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क्यों लिखूं....?





क्यों लिखूं....?

आपका ये नाचीज कभी-कभार अपने मन की बात लिखकर आप तक पहुंचा कर अपने मन के बोझ को कम करता रहता है, इस लिखने के चक्कर में कभी प्रशंसा मिली तो कभी आलोचना, कभी कोई पीठ थपथपा गया तो कभी कोई धमकी दे गया । लिखने का चक्कर ऐसा लगा कि कुछ मेरे पात्र रूपी वास्तविक लोग मुझे लठ्ठ लेकर ढूंढ रहे है तो कुछ लोग मेरे पात्रों के रूप में स्वयं को देखकर भी गद-गद है । हमारे रशीद भाईजान तो दाना-पानी लेकर चढ़े दौड़ते है, वे आज मिल गये बाजार में बोले ‘‘बटे के .........आप भी बड़े अजीब हो तीन हफ्तों से कुछ नहीं लिखा। बटे के ......इस हफ्ते नहीं लिखा तो तुम्हारा हुक्का पानी बंद।’’ हम उन्हें न कैसे कहते?

अब हम सोच रहे है कहा है तो कुछ लिख ही लेते है लेकिन क्या लिखूं...? सोचा राजनीति बहुत ही मसालेदार है इसी पर लिखूं। यहाॅ बदजुबान नेता है। यहाॅ अवसरवाद की पराकाष्ठा है। यहाॅ राष्ट्रवाद है तो क्षद्म राष्ट्रवाद भी है। यहाॅ सम्प्रादायिकता है तो क्षद्म सम्प्रादायिकता है। यहाॅ झंडे, नारे और गुंडे है। यहां झूठ, मक्कारी ओैर ढकोसले है। यहाॅ जनता और ईमान की खरीदी- ब्रिकी की मंडी है। यहाॅ नरम पंथी है तो कट्टरपंथी भी है। राजनीति में कट्टर पंथियों की बहार है और मुझे तो उन्ही के बीच रहना है, क्यों अपना सुख का चोला दुख में डालूं। प्रश्न वही का वही है, क्या लिखूं..........?

सोचता हॅूं भ्रष्टाचार मंहगाई और बेरोजगारी पर ही लिखूं तीनों किसी राक्षस की तरह आम आदमी (नही.............नही) जनता को निगल रहे है। इनका बढ़ना बताऊ तो सत्ता के विरूद्ध दिखाई दूंगा। इन्हें घटता बताऊ तो खुद को विरूद्ध हो जाऊंगा। तीनों एक-दूसरे के पूरक है। बेरोजगार, भ्रष्ट अधिकारी की शरण में जाता है, रोजगार पाता है, फिर भ्रष्टाचार में लग जाता है, और मंहगाई बढ़ाता है। आप ही सोचिये मंहगाई कितनी बढ़ गई है। जो बाबू पचास रूपये में काम करता था। अब पांच हजार रूपये मांगता है। इच्छा तो हो रही है कि उनके नाम भी लिखूं। लेकिन मुझे इसी शहर में रहना है। बार-बार काम भी कराना है तो क्यो लिखूं.............?

सोचता हूॅ विद्या बालन पर लिखूं जो भोजन के समय भी टी.वी. पर शौच की बात करती है। विद्या जी को कौन समझाये वो लड़की और बहू दिन में दस बार ‘‘आई है.........’’ करके जाते है उन्हें दस्त बंद करने की दवाई ही दे दे। विद्याजी के विज्ञापन को देखकर कुछ ग्रामीण अपने घर शौचालय बनाने आॅफिस पहुचें तो उन्हें मालूम चला कि ये तो आज तक फालतू में ही बाहर शौच के लिये जाते रहे। सरकारी रिकार्ड के अनुसार उनके घरों में शौचालय बन चुके है। उन्हें क्या मालूम कुछ बड़े अधिकारियों के बंगले वास्तव में बंगले नहीं है, वे तो ग्रामीणों के शौचालय ही है। अधिकारी शौचालयों में, बोरी बंधानो में, कुंओ में, आराम से निवास कर रहे है। कुछ अधिकारी तो सड़कों में, नहरों और तालाबों में भी बड़े आराम से सुख पूर्वक जिंदगी व्यतीत कर रहे है और जनता है इन चीजो के लिये फालतू में परेशान हैं। मैं भी तो आम आदमी ही हॅूं और इन्ही चीजों के लिये जुगत लगाता हूॅ फिर इन अधिकारियों के विषय में क्यों लिखूं.........?

फिर सोचा कुछ साहित्यकारों पर ही लिखूं। आप ही सोचेंगे जो टके सेर मिलते हो उन पर अपनी ऊर्जा क्या बर्बाद की जाये । वैसे भी आज- कल मेरे जैसे साहित्यकार बचे ही कहाॅ है। जो है वे बस इंटरनेट पर दूसरों की सामग्री चुरा कर नकल करने में लगे रहते है। अच्छा एक बात और आज का साहित्यकार अकेला नहीं पाया जाता। वे झुंडों में पाये जाते है कोई मंच मिला तो एक झुुंड उस पर चढ़कर कब्जा जमा लेता है और दूसरा खाली होने की ताक में रहता है। एक हास्य कवि को मैने एक दिन पुस्तक की दुकान पर देखा । उसने भी बड़े संकोच के साथ जैसे वो शराब की दुकान पर पकड़ा गया हो चुटकुले की किताब खरीदी। मेरे पूछने पर उसने उपयोग यह बताया ‘‘मिश्राजी चुटकुलों की पैरोडी मंच पर चलती है। इसी पुस्तक से अपनी कविता निकलती है।’’ साहित्य को जितना गिरना था गिर चुका। अब तो उसके पास पाठक भी नहीं बचे। फिर मैं क्यों लिखूं.........?

शादी ब्याह का मौसम है जिसे देखो किसी न किसी शादी में जा रहा हैं। जिस दिन जिसके घर जितने निमंत्रण उसका रूतबा उतना ही बड़ा। हमे एक साहब मिले, बोले ‘‘यार परेशान हो गया शादीयों से, आज चार जगह जाना है। ’’ हम जैसे फटीचर लेखकों को कोैन पूछता है? हमारे पास तो आज कोई निमंत्रण नहीं है फिर भी हम ने सेखी बंघारी दी ‘‘आज आठ -आठ जगह जाना था। दो जगह मैं गया, दो जगह पत्नी गई और तीन जगह बेटीयां और बेटे।’’ उसने कहा ‘‘एक शादी तो रह ही गई न।’’ मैने कहा ‘‘वहां मैं अपने कुत्ते को छोड़ आया हॅूं।’’ शादियों की बात हो और पीने- खाने वालों की न हो ऐसा कैसे हो सकता है। अक्सर बारातों में मयखाना भी साथ ही चलता है। एक कार, उसमें बार, डिस्पोजेब्ल ग्लास, नमकीन और पानी की बोतलों के साथ। अरे बार न हो तो बारात में नाचेगा कौन? कई लोगों ने तो दुल्हा और दुल्हन को देखा भी नहीं, बस पिया और खूब नाचे। नाचने के नाम पर ऐसा कूदे की बाजू वाले का पैर मोच खा गया। ये तो सारे दृश्य आप हमेशा ही देखते है फिर मैं क्यों लिखूं.? (आलोक मिश्रा)