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पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 9


अध्याय पॉंच
कर्म- संन्यास मार्ग
अनुभव— आपने पहले दो मार्गों की चर्चा की दादी जी, अधिकांश लोगों के लिए कौन सा मार्ग अच्छा है ?
आत्म-ज्ञान का या नि: स्वार्थ सेवा का ?

दादी जी— वह व्यक्ति, जिसे परमात्मा का सही ज्ञान होता है, जानता है कि सारे कार्य प्रकृति मॉं की शक्ति से किये जाते है और वह किसी कार्य का वास्तविक कर्ता नहीं है ।ऐसे व्यक्ति को संन्यासी कहा जाता है । वहीं आत्म-ज्ञानी है ।

कर्म योगी व्यक्ति स्वार्थ भरे उद्देश्यों से ऊपर उठकर कर्म करता है । कर्म योगी आत्मज्ञान पाने की तैयारी करता है ।
आत्मज्ञान संन्यास की ओर ले जाता है । इस प्रकार निष्काम सेवा या कर्म योग, संन्यास का आधार बनता है ।
दोनों ही मार्ग अंत में प्रभु की ओर ले जाते हैं । भगवान श्री कृष्ण इन दोनों मार्गों में से कर्म योग को बेहतर समझते हैं क्योंकि अधिकांश लोगों के लिए यह मार्ग सरल है और इस पर आसानी से चला जा सकता है ।

अनुभव— क्या संन्यास शब्द का अर्थ प्रायः सांसारिक वस्तुओं का त्याग करना और आश्रम में रहना या एकांत वास करना नहीं है ?

दादी जी— साधारणतः संन्यास का अर्थ सब व्यक्ति गत ध्येयों का, सांसारिक वस्तुओं से आसक्ति का त्याग करना है । किंतु इसका अर्थ समाज में रहकर व्यक्तिगत स्वार्थों के बिना अपने कर्तव्य का पालन करते हुए समाज की सेवा करना भी है । ऐसे व्यक्ति को कर्म संन्यासी कहा जाता है ।

आदि शंकराचार्य जैसे कुछ आध्यात्मिक गुरु सारी सांसारिक वस्तुओं के त्याग के मार्ग को उच्चतम मार्ग और जीवन का ध्येय मानते हैं । वे अपने लड़कपन में ही संन्यासी हो गये थे ।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं— ज्ञानी सब स्वार्थों का त्यागी होता है । संन्यासी सब प्राणियों में भगवान को देखता है । ऐसा व्यक्ति शिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति को, धनी या निर्धन व्यक्ति को, यहाँ तक कि गाय, हाथी या कुत्ते को भी समान दृष्टि से देखता है ।

मैं तुम्हें एक महान आध्यात्मिक गुरु , महानायक, संन्यासी और विचारक की कथा सुनाती हूँ ।
उनका नाम है आदि शंकराचार्य । गीता के पाठकों के लिए वे महान आदर और सम्मान के पात्र हैं ।


कहानी (5) आदि शंकराचार्य

आदि शंकराचार्य या शंकर वेदांत के अद्वैतवाद दर्शन के रचयिता और प्रसारक हैं । इस दर्शन के अनुसार सारा विश्व ही ब्रह्म (परमात्मा) है और कुछ नहीं।आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ईसवी में केरल राज्य में हुआ था । उन्होंने आठ वर्ष की उम्र में चारों वेदों का अध्ययन कर लिया था और बारह वर्ष की उम्र तक वे सब हिंदू शास्त्रों में पारंगत हो गये थे ।

उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की— जिनमें भगवद्गीता, उपनिषदों और ब्रह्म सूत्र आदि अनेक ग्रंथों के भाष्य शामिल हैं ।शंकराचार्य द्वारा हमारे लिए अलग करने से पहले श्रीमद्
भगवद्गीता महाभारत में एक अध्याय के रूप में छिपी थी ।
शंकराचार्य ने गीता को महाभारत से निकाल कर उसे शीर्षक देकर अध्यायों में व्यवस्थित किया और संस्कृत में पहला गीता भाष्य लिखा ।

गीता का प्रथम अंग्रेज़ी अनुवाद एक ब्रिटिश शासक ने 19वीं शताब्दी में किया था ।

शंकराचार्य ने भारत के विभिन्न कोनों में चार मठों की स्थापना की । वे श्रृगेरी, बद्रीनाथ, द्वारिका और पुरी में हैं।
उन्होंने हिंदू आदर्शों के विरोध में होते बौद्ध धर्म के प्रसार को रोका और हिंदू धर्म को उसकी अतीत की महिमा से मंडित किया । उनके अद्वैत दर्शन के अनुसार जीवात्मा ही ब्रह्म की माया का खेल है।

निश्चय ही वे आत्मज्ञानी थे । किंतु उनके हृदय में ब्रह्म में पूरी तरह दृण विश्वास जड़ नहीं जमा पाया था ।

एक दिन वे पावन नदी गंगा में स्नान कर बनारस की पावन नगरी में शिव मंदिर जा रहे थे । उन्हें मांस का बोझ लिए एक कसाई, अछूत मिला । कसाई उनकी ओर आया और उनके आदर - सम्मान में उसने शंकराचार्य के चरणों को छूने का प्रयत्न किया ।

शंकराचार्य क्रोध में भर कर चिल्लाने लगे, “मेरे मार्ग से हट जाओ । तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे छूने की? अब मुझे फिर से स्नान करना होगा ।”

कसाई ने कहा, “प्रभुवर, न मैंने आपको छुआ है न आपने मुझे । शुद्ध आत्मा शरीर (या पंचतत्व जिससे शरीर बना है) नहीं हो सकती ।” (अध्याय तेरह में अधिक विवरण है)

तब शंकराचार्य को कसाई में भगवान शिव के दर्शन हुए।भगवान शिव ् स्वयं शंकराचार्य के हृदय में अद्वैत दर्शन का बीज गहराई से रोपने आये थे । भगवान शिव की कृपा से उस दिन से शंकराचार्य श्रेष्ठतर ज्ञानी बन गये ।

यह कथा हमें बताती है कि हर समय सब जीवों के साथ समानता का व्यवहार करना बहुत ही कठिन है । ऐसी भावना का होना सच्चे ब्रह्म ज्ञानी या पूर्ण संन्यासी होने का लक्षण है ।

अध्याय पाँच का सार—- भगवान श्री कृष्ण अधिकांश लोगों के लिए फलों के प्रति मोह न रखते हुए मानवता की नि:स्वार्थ- निष्काम सेवा के मार्ग को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं ।
आत्मज्ञान और सेवा । दोनों ही मार्ग इस लोक में सुख की ओर ले जाते हैं और मरने पर निर्वाण की ओर । संन्यास का अर्थ सांसारिक पदार्थों का त्याग नहीं है ।

संन्यास का अर्थ है,सांसारिक पदार्थों के प्रति लगाव — मोह न होना।
आत्मज्ञानी हर जीव में प्रभु के दर्शन करता है और सबके प्रति समान व्यवहार करता है ।

अनुभव आज इतना ही,अगले अध्याय में ध्यान मार्ग की चर्चा करेंगे ।


क्रमशः ✍️