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एक और दमयन्ती - 13

उपन्यास-

एक और दमयन्ती 13

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

तेरह

दो-तीन दिन तक भगवती निक्रीय पड़ा रहाँ तीसरे दिन भगवती सुनीता से मिलने थाने पहुँचा।उसके पास एक सिपाही आया और बोला-

‘बड़े साहब ने आपके निवेदन पर सुनीता से मिलने की अनुमति दे दी है कि आप सुनीता से मिल सकते हैं।’ यह कहकर वह चला गया।

भगवती मन ही मन बड़बड़ाया-

‘सुनीता तुमको कैसे बचाया जा सकता है। तुमने तो सभी कुछ सच-सच स्वीकार कर लिया। अब मैं क्या करुं।’

सोचते हुए मिलने के लिए उठ खड़ा हुआ। दिन के ग्यारह बज चुके थे। वह सीधा कोतवाली इन्चार्ज के ऑफिस में पहुँच गया। साहब कुर्सी पर बैठे थे। किसी से बातें कर रहे थे। उसे अन्दर आते हुए देखकर चिल्लाए-

‘बिना पूछे तुम अन्दर कैसे चले आए।’

‘सॉरी सर, मैं सुनीता..........से मिलना चाहता हूँ।’

‘ओ ..........ओ तो तुम उसके पति हो। भई वह अपना अपराध स्वीकार कर चुकी है।’

‘साहब कुछ हो सके तो ............।’

‘क्या हो सकता है? तुम हो कि अब आ रहे हो जबकि तुम्हें तो हमारे पास पहले ही आना चाहिए था।’

‘अरे साब, आपके हाथ में सब है।’ बेचारी ने विवश होकर ही ............।’

‘हाथ से क्या होता है? इसने एक भले आदमी की निर्मम हत्या कर दी और श्रीमती जी तीर्थ करने भाग रही थीं।

‘सर, उसने तो स्वयं ............।’

‘स्वयं तुम्हारी पत्नी ही आई है या और कोई भी आता है। अपराध करके सभी भाग जाते हैं। पकड़ में आने पर सभी स्वेच्छा से अपना अपराध स्वीकार करना बतलाते हैं। वह तो पुलिस को सुराग लग गया नहीं तो ़ ़ ़।

फिर भई मेरा प्रमोशन ड्यू है। शायद यहाँ मेरा यह अन्तिम केस है। उसकी हत्या जानबूझ कर की गई है और बेचारे भले आदमी केा मारकर पखाने के गटर में डाल दिया गया। वह तो तुम खैर मनाओ, हमने तुम्हें छोड़ दिया है।’

‘साब ..........?’

‘साहब क्या करें, भई अपने भी बाल-बच्चे हैं। उन्हें भी पालना है।’ भगवती समझ गया ‘साहब सुविधा शुल्क मांग रहे हैं। नही ंतो बच्चे कैसे पलेंगे।’

यह सोचकर भगवती बोला-‘साब गरीब आदमी हूँ।’

यह सुन वे झट से बोले-यहाँ सभी गरीब आदमी आते हैं। हत्या करते समय नहीं सोचते कि हम गरीब हैं।’

‘साब मैं आपकी क्या सेवा करुं ?’

‘अरे क्या घूस देना चाहते हो, तुम्हें मालूम होना चाहिए, मैं कुछ भी लेता-वेता नहीं हूँ। तुम्हारी यह कहने की हिम्मत कैसे हो गई ?’

‘साब पुलिस में लेना-देना सब जगह चलता है।’

‘छोड़ो यह बातें, तुम अपना काम देखो। मुझे अपना काम करने दो। व्यर्थ समय बर्बाद न करें।’

‘मैं सुनीता से मिलना चाहता हूँ।’

‘भई वैसे तो मिलने देने का कोई नियम नहीं है। बहुत बड़ी अपराधिन है। खैर, पांच मिनट तक तुम उससे बातंे कर सकते हो।’

‘यह कहकर वे जोर से बोले-‘सिपाहीऽऽऽ‘?

यह सुनकर एक सिपाही अन्दर आया, बोला-‘क्या साब ?’

