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सरहद - 2

2

अकेले पाठषाला जाना किस कदर डरावना था- जंगली जानवरों का खतरा, गाड़-गदेरों का बरसात में उफान, ऊपरी बलाओं का अंदेषा और सबसे ज्यादा डर मनुश्य नाम के प्राणी का, जो छोटी बच्चियों को भी मादा से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे, पर ऐसा बहुत कम होता था, पहाड़ में बलात्कार नहीं सुनाई देता था या तो किसी की हिम्मत नहीं रही या स्त्री लाज षर्म के मारे चुप लगा गई।

मैं भी पाठषाला जाने के लिये तैयार नहीं हुई तो माँ छोड़ने आई। माँ भारती की टांग खटिया के पाये पर बाँध कर मेरे साथ आने लगी। उस तरफ हमारे खेत भी रहे। माँ घास भी काट लेती और फसल की निराई गुड़ाई भी कर लेती।

खेतों के आगे सारी जमीन गौ चर रही, दूर-दूर गांव के लोग अपने मवेषियों को चराने वहाँ  छोड़ देते, हरी मुलायम घास के बीच भेड़ों की डार भागती दिखती, मवेषियों के गले की घंटियाँ टुनटनाती सुनती, तो डर चला जाता और विद्या अर्जन करने की यह यात्रा सुखद लगती।

एक दोपहर मैं पाठषाला से घर वापस आ रही थी, आसमान काला हो रहा था, झड़ी चौमासा  पड़ने लगी, मेरे बस्ते में माँ पाटी बोल्ख्या किताबों के साथ टाट की बोरी का टोपा और खुद की बनाई हुई बरसाती भी रखती। मैं बूंदें गिरती देख किनारे के पत्थर पर बस्ता रखकर टाट की बरसाती पहन रही थी कि पीछे से एक चरवाहा किषोर कब मेरे पीछे खड़ा हो गया, मुझे पता ही नहीं चला, जब मैं मुड़ी तो वह थोड़ा पीछे सरक कर बोला... ऐ छोरी! कहाँ से आ रही है?

पाठषाला से आ रही हँ, मैंने गर्व से छाती फुलाकर कहा।

‘‘मुझे उसके सवाल पर खीझ हुई’’- तुझे क्या दिख रहा है छोरे, भेड़-बकरियां चरा कर आ रही हूॅ?

‘‘ही ही ही... उधर देख तो जरा- वह आगे बढ़ा और नीचे की पहाड़ी की ओर उंगली दिखाकर बोला- देख वहाँ क्या हो रहा... ही ही ही’’ मैंने नीचे देखा एक समतल जगह पर एक मोटा साँड कई गायों को दौड़ा रहा था। उस दृष्य को देखकर मुझे घिन आई और एक उसकी तरफ थूक कर बोली- षैतान छोरे! वे तो जानवर हैं पर तू तो जानवर नहीं है..? तेज कदमों से मैं चलने लगी, वह मेरे पीछे लपकता मुझे पकड़ने आया’’ अभी... बताता हूँ छोरी..... साँड का देख,’’ मैं बहुत डर गई पर सरपट भागने लगी, भगवान की दया ठहरी कि रास्ता सीधा हुआ मैं रोने लगी और रोते-रोते बोलती गई- मेरी माँ आयेगी तो तुझे पीट-पीट कर पहाड़ी से लुढ़का देगी। गंदा, लुच्चा बदमाष छोरा,‘‘ जो गाली जानती थी सब दे डाली उसे...’’ अगले दिन मैंने पेट पीड़ा का बहाना बनाकर पाठषाला की छुट्टी कर दी और अगले दो दिन पाठषाला की छुट्टी हुई। तीन दिन बीत चुके पर मेरा मन जाने का नहीं हुआ, चौथे दिन माँ मुझे पाठषाला छोड़ गई। घर में चीनी, चायपत्ती, तेल नमक भी लाना था और कहीं भी नजदीक दुकानें नहीं थी। रोजमर्रा की वस्तुएं खरीदने के लिये यहीं आना पड़ता, जहां मेरी पाठषाला थी। माँ के साथ उसी स्थान पर पहुंचते ही मैं माँ को एकाएक सब बताने लगी, तो माँ बोली थी, डर मत बेटी अपने साथ एक डन्डा रख। माँ ने कमर से खुसी दरांती से खच्च पहाड़ी के पुष्ते से टिम्मर की लकड़ी काटकर मुझे थमाई- बेटी रमोली! दुनिया उसे ही डराती है जो डरता है। ये है तेरा दूसरा हथियार...।

