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सरहद - 3

3

‘‘माँ मैं अब पाठषाला नहीं जाऊँगी... मेरे पेट में बच्चा आ जायेगा.. तुम सब मेरी षादी उस गुन्डे से करा दोगे... मैं नहीं जाऊँगी पाठषाला...’’

टप-टप मेरे गरम आँसुओं से मिट्टी का फर्ष भीग रहा था पर माँ के भीतर कब ज्वालामुखी धधकने लगा था जिससे मैं अनजान थी।

‘‘रमोली की माँ छेऽ!... भुली तुम दोनों माँ बेटी लिपटा-चिपटी करने पर लगे हो... इधर देखो इस बच्ची का मुँह कुम्हला गया... खिचड़ी भी नहीं खाती बेचारी! माथा भी तप रहा है... ताई पास आती गई और पीछे मुड़कर भीतर की ओर...

माँ ने भारती को लपक कर छाती से लगाया और चूमने लगी- दीदी कब से माथा तप रहा? सुबह तो ठीक थी ऐसी ही बुखार में दिखती तो खेत में नहीं जाती’’। माँ ने ताई को भुलाने के लिये कह तो दिया पर दोनों जानती थी कि खेत में गये बगैर गुजारा कहाँ होता, भैंस गाय के लिए हरा घास चाहिये होता।

ताई माँ को छोड़ भीतर आकर मुझे खोजने लगी, मैं डर के मारे कोने में छुपी थी। ताई की पैनी आँॅंख सब ताड़ गई- इस रमू को क्या हुआ भुली...?‘‘

माँ ने अस्फुट कुछ वाक्य उछाले, ताई मुझे हाथ पकड़ बाहर ले गई- तुझे पढ़ना ही है न? मेरे साथ गलीचा पर बैठ गई- ताऊ तुझे पढ़ा देंगे... पाठषाला जाना बंद कर दे बाबा... मैं तेरे और तेरी माँ के हाथ जोड़ती हूँ ...’’

मेरा चेहरा अभी आँॅंसुओं से तर था- मैं नहीं जाऊँगी पाठषाला...

माँ ने एकाएक मेरा हाथ पकड़ा छोटी को पीठ पर बाँधने लगी, मैं अब और जोर से रोने लगी तो ताई ने मुझे थाम लिया- क्या कर रही है मूर्ख ? कहाँ ले जा रही है दोनों कोऽ...’’ ताई की आँखों में भय थरथराने लगा था। पर माँ का रौद्र रूप देख सहम गई। पलभर आंषका कुलबुलाने लगी- कहीं अनिश्ट न हो... हे प्रभु! रक्षा करना...’’ ताई आसमान में हाथ जोड़ रही थी- सारा बखेड़ा पाठषाला जाने से हुआ... अरे! बाबू लड़की जात को आखर बांचने है कुल चिट्ठी लिखने पढ़ने तककृबाकी उसे बरिस्टर तो बनना नहीं..’’ ताई ने माँ का फन्छा खोल कर भारती को माँ से छीनकर पुचकारने लगी। भारती भी बुक्का फाड़ कर रोने लगी। अब हम तीन आँॅंसुओं के घेरे के भीतर अपने दुख को सहला रही थीं और ताई माँ को समझाने के तर्क खोज रही थी, माँ ने जेठानी का मान रखा, उस वक्त। पर अगले दिन चुपचाप सुन्दर के गाँव पहुंच गई थी, उसकी विधवा माँ अपने लोफर बेटे को धरती भर की बद्दुआयें देती माँ के पाँव पड़ गई थी- अब तुम्हारी बेटी को जरा भी बुरी नजर पड़ी तो मैं अपने बेटे को घर से निकाल दूँगी... बामणी... मेरा वचन पक्का है...