‘इन्हें सुनीता से पांच मिनट तक मिलवा दो।’

‘जी सर।’

अब उस सिपाही ने भगवती की ओर इशारा किया-‘चलिए।’

भगवती उसके पीछे-पीछे चल दिया। कैद कोठरी में सुनीता बन्द थी।

लोहे के फाटक की जाली में से सुनीता दिख पड़ी। भगवती पास में पहुँच गया। उधर से सुनीता उसे देखकर पास आ गई। भगवती के मुँह से शब्द निकला-

‘सुनीता।’

सुनीता कुछ नहीं बोली। मात्र आंखों में आंसू भर आए। दोनों चुपचाप खड़े रह गए। भगवती को समय का ध्यान हो आया। इसलिए वह झट से बोला-

‘सुनीता ये क्या हो गया ?’

उत्तर में सुनीता बोली-‘क्या कहूँ। क्षमा करना। तीर्थों से आपके लिए परेशानियों का प्रसाद लेकर आई हूँ। मुझे जहाँ पहुँचना था नहीं पहुँच पाई, बीच मंजिल में ही, अटककर रह गई। द्वारिकाधीश भगवन के दरबार में पहुँची। उनका जन्म तो जेल में हुआ था ना।’

‘सुनीता तुम्हें इतना समझने के बाद भी मैं तुम्हारी थाह नहीं ले पाया।’

‘नारी की थाह को कोई ले पाया है जो आप ले पाते।’

‘सुनीता आज प्रश्न दर्शन का नहीं तुम्हें बचाने का है।’

‘मैं ..........मैं ..........अब किसी तरह नहीं बच सकती। पुलिस सच को सच भी नहीं रहने दे रही है। इस केस की सफलता पुलिस स्टेशन इन्चार्ज को प्रमोशन दिलाने वाली है। इसीलिए इस केस को उन्होंने यथावत स्थिति में नहीं रहने दिया है।

मैं स्वयं हाजिर हुई हूँ पर उन्होंने मुझे पुलिस के द्वारा गिरफ्तार करना बतालाया है। आप जानते हैं कानून अन्धा है वह गवाहों की लाठी के सहारे चलता है और गवाह पुलिस बनाती है।’

‘हाजिर होने से पहले सुनीता तुमने मुझे बता दिया होता तो यह केस मैं अपने ऊपर ले लेता।’

‘इसी डर से मैं तुम्हें कुछ भी बताए बिना, यहाँ चली आई। मुझे जो सजा मिलना चाहिए। मिलनी चाहिए। मन को शान्ति तभी मिल सकेगी।’

‘मन की शान्ति के लिए हम यहाँ तक भागकर आए, पर वह यहाँ भी नहीं मिल सकी।’

‘हम जैसे लोगों का यह दुर्भाग्य ही रहा है पर आप रो क्यों रहे हैं। आप जैसा बाहादुर आदमी भी रोने लगे तो ..........।आपको हिम्मत से काम लेना चाहिए।’

सिपाही ने भगवती से कहा-श्रीमान समय हो गया, चलिए।’

‘समय तो बहुत पहले हो गया था, चलिए ..........अच्छा सुनीता देखें किस्मत ............।’ बात पूरी किए बिना चला आया।

आज उसका मन काम पर जाने को नहीं था। आज सोचने की श्रृंखला चल पड़ी थी-सुनीता वाली कोठरी तो मुझे मिलनी चाहिए थी। महेन्द्रनाथ को यहाँ आते-जाते, मैंने कभी नहीं देखा। यह यहाँ मरने क्यों चला आया? साले ने सुनीता की इज्जत पर हाथ डालना चाहा होगा, लगा दिया ठिकाने। अब किसी वकील के पास चलूं, लेकिन पैसा नहीं है पास । जो था सुनीता तीर्थयात्रा पर ले गई थी। जब वह स्वयं अपना अपराध स्वीकार कर रही है फिर कोई वकील भी इसमें क्या करेगा ?

दुनिया में ऐसे कम लोग होते हैं जो अपना अपराध स्वीकार कर पाएँँं। यदि कोई अपना अपराध स्वीकार कर लेता है तो यह सच है वह आगे आने वाले जीवन में उस पाप का प्रायश्चित करना चाहता है। अपराध स्वीकार करना, पाप के प्रायश्चित की तैयारी है। प्रायश्चित मानव मन की खराद है। मन रुपी स्वर्ण को कसौटी पर कसने से ही उसके असली रुप को पहचाना जा सकता है।