‘‘पर माँ इसे पकडू कैसे, काँटे हैं इसमें?’’ मैंने डन्डा पकड़ा तो खरोंच आ गई। माँ ने ऊपर के छिलके निकाले-काँटे वाले डन्डे से तू झपोड़ सकेगी (मार सकेगी) उस बदमाष को..!’’ पर डन्डा लेकर पाठषाला तो नहीं जा सकते, बीच रास्ते में छुपाना था कहीं झाड़ी में। उस दिन माँ ने मुझे पच्चीस पैसे भी दिये। मैंने गरम प्याज की पकोड़ियां ली और खाते-खाते आने लगी, अन्य दिनों की अपेक्षा आज मुझे अच्छा लग रहा था। जोरों की भूख और गरमागरम प्याज की पकोड़ियां की खुष्बू। माँ रोज पैसे देती तो कितना मजा आता। मैंने सोचा, पर माँ भी कहाँ से देती, पिताजी जिन्दा होते तो अलग बात थी। अब मुझे घर जाने की जल्दी थी। दोपहर का समय था, छुट्टी की घंटी बजते ही रास्ते लग जाती थी। दूसरे बच्चे दुकानों में टहलते हुए झुण्ड में आते थे। अभी रास्ता सुनसान था, गदेरे के पास पहुँचते ही इधर-उधर देखकर मैं नाड़ा खोलकर बैठ गई, बहुत जोरों की पेषाब लगी थी। अन्य दिनों में कभी कभार रास्ते से ऊपर या नीचे झाड़ियों में बैठती थी, पर आज किसी की आहट न मिलने से रास्ते के किनारे ही बैठ गई।

‘‘हा! हा! हा! ऊपर से तिमला के पेड़ से ठहाका मेरे ऊपर गिरा, मैं बेहद डर गई, कोई भूत पिषाच होगा। मैंने सलवार समेटा तो पेषाब टाँगों पर ही गिरने लगा, मैं भागने लगी, ऊपर से फिर वही ठहाका- हा हा हा देख लिया नंगा हा हा’’ अरे यह तो सुन्दर की आवाज है। अराकोट का सुन्दर 9वीं कक्षा में तीन बार फेल हो चुका था और अपने कारनामों के लिए गाँवों और स्कूल में कुख्यात था। मैं और तेजी से भागने लगी, उसकी आवाज मेरा पीछा करने लगी। हे भगवान! भूत पिषाच से तो आदमी ज्यादा खतरनाथ ठैरा! मैंने सोचा और दूर निकल कर ठीक से सलवार बाँधी। अब आवाज मेरा पीछा करना छोड़ चुकी थी। अपनी टाँगों पर पेषाब लिथड़ा देखकर मैं उस सुनसान में बुक्का फाड़कर रोई। हे! विधाता मुझे लड़की क्यां बनाया? मुझे तो इस धरती पर पेषाब करने का भी अधिकार नहीं!’’ उसने मुझे नंगा देख लिया था, उसकी आँखें मेरी टाँगों के बीच चिपकी रही। मुझे खुद से घृणा होने लगी, खुद की धिक्कारते हुए सोचने लगी, कि मुझे पेषाब रोक कर सीधे आना चाहिए था। क्यों बैठी मैं उस सुनसान जगह पर, लगा मेरा कुछ नश्ट होते-होते रूक गया, वह वहीं मेरा कुछ भी कर सकता था। मेरे कपड़े फाड़ सकता था, मुझे नोच सकता था, अब तो मेरी उम्र भी बारह वर्श की हो रही थी। उसकी आँखें मेरी टाँगों पर चिपकी हुई है, कैसे झाडूँ इनकी चुभन...?

