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गांव की तलाश - 4

गांव की तलाश 4

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

- समर्पण –

अपनी मातृ-भू के,

प्‍यारे-प्‍यारे गांवों को,

प्‍यार करने वाले,

सुधी चिंतकों के,

कर कमलों में सादर।

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

-दो शब्‍द-

जीवन को स्‍वस्‍थ्‍य और समृद्ध बनाने वाली पावन ग्राम-स्‍थली जहां जीवन की सभी मूलभूत सुविधाऐं प्राप्‍त होती हैं, उस अंचल में आने का आग्रह इस कविता संगह ‘गांव की तलाश ’में किया गया है। यह पावन स्‍थली श्रमिक और अन्‍नदाताओं के श्रमकणों से पूर्ण समृद्ध है जिसे एक बार आकर अवश्‍य देखने का प्रयास करें। इन्‍हीं आशाओं के साथ, आपके आगमन की प्रती्क्षा में यह धरती लालायित है।

वेदराम प्रजापति - मनमस्‍त -

19- समय साधय उपयोग -

प्रश्‍न खड़ा सबके सम्‍मुख क्‍या साथ निभाओगे।

पीड़ा में भी, जाति-वर्ग, क्‍या मुझे बताओगे।

प्रेम और कुर्बानी में, क्‍या बन्‍धन होता है।

राग-शून्‍य की दोनों रश्‍में, समय क्‍या ढोता है।।

स्‍वर्ग-मोक्ष की चिंता, चिंतक व्‍यर्थ, असंभव है।

इति विस्‍तृत संसार, कहां यह जीना संभव है।

शुभ लक्षण है, यदि पीड़ा, उद्विग्‍न बनाती है।

नहीं होश में अभी लोग, विश्‍लेषण पाती है।।

रहना नित गंभीर, चलन सुचि, स्‍वास्‍थ्‍य बनाता है।

समय साध्‍य उपयोग करो, यह गीत जगाता है।

जीवन सुख के लिए, क्रियाएं जीवन साथी हैं।

चलना तुम्‍हें संभलकर साथी, गीता गाती है।।

कर्मशील अबनी पर आओ, जीवन दोहराओ।

यहां कन्‍हैया की बंशी के रागों पर गाओ।

जब – जब जगे गांव की अबनी, जाति-वर्ग मैंटा।

सच्‍चा जीवन रंग-गांव में, गांवों में आओ।।

एक बार आकर तो देखो, गांवों की धरती।

जीवन में बदलाव पाओगे, सारे दुख हरती।

इतना है विश्‍वास, लौट फिर, शहर न जाओगे।

प्‍यार भरे गीतों को सुनकर, तुम हरषाओगे।।

20- शहर बीमार-

आब-हवा बिन लगा, शहर बीमार बहुत है।

मौसम की मनुहार छांव से, सदां रहित है।

मेघों की वह घोर, इन्‍द्र धनुषी कब दर्शन।

डोलत मन के मोर, मयूरी हर्षित नर्तन।।

अमुआं डारिन डरे झूलना, शहर न जाने।

नूतन मेघ-मल्‍हार, पपीहा की रस ताने।

जहां प्रकृति नहीं बसे, रोग का वहां बसेरा।

पीयरे हो जाय बदन, लगत बीमारी घेरा।।

शहरों ने गौखों में, नकली फूल सजाए।

नकली रंग से रंगे, किसी से गंध न आए।

धन-सम्‍पत्ति पर टंगे, जिंदगी नहीं पहिचानी।

नानी कहानी सुनैं, सुनी नहीं सच्‍ची कहानी।।

स्‍वास्‍थ्‍य आलयों भीड़ शहर में देखी जाती।

सभी तरफ से, घुमड़-घुमड़ बीमारी आती।

प्रकृति शुद्धता कहां कहां मनमस्‍ती गाने।

चौबीस घंटा बुनत रहत, जीवन के खाने।।

भटक गए तुम शहर, बांध कर बेड़ी पांव में।

क्‍या सोचत वहां खड़े, अभी भी आओ गांव में।

चार दिना का जीवन, हंस-हंस जियो गांव में।

बैठो यहां मनमस्‍त, अलौआ, कन्‍हेर छांव में।।

21- त्‍यौहारों की धरा -

गांव त्‍यौहार की धरती, धर्म से आस्‍था गहरी।

जहां नित गाय गोबर से, लिप रहीं द्वार की दहरी।

पूनों चैत, श्रावण अरू असाढ़ी, होलिका माघी।

संवत्‍सर गुड़ी पड़वा है, गोधन पूजा कर सांधी।।

कार्तिक, फाल्‍गुनी, श्रावण भाई दोज पुजती है।

अक्षय-तृतीया पुजती, तीज गनगौर सुहाती है।

विनायकी और संकष्‍टों, चतुर्थी गनपती पूजन।

बसन्‍ती, रंग पंचमी, मनहर मस्तियां गुंजन।।

कहीं हल षष्‍टी का पूजन, कहीं-कहीं देव छट पूजन।

मौर-मुचकुंद का पूजन, और छट प्‍यार का पूजन।।

पुजत संतान सातें भी, अष्‍टमी कृष्‍ण की पूजा।

नवमी राम, दुर्गा की, कार्तिक अमरिया पूजा।।

विजय की दशमी पुजती है, गंगा दशहरा पूजा।

निर्जला, देवशयनी और, प्रवोधनी देवउठान पूजा।।

बारस पूजते कई एक, यही प्रदोष व्रत जानो।