भगवती का मस्तिश्क काम नहीं दे रहा था। बेचैनी दूर करने के लिए उसने सिगरेट सुलगा ली। अब जीवन की इस भयानक गुत्थी को सुलझाने का उपाय ढूंढने लगा। इसी समय एक पड़ोसी मित्र आए। वे आकर बैठ गए, बोले-‘भाई, साहब सुनीता भाभी बड़ी बहादुर औरत हैं ! हमने तो ऐसी औरत न देखी, न सुनी। सारे शहर में उसका नाम हो गया है। भैया उसे कैसे भी बचा लो। उसने यह हत्या यों ही नहीं कर दी होगी। अत्याचारी को मारना पाप नहीं है।’

‘यह तो मैं भी जानता हूँ। पर पैसे की समस्या सामने है। जो था उसे तीर्थयात्रा पर जाते समय साथ ले गई। अब घर में फूटी कौड़ी भी नहीं है।’

‘भैया सौ-दो सौ की बात हो तो मुझ पर पड़े हैं कौन भाग जाते हो ? और हाँ, आज का पेपर देखा ?’

‘नहीं तो।’ भगवती ने उत्तर दिया।

‘ये अखबार वाले भी क्या हैं ? जिस दिन से ये काण्ड हुआ है रोज कुछ न कुछ दे रहे हैं। उन्हें तुम्हारे केस से मतलब नहीं है। किसी न किसी बहाने उनका तो अखबार बिकना चाहिए। सुनते हैं अखबारों की इन दिनों खूब बिक्री बढ़ी है।’

‘अच्छा है बीच में भी अपना लाभ कमा जाएं, वैसे अखबारों को तो दूध का दूध और पानी का पानी करना चाहिए, पर ये भी पुलिस का साथ देते हैं।’

‘क्या कहें भइया व्यवस्था ही कुछ ऐसी हो गई है।’

यह कहकर उन्होंने अपनी घड़ी पर नजर डाली और बोले-‘ऑफिस में जरा काम है देर हो गई तो ऑफिस बन्द हो जाएगा।’ कहते हुए चले गए।

भगवती फिर अकेला रह गया। वह उठा, किवाड़ बन्द किए और निश्चिन्त होकर बिस्तरे पर लेट गया। चेतना शून्य पड़ गया। थोड़ी देर बार चेतनासी आई, घर के बाहर कुछ आहट सी महसूस हुई। निगाह खिड़की की ओर गई। खिड़की में से एक कागज का टुकड़ा दरांच में से अन्दर आते हुए दिखा। भगवती ने झट से उसे उठाया। पढ़ा। उसमें लिखा था-

‘उसे बचाने का प्रयत्न करो। तुम्हारा इस तरह पड़े रहना मुझे बहुत खल रहा है, उठो नही ंतो ............।’

इस खाली स्थान में नहीं तो तुम्हें भी मार डालूंगा। नही ंतो तुझे भी इसी केस में फंसा दूँगा। और नहीं तो..........। के आगे तो सब कुछ जोड़ा जा सकता है। उसने झट से उठकर अपने घर के सामने का दरवाजा खोला। बंगले के चारों ओर निगाह दौड़ाई। उसे कोई नहीं दिखा। अ बवह आकर पुनः उसी बिस्तर पर बैठ गया।

अब की बार वह गहरे में डूब गया-

‘सुनीता किसी अपराधी पार्टी से सम्बन्धित तो नहीं है। कौन हो सकता है जो सुनीता को बचाना चाहता है? निश्चित सुनीता के ऊपर किसी का साया अवश्य है, पर सुनीता तो कहती रही है कि उसके और कोई नहीं है। अभी सुनीता ने अपराध स्वीकार किया है वह अपने जीवन की शेष बातें न्यायालय में ही कहेगी। न्यायालय में तो एक-एक बात की ऐसी खींचातानी होती है कि उसे सच बोलने पर भी पता नहीं क्या-क्या सहना पड़ेगा।

ऐसी-ऐसी बातें सामने आएंगी जो उसने मुझे भी नहीं बतलाई होंगी। मुझसे तो हत्या तक छिपा गई। क्या-क्या न छिपाया होगा उसने मुझसे ? एक प्रश्न बार बार आता है। कौन है जो मेरे अलावा उसे बचाना चाहता है? नहीं तो ..........क्या करेगा ? शायद इस पर्ची को लिखने वाला अधिक समझदार है। नहीं तो ..........। के माध्यम से वह क्या नहीं कह गया।