माँ को कैसे बताऊँ कि एक छोकरा मेरे साथ गाय-साँड का खेल खेलना चाहता है और दूसरा मेरी नंगी देह पर अपनी गिद्ध आँखे चिपकायें हुए है। वह मेरे पेट में अपना बच्चा डालना चाहता हूॅ। मेरी समझ में नहीं आया कि केवल मुझसे ही क्या दुष्मनी है इन राक्षसों की? मुझे अपनी छोटी सी देह पापमय लगने लगी..

‘‘रमोलीड...!’’ माँ ने खेत से देख कर पुकारा। मैं जवाब में हाँ भी नहीं कह पाई। आवाज कंठ पर ही चिपक गई और आँखे टप-टप बहने लगी। मैं मुँह दबा कर रो रही थी जार-जार, मेरे आँसुओं की गरम बूँदों से धरती जरूर थरथराई होगी पर मानुश का बच्चा अट्टाहस लगाता रहा, मैं माँ से बताना चाहती थी, पर, कोई सुनेगा तो मेरी कितनी बदनामी होगी..? क्या पता मैं गाँव से ही निकाली जाऊँॅं, सिहर उठा मेरा मन...। खेतों में हमारे गाँव की अन्य स्त्रियाँ भी काम कर रही थी।

...अगर मेरा बच्चा हो गया तो? जाने मुझे क्यों लग रहा था कि उसके देखने से मेरे पेट में बच्चा आ जायेगा... भगवान जी मुझे पाप देंगे और मेरी माँ उन दो राक्षसों में से किसी एक के साथ मेरी षादी करा देगी! षायद उससे ही करवाये जो पेड़ में छुपा बैठा था जिसने मुझे नंगा देख लिया था। मुझे लगता था कि कोई लड़का किसी लड़की को नंगा देख ले तो गाँव के लोग जबरन उन दोनों का विवाह करा देते हैं। माँ घास का गट्ठर बाँध रही थी, मेरा जवाब न पाकर षायद वह समझ गई होगी कि उसकी बेटी के साथ कुछ अनहोनी फिर घट गई है। मैं बुक्का फाड़ कर रोना चाहती थी पर रो नहीं सकती थी। मेरा दिमाग कह रहा था कि रमोली अगर तू जोर से रोयगी तो सब लोगों को पता चल जायेगा और तुझसे सब नफरत करेंगे। तेरा पाठषाला जाना बंद हो जायेगा। मैं तेज भागने लगी, माँ मेरे पीछे धीरे-धीरे आ रही थी। माँ को पता चल जायेगा और वह मेरा मेरा विवाह....

हो सकता है मां उस नकटे छोरे के साथ मेरा विवाह करा दे... और वह मुझे साँड गाय का खेल दिखाकर गन्दी बातें कहता रहेगा छीऽ.. छीऽ... थूऽ... थूऽ... मैं बार-बार थूक रही थी। मेरा मुँह सूख रहा था, लग रहा था जैसे मुँह में लार भी नहीं बची है, मैं मर क्यों नहीं जाती? सब गाँव वालों को पता चल जायेगा सब मुझे गन्दी लड़की कह कर चिढ़ायेंगे।

‘‘गन्दी लड़की

’’गन्दी लड़कीऽ... और जा पाठषाला... नहीं जाती तो गन्दी नहीं होती... अब देख भगवान जी तुझे कितना पाप देंगे.... तेरी षादी उन्हीं गंदे लड़कों से होगी....‘‘

माँ ने आकर गुठार (खलिहान) में घास का गट्ठर फेंक कर आवाज दी- रमोलीऽ... बेटी लोटा भर पानी दे दे। माँ थकान उतारने के लिये गुठार से घिरी पत्थरों की दीवार पर बैठ गई, उसके चेहरे पर पसीना छल बला रहा था, माँ प्यासी थी, उसे पानी की जरूरत थी और मैं माँ की ओर पीठ करके ऊपर छज्जे में बैठी सुबक-सुबक कर मौन क्रंदन कर रही थी-भगवान जी तुम मेरे पिताजी को क्यों ले गये? हमें क्यों अनाथ किया? भगवान जी तुम बहुत खराब हो।

