमरे से बाहर निकलते ही उसे मिस्टर बजाज सामने से आते दीखे हैं. वे एक प्राइवेट कम्पनी में अधिकारी हैं और उनका एक केस वही डील कर रहा है. उसे देखते ही मिस्टर बजाज ने बड़े अदब से उसका अभिवादन किया है. कृपापूर्वक उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया है हाथ मिलाने के लिए.

‘‘क्यों साहब, हमारा केस क्लीयर हो गया क्या?’’ मिस्टर बजाज उससे बड़ी आजिज़ी से पूछ रहे हैं.

‘‘अभी तक तो नहीं हुआ, पर उम्मीद है आज शाम तक फाइल कुट्टी साहब से वापस आ जाएगी.’’

‘‘तो मैं कुट्टी साहब से बात करूं?’’

‘‘अरे नहीं बजाज साहब, ऐसा ना करना. साहब चिढ़ जाएंगे. आज सुबह भी मैंने उन्हें केस जल्दी क्लीयर करने को कहा है. थोड़ी देर बाद फिर किसी बहाने से बात करूँगा. अभी तो मैं जरा चाय-वाय पीने निकला था. सुबह से काम में लगे हुए हैं.’’ वह थकावट का अभिनय करते हुए कह रहा है.

‘‘तो आइए अग्रवाल साहब, कॉफी हाउस चलते हैं.’’

वे दोनों कॉफी हाऊस पहुँचे हैं. कॉफी के साथ सेंडविच भी मँगवा लिए हैं बजाज साहब ने, जिन्हें वह चप-चप करके खाने लगा है. साथ ही कॉफी भी सुड़कता जा रहा है.

‘‘तो शाम तक लेटर मिल जाएगा न?’’ बजाज साहब उससे पूछ रहे हैं.

‘‘शाम तक तो नहीं, कल सुबह पता कर लेना आप.’’ कहते हुए अगले दिन भी बजाज साहब के साथ कॉफी हाऊस आने की बात उसके दिमाग़ में घूम रही है.

सुनकर बजाज साहब मुस्कुराते हुए बड़ी आजिज़ी से कहने लगे हैं, ‘‘ठीक है अग्रवाल साहब, कल दस-सवा दस बजे मैं हाज़िर हो जाऊंगा.’’ इस बात का पता उन्हें भी हैं कि इस काम के लिए अग्रवाल को एक बार तो और कॉफी हाउस लेकर आना ही पड़ेगा.

थोड़ी देर बाद कॉफी हाऊस के बाहर बजाज साहब से हाथ मिलाकर विदा लेते हुए वह उन्हें कह रहा है कि जरा चलूँ, काफी अर्जेन्ट काम टेबल पर पड़ा है. उनसे विदा लेकर वह बाथरूम में घुस गया है. डेढ़-दो मिनट बाद वहाँ से निकलकर यह सोचते हुए कि अब तक तो बजाज कहीं इधर-उधर हो गया होगा, उसने अपना रूख भवन के बाहर बने लॉन की तरफ कर दिया है.

बाहर गुनगुनी धूप में घास पर अनेक झुंड दिख रहे हैं - ताश पीटते हुए, गपियाते हुए, ऊँघते हुए, वगैरह-वगैरह. वह भी एक तरफ जाकर लेट गया है ओर करवट बदलकर सोने का उपक्रम करने लगा है.

काफी देर बाद उसकी नींद खुली है. एक-दो मिनट तो वह आँखें बंद किए-किए धूप की गुनगुनाहट का मज़ा लेता रहा है. फिर उसने कलाई घड़ी देखी है. एक बजने वाला है. ‘अरे, लंच टाइम तो निकल ही गया!’ सोचते हुए वह झटके से उठ बैठा है.

अपने सेक्शन में जब वह पहुँचा है, ताश खेलनेवाले सिर्फ दो जने ही रह गए हैं. एक और जना मेज़ पर फाइलों का तकिया बना नींद का मज़ा लूट रहा है. बाकी लोग खाना-वाना खाकर शायद धूप और आँखें सेकने के लिए बाहर चले गए हैं. उसने अपना खाना हीटर पर गर्म करना रख दिया है और ताश खेलनेवालों के पास जाकर खड़ा हो गया है.

थोड़ी देर बाद जब तक उसने अपना खाना खत्म किया है, तब तक सेक्शन के बाहर गए हुए लोग वापिस आने लगे हैं. एकाध जने को छोड़कर बाकी सब फिर से ताश पर जुट गए हैं.

अचानक उसे याद आया है कि कुछ ज़रूरी फोन करने तो उसे याद ही नहीं रहे. उसने पहले वही करने की सोची है और रिसीवर उठाकर नंबर डायल करने लगा है. गैस एजेन्सी को गैस सिलिंडर रिफिल के लिए कहने, गगन सिनेमा में आनेवाले शनिवार के लिए अस्सी रुपए वाली चार टिकटें बुक करने, दो-तीन दोस्तों से ‘क्या हाल है?’ ‘क्या हो रहा है?’ जैसे कुछ फोन करके वह करीब आधा घंटा बाद फोन के पास से हटा है. उसने घड़ी देखी है. तीन बजने वाले हैं. पहले उसका जी किया है कि घंटा-आध घंटा ताश खेल ली जाए, पर फिर यह इरादा उसने छोड़ दिया है.

तब अपनी मेज़ के पास जाकर बजाज साहब वाली फाइल, जो कल ही क्लीयर होकर कुट्टी साहब से वापस आ गई थी, उसने अपनी मेज़ की दराज में बंद कर दी है. फिर अपना बैग उठाया है और यादव से कहने लगा है, ‘यार यादव, मैं छुट्टी कर रहा हूँ. यू.एस. पूछे तो कह देना तबीयत खराब थी, चला गया.’

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