सुनीता, सुनीता के बिना यह घर काटने दौड़ रहा है। यह बिस्तर यह दर्पण। सुनीता के वस्त्र। हम दोनों का एक साथ खिंचा यह चित्र। इस चित्र ने मुझे अपनी ओर कितना आकर्शित कर लिया है। मुझे उसे बचाने का प्रयास करना चाहिए। मैं हूँ कि बिस्तर पर पड़कर रह गया हूँ। उसके बिना तो मेरा जीवन ही बेकार है।’

इसी क्रम में सोचते-सोचते बिना कुछ खाए-पिए जाने कब की नींद लग गई।

रात में उसकी नींद खुली। अनमने मन से उठा। लाईट जल ही रही थी। निगाह उसी जगह पर गई जहाँ से उसने वह चिट उठाई थी। वहाँ एक दूसरा पत्र पड़ा था। उसने झट से पत्र उठाया। पत्र बन्द था। विधिवत गोंद से अच्छी तरह बन्द किया गया था। ऊपर लिखा था। ‘भगवती के लिए‘ उसने उसे फाड़ा। एक पत्र निकला। वह पत्र पढ़ने लगा। लिखा था-

‘तुम मेरा पहला पत्र पाकर घबड़ा गए होगे। मैं तो बस इतना चाहता हूँ कैसे भी सुनीता को बचाया जाए वह पूर्ण निर्दोश है। सुपथ पर चल रही है। तुम उसे न बचा सके तो मुझे अपना खून देकर उसे बचाना पड़ेगा। इस पत्र को किसी को न बतलाना नहीं तो ............।’

नहीं तो पढ़कर भगवती बड़बड़ाया, फिर वहीं नहीं तो ..........। इससे तो यह मुझे इस बार डराना चाहता है। जिससे में उसे डरकर बचा लू। अब उसने पत्र को दोहराया। ‘वह पूर्ण निर्दोश है सुपथ पर चल रही है।’ पर ठहर गया। यहाँ प्रश्न खड़ा होता है खून सुनीता ने नहीं किया है।

सुनीता फिर अपराध स्वीकार क्यों कर रही है। वह निर्दोश हो ही नहीं सकती। यह पत्र बकवास है। उसे कोई नहीं बचा सकता। उसके लिए चाहे कोई खून दे। फांसी पर चढ़े, पर सुनीता को बचाया नहीं जा सकता। उसे कोई बचा ले।

मुझे तो एक प्रतिशत भी आशा नहीं दिखती। मैं जाकर कहूँ यह खून सुनीता ने नहीं, मैंने किया है तो कौन इसे स्वीकार करेगा ? मेरी इस बात पर सभी कहेंगे मैं उसे बचाना चाहता हूँ। वह है कि अपराध स्वीकार करे बिना मानने की नहीं। अब तो इस वफादार को ही देख लेता हूँ उसे कैसे बचाता है?

एक बात जरुर लग रही है कि सुनीता को कोई मेरे से अधिक प्यार करता है। तभी तो वह उसके लिए खून-पसीने की बात लिखता है। मैं हूँ कि उल्टी-सीधी बातें सोचने में समय बर्बाद कर रहा हूँ। अब की बार भगवती ने उस पत्र को अच्छी तरह तीन-चार बार पढ़ा।

अब तो वह एक ही निश्चय पर पहुँचा। सुनीता को बचाने का प्रयास पूरे मन से किया जाना चाहिए। हो सकता है वह बच जाए। यह सोचते ही उसके सामने महेन्द्रनाथ का चेहरा आ गया। सुनीता महेन्द्रनाथ को जानती थी। तभी तो वह यहाँ आता था। सुनीता ने पुलिस के सामने क्या-क्या स्वीकार किया है? कुछ पता भी तो नहीं चल रहा है। महेन्द्रनाथ मारा क्यों गया ?