इस बीच जाने कब उस दूसरे छोरे के गाँव जाकर, उसे तथा उसकी विधवा माँ को खूब हड़का आई थी, अब व्यवधान टल गया था। इस बीच कलावती को न जाने क्या सूझा वह अपनी चचेरी बहन कुन्था को लेकर मेरे साथ पाठषाला जाने को तैयार होने लगी अब।

पाठषाला क्या थी हे राम! खुले आसमान तले सड़े धान की पुलियों में बैठै बच्चे! इन पूलियों को विद्यार्थियों की मातायें घास, लकड़ी काटने जाते हुए फेंक जातीं। मास्टर जी पत्थर के आसन पर बैठे होते। हमारे पास लकड़ी की पाटी होती और बाँस की कलम जिसे सफेद या पीली मिट्टी का घोल बनाकर उसमें डुबा कर मोटे-मोटे आखर लिखते रहते, जिसे कमेड़ी मिट्टी की स्याही कहा जाता। मैं भी एक छोटा सा पुराना जंक लगे डिब्बे में कमेड़ी मिट्टी घोल कर लाई थी, उसमें बाँस की कलम डुबोकर पहला आखर लिखा था ‘अ’ काली पाटी को तवे की कालिख से पोत कर और काला बनाया था। काले पर सफेद आखर चमकने लगा तो मुझे अपार खुषी मिली, अंधेरे में जैसा उड़ता जुगनूँ।

‘‘अ से क्या होता है लड़कियों?’’

‘‘अनार’’

‘‘नहीं’’

तो क्या होता है मास्टर जी?

अ माने अच्छा

अच्छा कौन होता है?

एक गहरी चुप्पी

मास्टर जी - अच्छी लड़कियां में वो होती हैं जो अपनी परिपाटी को नहीं छोड़तीं।

दूसरा आखर

‘‘आ’’

हम लय में कहते आऽ...

आ से ‘‘आम’’

‘‘नहीं’’

आ से आजादी

हम निरूत्तर

आजादी किसकी

‘‘हम सबकीऽ ...

‘‘नहींऽ....

‘‘सिर्फ लड़कों की’’

हम टुकर-टुकर मास्टर जी की खल्बाट खोपड़ी और रहस्यमयी आँखों को देखते‘‘ मानों मूक स्वर में कहना चाहते कि लड़कियों की क्यों नहीं मास्टर जी’’

‘‘इ से?’’

इज्जत हमें देखकर वे कहते ‘‘इज्जत किसकी?

लड़कियों की... जानती हो इज्जत गई तो सब कुछ चला गया हम इसके कयास लगाते।

’’इज्जत का मतलब लड़कों से बचना,’’ फिर से आखर पढ़ाने पर वही स्वर, एक लबरा (बड़बोली) लड़की जो हमसे उम्र बड़ी ठहरी लबर-लबर बोलती रहती।

‘‘मैं बताऊँ मास्टर जीऽ’’ उसने क पर हाथ खड़ा किया।

मास्टर जी चिहुँके थे घनी मूँछों के बीच उसने चौड़े दांत चमके थे’’ हाँ... हाँ बोलो बोलो।

‘‘लिखकर दिखाऊँ मास्टर जी?’’

उसने झट लिख कर पाटी मास्टर जी की ओर बढ़ाई। मास्टर जी ने उसकी खोपड़ी को डन्डे से कोंचा, ‘‘खड़ी नहीं हो सकती?’’ वह उठ गई।

क से कठपुतली, कठपुतली पाटी पर चमक रही थी, मास्टर जी को उसमें अपना चेहरा देखना था, बहरहाल मास्टर जी खुषी से चिहुँकने लगे थे। वे अपने घर की कठपुतली को याद नहीं करना चाहते थे, उसके लिए हर घर में कठपुतली होना सामान्य सी बात थी।

‘‘षाबाष!’’ मास्टर जी के मुच्छड़ चेहरे में प्रकाष कौंधा था ‘‘कठपुतली देखी है कभी?’’ उन्होंने प्रष्न दागा था मुझे लगा था कि ललिता घबरा जायेगी, लेकिन उसका चेहरा सपाट था, वह सफलता से बोली थी, ‘‘देखी है मास्टर जी....