तेरस धन की पूजा है, अनंती, नर्क चौदस मानो।।

अमावस लक्ष्‍मी पूजन, सावित्री वृत उत्‍सव है।

शहर तारीख बस जानें, तिथियां गांव पूजा है।।

इस तरह तिथि पुजती है वहीं है गांव की धरती।

यहां है व्रम्‍ह की लीला, गांव ही प्‍यार की धरती है।।

22- अमृत विष में भेद –

उमर बीतती आज जा रही, क्‍यों लापरवाही।

मैंने कितना क्‍या कह डाला, समझ नहीं आयी।

भरे पेट में – अमृत विष है, भूखे पेट नहीं।

अमृत विष में यही भेद है, क्‍या मालूम नहीं।।

टिका हुआ है मातृ कल्‍पना, यह ईश्‍वर ऐसे।

व्‍यर्थ होयगी चर्चा उसकी अन्‍ध लकुटी जैसे।

सूत्र, शिखा संग बंधी शिष्‍टता यहां संदिग्‍ध भई।

कर्मकाण्‍ड, पाखण्‍ड बाद से, महिमा आज गई।।

प्रणय और परिणय का नियमन क्‍या मालूम तुम्‍हें।

मंथन और थाहने पर ही, होगा ज्ञात तुम्‍हें।

यहां उलझ जाता है चिंतन, चिंतन की धरती।

आज इसी के ब्‍यारब्‍यानों में, उलझी जन भरती।।

जिधर देखते, उधर लगे हैं, पाखण्‍डी मेला।

समझ नहीं आता है अब भी, कितना क्‍या ठेला।

भटके पंथ और सब पंथी, भेड़ ध्‍सानी है।

अंध कूप की राह पकड़ ली, यही कहानी है।।

अगर जिंदगी ही जीना तो, गांव बुलाते हैं।

मानवीय गीतों के पलना, तुम्‍हें झुलाते हैं।।

जीवन का दर्शन गांवों में, चौपालें कहतीं।

न्‍याय नीति केा लिए साथ में, नदियां बहतीं।।

23- मौसम के कलेण्‍डर -

कलेण्‍डर गांव मौसम के, प्रकृति को जान लै पल में।

समय के कुशल ज्ञाता हैं, निजी अनुमान के बल में।।

हवा के हर बहावों को, क्षण में तौल लेते हैं।

होय वर्षा भी कब, कितनी, समय को जान लेते हैं।।

पुलक के भाव ही उभरैं, असाढ़ी गंध से मन में।

श्रावण आ गया कह दें, भ्रमर की मधुर गुन-गुन में।

खंजन की उड़ानों से, अश्वनि आ यगा कहते।

कार्तिक कांस फूलन में, अगहन स्‍वच्‍छ जल बहते।।

कंपन-पूस की शर्दी, बसन्‍ती माघ का आगम।

फूलत किंशुक ज्‍यौं ही, जानो आ गया फाल्‍गुन।

बौरन आय, महुअन की, चैत की रूचि कहानी है।

आसव गंध सी महकन, सभी, वैशाख जानी है।।

तपत रवि शहस्‍त्र किरणों जब, जेष्‍ठ है जानलो प्‍यारे।

प्रकृति का यह कलैण्‍डर है, टंगा है गांव, हर द्वारे।।

गांव, भू-गर्भ का ज्ञाता, सभी भूगोल को जाने।

ज्‍योतिष, वायु, सामुद्रिक, उसी की मोद के गाने।।

सगुन को साधकर चलता, हल को कब चलाना है।

फसल क्रम को बदलना है, बीज बोना सही जाना।।

अनेकों अनबुझी बातें, रहैं अनुमान उसके में।

दवा, सुख, स्‍वास्‍थ्‍य ज्ञाता है, छिपी जो है उसी धुन में।।

24- गांव की छांव में –

एक बार आओ तो, मेरे इस गांव में।

प्रेम से बतियाय, बैठें छांव में।

वो जमाने याद आयेंगे तुम्‍हें-

रात चांदी सी दिखत, उस नांब में।।

मन लहर तब चांदनी सी हो गई।

चांदनी, ज्‍यौं क्रोड चन्‍दा सो गई।

दूध से उजले लगत, घर चौक हैं-

वह कहानी, सच कहानी हो गई।।

चांद-तारों से कहानी कह रहा।

एक होकर के, सदां से रह रहा।

आपसी सिकवे गिले, कोई नहीं-

प्रेम का संसार, जैसे बह रहा।।

वो उड़ी उड़कर चली बक-पांत भी।

कर दयीं जिसने, उजेली रात भी।

लग रही, कोई इबारत ज्‍यों लिखी-

बांचती जिसकी कहानी, रात भी।।

बोलते – चक बाक, तट तालाब के।

बीत गए कितने पहर इस रात के।

भोर की आशा, उन्‍हीं की दूरियां-

किस सजा को काटते किस वास्‍ते।।

कौन सी कहानी कहैं, वे रात में।

दे रहे उत्‍तर लगे हर बात में।

इस प्रकृति के लेख को, जाना कोई-

एक होकर, दूर हैं, किस बात मैं।।

प्रश्‍न का उत्‍तर न अब तक है मिला।

बने और उखड़े अनेकों, यहां किला।

नींव के पत्‍थर को जाना, किसी ने-

जो अभी तक भी हिलाते, नहीं हिला।।

यह कहानी, गांव की गलियों बसी।

बेशकीमत, मोतियों से जो कसी।

गांव का हर मोड़ गवाही दे रहा-

मनमस्‍त आती है यहां, हंसते हंसी।।