निश्चय ही तनाव उत्पन्न हुआ होगा। हाथापाई का अवसर आया होगा। हो सकता है महेन्द्रनाथ ने सुनीता की इज्जत लूटना चाही हो और सुनीता ने विरोध किया हो। इसलिए उसने मुझे नहीं बतलाया। वह मुझे बतलाती। मैं बात में से बात निकालता। छोड़ो जो हुआ अब तो उसे बचाना है। चाहे जैसे बचे।

यह सोचकर उसने घड़ी पर नजर डाली। सुबह के छह बज रहे थे। वह उठा और दैनिक कार्यों से निवृत होने चला गया। उसने निश्चय किया, आज ड्यूटी पर नहीं जाऊंगा। वकील करना आवश्यक है। वकील को सभी बातें बतलानी पड़ेंगी।

सुनीता की बहादुरी की प्रशंसा भी करनी पड़ेगी। मुझे तो आश्चर्य होता है सुनीता इतना बड़ा कार्य कैसे कर गई ? शायद उसके साथ कोई और भी रहा हो। एक अकेले आदमी की इतनी हिम्मत नहीं है। सुनीता छिपा रही है। सारा केस उसने अपने ऊपर ले लिया है। बिना सहयोग के उसे मारना फिर लाश ठिकाने लगाना। सारे निशान मिटा डालना आश्चर्य की बात नहीं तो और क्या है?

उस दिन मैं ड्यूटी से लौटकर आया था तो और दिनों की अपेक्षा गम्भीर दिख रही थी। सारे मकान को साफ किया था। मैं समझा था वह तीर्थयात्रा पर जा रही है घर की सुफाई इसीलिए करके जा रही है। मुझे तो लगता है पत्रवाहक का इस हत्या से सम्बन्ध होना चाहिए। सम्भव है सुनीता उसका नाम कोर्ट में ले।

जरुर कोई राज है जो पति-पत्नी के मध्य छिपा रहाँ इतना सोचते में वह सभी कामों से निवृत भी हो चुका था। उसने घड़ी पर नजर डाली। सुबह के सात बज गए। वह घर से निकल पड़ा। उसे तमाम प्रश्नों के उत्तर सुनीता से पूछने थे।

वह कोतवाली पहुँचा। पहले कोतवाली इन्चार्ज से मिला। सुनीता का आज चालान पेश किया जा रहा था। उसे सेण्ट्रल जेल भेजने के लिए कागज-पत्र तैयार किए जा रहे थे। कहने-सुनने पर उसे सुनीता से मिलने दस मिनट का समय दे दिया गया। एक सिपाही साथ गया। सुनीता उसी कोठरी में बन्द थी।

लोहे के जंगले में ताला पड़ा था। भगवती बाहर खड़ा हो गया। उसे देख सुनीता पास आ गई। सुनीता ने उसे देखकर मुस्कराने का प्रयास किया। जिस तरह लोग संकटों को झेलने में साहस का परिचय देने के लिए मुस्कराते हुए बोली-‘आप सुबह-सुबह यहाँ क्यों चले आए ? यह कहने कि तुम अपना अपराध स्वीकार कयों कर रही हो ? न्यायालय में जाकर बदल जाना। आपको महसूस हो गया होगा कि मैंने बदलने के लिए अपराध स्वीकार नहीं किया है। आज तक आपसे कुछ सच्चाइयों को छिपाती रही। इसी का यह परिणाम है।’

‘आज तक सच्चाइया छिपाती रहीं एक बार और नहीं छिपा सकतीं।’

‘मेरा मन सच्चाई स्वीकार कर रहा है जी, अब मैं वही करुंगी।’

‘खिड़की के रास्ते से ये दो पत्र आए हैं बता सकती हो किसके हैं ?’

यह कहते हुए भगवती ने अपनी जेब से दोनों पत्र निकालकर सुनीता की ओर बढ़ा दिए। सुनीता ने उन्हें लिया और पुलिस वाले की निगाह बचाकर पढ़ा। भगवती को वापिस करते हुए बोली-‘मेरी समझ में नहीं आता ऐसा कौन है जो मेरा शुभचिन्तक है और अपना खून देकर मुझे बचाना चाहता है। शायद ............।’

‘शायद..........कौन ?’

‘शायद भी सम्भव नहीं लगता इसलिए छोड़ो ..........। आप इस चक्कर में मत पड़ो। मुझे किसी भी तरह बचाया नहीं जा सकता है।’

‘सुनीता तुम इस नाम को छिपा रही हो।’

‘नहीं-नहीं जी, यह बात नहीं है। अब किसी से कुछ छिपाकर क्या करना है? अब छिपाने के लिए शेष रह भी क्या गया है? मैं सच कहती हूँ, मैं कुछ भी नहीं छिपा रही हूँ।’

‘फिर ये शायद ............।’

‘वे मन चुके होंगे।’

‘वे कौन ?’

‘मेरे पिताजी। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है।’

‘जरा ध्यान से सोचो यह कौन हो सकता है?’