मास्टर चिहुँके थे ‘‘कहाँ देखी है? मेरे ख्याल से तू देष तो कभी गई नहीं और इन गाँवों में कठपुतली का खेल कभी हुआ नहीं...

‘‘मेरे घर में कठपुतली है मास्टर जी मैं उसे देखती रहती हूँ,’’ ललिता ने मास्टर जी की बात काट दी बीच में, तो मास्टर जी को कौतूहल हुआ ‘‘अच्छा’’! कैसी है तुम्हारे घर की कठपुतली। बता जल्दी बता ‘‘मास्टर जी आवेष में थे।

‘‘वो मेरी माँ है मास्टर जी’’ ललिता की आँखों से दो बूंदे गिरी।

‘‘झन्न!’’ मास्टर जी के गाल में झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा हो, जैसे चेहरा सफेद राख पुता हो गया ‘‘क्या कहती है छोकरी?

‘‘हाँ मास्टर जी मेरी माँ मुँह अंधेरे उठती है, चिड़ियों से भी पहले सारे दिन काम करते-करते रात तक उसको चैन नहीं, मेरे बाबा रोज दारू पीते हैं और बात बेबात माँ को थप्पड़, घूँसे, लात तथा बर्तन से भी मारते हैं।’’

‘‘एं! क्या कहती है छोरी तेरा बाबा पागल है क्या?’’ मास्टर जी आवाक थे। ‘‘बेबात कोई क्यों मारेगा भला छोरी।’’

‘‘मैं सच्ची कह रही हूँ मास्टर जी माँ की कसम! विद्या माता की कसम!’’ ललिता ने अकबकाई सी कभी सीने में हाथ रखती थी तो कभी किताब को माथे पर छुआ रही थी, ‘‘मेरे बाबा रोज दारू पीते हैं और लोगों को भी पिलाते हैं। वे कभी माँ को तरह-तरह की चीजें बनाने को बोलते हैं।’’ ललिता धारा प्रवाह बोलते हुए क्षणिक रूकी तो मास्टर जी को मौका मिल गया, डपट कर बोले, ‘‘क्या गलत करते हैं तेरे बाबा? हर कोई मर्द दारू पीता है और उसकी औरत उसके वास्ते कुछ न कुछ बनाती रहती है छोकरी, तेरा बाप खाली दारू पीयेगा तो मर न जायेगा....?’’

ललिता को मास्टर जी की बात बेहुदा लगी, वह षुरू हो गई थी फिर लबर-लबर, ‘‘मास्टर जी मेरी माँ को एक दिन बहुत बुखार था, मेरे बाबा उस दिन भी दारू की बोतल खोल कर बैठे थे, जब माँ उठ नहीं पाई तो उन्होंने माँ को खींचा, माँ काँप रही थी, उसने हाथ छुड़ाना चाहा- मुझे बुखार है! ललिता के बाबा मेरा बदन भट्टी सा दहक रहा है, छोड़ दो मुझे... तरस खाओ मुझ पर...... प्याज के साथ काम चला लो आज...’’ माँ हाथ छुड़ा कर रोने लगी थी, जैसे ही माँ दरवाजे को पकड़े पीछे मुड़ी बाबा ने माँ की पीठ पर फौजी बूट की ठोकर मारी। माँ की हड्डी टूट गई, अब वह कुबड़ी चलती है। बाबा कभी माँ पर करछुल दाग देते हैं तो कभी-कभी जलती लकड़ी।’’ लबरा छोरी की आँखों की बाबड़ी डबक-डबक भरने लगी थी। मास्टर जी को साँप सूँघ गया हो जैसे। उसने टप-टप गिरते आँॅंसुओं का सैलाब हथेली से पोंछा, आँखों में भरे पानी को भीतर सोखा और फिर लबर-लबर षुरू हो गयी, ‘‘मेरी माँ कहती है कि जिन्दा रहना है तो कठपुतली बने रहना है, जहाँ विरोध किया वहाँ यम के दूत सामने..... मेरी माँ खड़ी नहीं हो सकती मास्टर जी!’’ वह अब बुक्का फाड़ कर रो पड़ी थी, पर हाय रे मास्टर जी! लड़की पर दया करना तो दूर उल्टा उसी को फटकारने लगे थे- अपनी घर की पोल पट्टी खोलकर तुझे लाज नी आती लबरा छोरी! जब देखो लबर-लबर षुरू हो जायेगी! तेरे बाबा मारते भी हैं तो अपनी ही औरत को मारते हैं न? उनका अधिकार है और तेरी माँ भी तेरी ही तरह होगी लबरा तभी न खाती होती मार? मास्टर जी लबर-लबर बोलने लगे तो चुप नहीं हुए, बहुत देर तक... जाने किसकी खीज निकाल रहे थे- अपने पिता पर लांछन लगा रही छोरी, मास्टर जी ने बेंत मारी पत्थर पर, ‘‘लड़कियाँ जुबान चलाती बहुत बुरी लगती हैं।’’ चटक.... चटाक्.....