’’रमोलीऽ..ऽ..ऽ’’ माँ ने आवाज दी। माँ की आवाज चीखने जैसी थी, मैंने घबरा कर पानी का भरा लोटा तेज कदमों से सीढ़ियां उतर कर माँ को थमाने के लिये साथ ही हाथ बढ़ाया और चेहरे को पीछे मोड़ना चाहा। माँ ने लोटा थामा- रमुऽ... इधर देख.... मेरी तरफ... ’’मैंने नहीं देखा, मैं भागकर भीतर नंगे खटोले पर गिर पड़ी और बुक्का फाड़कर रो पड़ी। माँ ने अभी घूंट भी नहीं भरा था, अगर बेटी दुख से भरी हो तो षायद माँ को पानी पीने का भी हक नहीं था, जिस बेटी का गला रोते-रोते सूख गया हो वह माँ अपनी प्यास कैसे बुझाती भला ?

यह सवाल दुनिया की सारी माँओं के सिर पर जाने कब से मंडरा रहा होगा कि माँ होकर वह बेटियों की सुरक्षा नहीं कर पा रही हैं- हैवान-षैतान मांओं के सुरक्षा घेरे में भी सेंध लगाये अपने पुरुश होने का दंभ भरता रहा है और मां लाचार बस देखती ही रही उसके हांठ प्रार्थना में बुदबुदाते रहे- हे प्रभु! हमारी बेटियों को षैतानों से बचाना... वरना उन्हें कोख में ही मार देना..’’ निर्मम होकर कोई मां बदहवाष ऐसी भी प्रार्थना करती होगी।

मूंझ के नंगे खटोले पर औंधे गिरने से मेरे चेहरे की मुलायम चमड़ी छिलने लगी तो मैं उठी, सामने मां खड़ी थी। चण्डी जैसी! उसके हाथ में भीमल की सोटी थी, उसने सट्ाक-सट्ाक दो सोटी मेरी पीठ पर दे मारी...! मैं बिलबिला उठी- मारो.. और मारो.. मार कर फेंक दो...। सब मिलकर फेंक दो, नदी नयार में... या गाड़ दो जमीन में... मैं जिंदा रहने लायक कहाँ रही अब...! मैं मुँह फाड़ कर बोलने लगी थी, आक्रोष मेरे रेषे-रेषे से उबल रहा था।

माँ ने सोटी हवा में उछाल कर बाहर फेंक दी और धम्म मिट्टी के फर्ष पर बैठकर दोनों हाथों से माथा फोड़ने लगी- मुझे ही मरना होगा.... तुम तो चले गये, मुझे बेसहारा छोड़ कर स्वामी... किसको अपना दुखड़ा रोऊँ... हेऽ स्वामीऽ... मुझे भी ले चलो अपने साथ...

‘‘माँऽ...! ’’मैंने माँ के दोनों हाथ पकड़ लिये और उसके सीने पर सिर टिकाकर सुबकने लगी- माँऽ... अब माफ भी कर दो.. सब बताती हूँ...‘‘ माँ ने मुझे कसकर छाती से चिपका लिया- मैं जानती हूँ आज भी तेरे साथ कुछ....‘‘ आगे के षब्द दम तोड़ने लगे। माँ भी सिसकने लगी और सिसकते सिसकते मेरे आँसू पोंछने लगी- ....पर बेटी तुझे मुझसे कुछ नहीं छुपाना चाहिये... माँ हूँ न... पीड़ा मुझे भी होती है। अब बता... आज क्या घटा...?’’

माँ बमुष्किल दीवार का सहारा लड़खड़ाते पाँवों से खड़ी हो गई- भारती भूखी होगी।’’ माँ चंद कदम गई, फिर वापस मुड़ी। बता आज क्या हुआ तेरे साथ...?

मुझे फिर रुलाई आने लगी, षब्द गले में रेत में पड़ी मछली जैसे छटपटाने लगे। माँ ने करुणा भरी दृश्टि मुझ पर टिका दी- बोल बेटी- मुझे बता सब कुछ... मुझे नहीं बतायेगी? माँ हूँ तेरी.. समझती हूँ  अपनी बच्ची का मन...‘‘ माँ ने मेरे सिर पर हाथ रखा तो मैं फिर माँ पर लिपट गई और टुकड़ों... टुकड़ों में सिसक-सिसक कर बताने लगी।