‘मैं इससे आगे सोच ही नहीं पा रही हूँ कि यह कौन हो सकता है? इस बात का मैं आपको कैसे विश्वास दिलाऊं।’

अब पुलिस का सिपाई पास आ गया। बोला-

‘चलिए मिस्टर आपका समय हो गया।’

यह सुनकर भगवती चुपचाप चला आया। रास्ता चलते में सोचने का क्रम चल पड़ा-‘मानव जन्म लेते ही स्वतन्त्रता का अधिकार पा जाता है, पर ये अधिकर कर्तव्यच्युत होने के साथ समाप्त भी हो जाता है।’

यह सोचते हुए वह वकील के घर की ओर चल दिया। वही सोचना फिर प्रारम्भ हो गया-‘कौन हो सकता है सुनीता की मदद करने वाला। सुनीता भी सम्भव है उसके बारे में सब कुछ जानती हो।

वह जोर-जोर से बड़बड़ाया-‘हे भगवान यह क्या हो रहा है? कहते हैं मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। उसके हजार हाथ होते हैं।’

यही सोचते हुए वह वकील के घर पहुँच गया। वकील साहब घर पर नहीं थे। वह वापिस लौट पड़ा। सोचने का क्रम फिर चल पड़ा-‘यह तो इस नगर का बहुत प्रसिद्ध वकील है जाने कितनी रकम मांगे। सुनते हैं इस वकील ने न्यायधीशों को पटा लिया है। तभी तो यह हर केस में जीतता है। लोगों की भीड़ इसीलिए इनके यहाँ लगी रहती है। इस केस में यह दस हजार से कम न लेगा। इतना पैसा कहाँ है। मुझे तो किसी छोटे वकील को तलाशना चाहिए।’

यह सोचते हुए वह घर आ गया। पेट में चूहे कूद रहे थे। अलसाये मन से उठा। रसोई में पहुँच गया। बार-बार सुनीता के होने का भ्रम होता रहाँ

खाना खाने के बाद आलस ने घेरा। हाथ-पैरों में टूटन हो रही थी। बिस्तर पर आ गिरा। पड़े-पड़े करवट बदली। उसी स्थान पर निगाह डाली। एक नोटों का बण्डल पड़ा था। पास ही एक पत्र पड़ा था। भगवती झट से उठा। वह नोटों का बण्डल और वह पत्र उठाया। पहले उसने नोट गिनना शुरु किए। पूरे दस हजार निकले। अब उसने वह पत्र खोला। उसे पढ़ना शुरु किया-

प्रिय भगवती,

मुझे यकीन तो नहीं है। पर तुमसे ज्यादा यकीन इस दुनिया में अब और किसी पर नहीं कर सकता। मेरे विश्वास को मत ढाह देना। हाँ, तुम यह जरुर सोच रहे होंगे कि यह आदमी कौन है? जो उसे बचाना चाहता है। उसे बचाने के लिए धन भी दे रहा है।

यह मैं बाद में बतलाऊंगा पर भगवती उसे बचा लो। मेरे पास अब एक पैसा भी नहीं है। मैं जीवन में जितना कर सका बस यही है। इसे यही सोचकर इकट्ठा किया था। किसी दिन इसके काम आएगा। अब तो मेरे पास बस मेरा जीवन है। तुम हो, सुनीता है।

तुम्हारा शुभचिन्तक

जना पहचाना अ ब स

भगवती पत्र पढ़कर ठगा सा रह गया। ‘यह कौन है जिसने अपना नाम लिखने की जगह अ ब स लिखा है। इन सब बातों को तो अब तक मैं बहुत सोच चुका। अब इस सम्बन्ध में सोचना बेकार है। किसी ने उसके पीछे जीवन भर की कमाई दे डाली है। मैं उसी के बारे में सन्देह करने लगा हूँ। मुकदमे के लिए इतना रुपया कम तो नहीं है। कुछ कम पड़ेगा मैं किस मर्ज की दवा हूँ। मैंने भी लोगों से सम्बन्ध बनाए हैं।

आदमी लोगों से सम्बन्ध वक्त के लिए बनाता है। अब तो उठूं, चलकर किसी होटल में चाय लूं।’ यह सोच वह घर से निकल पड़ा। आज वह खुश दिख रहा था। उसे लग रहा था सुनीता को अब निश्चित ही बचाया जा सकता है।