लबरा छोरी डर गई थी, अब वह हाँ ना में मुन्डी हिलाती। पढ़ने में उसका मन नहीं लग रहा था। मास्टर जी भी बात-बात में उसे प्रताड़ित कर रहे थे। धीरे-धीरे ललिता का पाठषाला आना कम होने लगा था। अब वह महीने में तीन-चार दिन नहीं आती और एक दिन उसका नाम कट गया।

माँ दिन भर खेतों में काम करती। भारती की टाँग वह मूंझ की खाट के पाये से बाँध देती। भारती नीमदारी से पेड़ों पर बैठी चिड़ियों को ताकती, चिड़िया पेड़ों की टहनियों पर झूलती। चीं चीं चूं चूं के स्वर से भारती किलकारी मारती, चिड़िया भी भारती की दोस्ती से चहकती हुई नीमदारी में आकर कभी दाना टीपती तो कभी इठलाती हुई उसके हाथ पाँव चूमती, जब तक उसे भूख प्यास न लगे वह खुष रहती चिड़ियों के साथ। कभी गाय बाछी के रंभाने की आवाज सुनती तो उसे लगता कि उसके आस-पास कोई है, कभी पाठषाला से मेरा जल्दी घर आना होता तो भारती को देखकर मेरा मन रोने को होता, वह भूख प्यास से निढाल होकर, रो रोकर सोई मिलती। उसकी रस्सी खोल कर उसे गोद में लेने को होती तो वह टट्टी पेषाब से लिथड़ी मिलती। कभी माँ उसे अपने साथ खेत में ले जाती लेकिन ऐसा कभी कभार संभव हो पाता, एक खेतों में फसल खराब होरे का खतरा बना रहता तो दूसरा सांप, बिच्छू, मकड़ी तथा अन्य कीड़े मकोड़ों का खतरा। कभी माँ उसको कमरे में बंद कर सांकल लगा कर घाट काटने जाती। जब तक वह सोई रहती तब तक किसी ने दरवाजा खोल दिया तो ठीक बंद कमरे में किसी को न पाकर वह जोर-जोर से रोने लगती, घर के आगे पीछे लोगों को उसकी रूलाई असहज लगती तो वे सांकल खोल कर उसे घर ले जाते, हमारा घर गांव से अलग था। हमारे घर से जुड़ा मेरे ताऊ पंडित श्रीनन्द तिवारी का घर था, वे भी मेरे सगे ताऊ नहीं थे। मेरे दादा के बड़े भाई के लड़के थे, उनके घर की पीठ हमारे घर से जुड़ी थी। इसी कारण वे छोटी का रोना कम ही सुन पाते। एक दिन माँ को खेत से आने में देर हो गई, कमरे में बंद छोटी रोते-रोते चुप हो गई तो ताई घबराकर दौड़ी आई। हड़बड़ी में सांकल खोली तो छोटी दरवाजे पर पड़ी मिली, उसको तेज बुखार था, उसका चेहरा सूख गया षायद उस नन्हीं सी जान को प्यास भी लगी थी।