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समाज सेवक जी ( व्यंग्य )

"समाज सेवा का मजा मेवा जिसने चखा, उसकी जिंदगी धन्य हो गई।" यह वाक्य हमारा नहीं मेवालाल जी का है। मेवालाल वैसे तो एक व्यापारी हैं लेकिन उन्हें सब लोग समाज सेवक के नाम से जानते हैं। मेवालाल ऐसी सभी जगह पर पाए जाते हैं ,जहां सेवा करने का कोई अवसर हो । वे कभी सड़क पर पानी पिलाते पिला रहे होते हैं , कभी दरिद्र नारायण का भोज करा रहे होते है और कभी सार्वजनिक कार्यक्रमों में पत्तलें उठा रहे होते हैं। उनको देख कर कभी ऐसा नहीं लगा कि उनकी सेवा में कोई स्वार्थ हो सकता है । वैसे शहर के नेता हमेशा ही उन से आशंकित रहते हैं । छुटभैया नेता अक्सर उन्हें या तो सेवा के अवसर से वंचित रखना चाहते हैं या फिर सेवा के बाद उनका गुणगान न हो इसलिए अपने नामों को आगे बढ़ाते हैं ।
मेवालाल ठहरे सीधे और सरल आदमी उन्हें तो बस अपने कर्मों पर विश्वास है । उनके लिए तारीफ और निंदा कोई मायने नहीं रखती। एक दिन उनके मन में ख्याल आया क्यों न गरीब कन्याओं का सामूहिक विवाह करवाया जाए ? अपने इस विचार को अमलीजामा पहनाना चाहते थे । ये उनके अकेले के बूते की बात तो थी नहीं ,सो वे आस-पास के नेताओं, अधिकारियों और तथाकथित सामाजिक संगठनों से संपर्क करने लगे। वे सुबह -सवेरे ही एक नेता जी के घर पहुंच गए । नेता जी मन ही मन बुदबुदाए" आ गया ....समाज सेवक कहीं का .....। " प्रगट में मुस्कुराते हुए बोले "अरे भाई मेवालाल जी सुबह-सुबह दर्शन देकर हमें धन ही कर दिया। मेवालाल बोले "आप तो शर्मिंदा कर रहे हैं । दरअसल हम कुछ काम लेकर आए थे । नेताजी बुदबुदाए "अब आया ऊंट ...पहाड़ के नीचे ।" परंतु उनके मुंह से उच्चारण निकले " हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ? " मेवालाल जी ने अपनी योजना बता डाली। नेता जी धीरे से बोले " काम तो अच्छा है . ‌...लेकिन इससे हमें क्या लाभ होगा ?" मेवालाल जी को इस जवाब की आशा नहीं थी । वे बुदबुदाए "लाभ....?" और बोले " सेवा और लाभ का क्या संबंध है?" नेता जी बोले "देखिए ... आपको तो समाज सेवा का कीड़ा है
लेकिन हम लोगों को राजनीति देखनी होती है। अभी तो चुनाव को भी बहुत समय है और इसमें कोई आर्थिक लाभ भी तो नहीं है ।" मेवालाल को लगा इन तिलों से तेल नहीं निकलने वाला । बस वे वहां से खिसक लिए फिर भी कई नेताओं से मिले । नेताओं को ऐसे कार्यों में चुनाव के दूर होने के कारण कोई रुचि नहीं थी । कुछ ने कहा "आप आगे बढ़ो हम दो-चार हजार की मदद कर दे ।" एक-दो छोटे नेताओं ने इसे चंदे की अच्छी योजना के रूप में देखा और मेवालाल को सेवा का मेवा बांट कर खाने की भी सलाह दे डाली ।
अब मेवालाल ने अधिकारियों की ओर रूख किया । कुछ ने उनके काम में अरुचि दिखाई । कुछ ने दिखावटी रुचि के साथ इस काम में सहयोग के नाम पर इस योजना के अर्थतंत्र को समझने का प्रयास किया । कुछ ऐसे थे जो अपनी सरकारी नौकरी का हवाला देकर कन्नी काट गए । एकाध को लगा मेवालाल छुटभईया पत्रकारों की भांति उनसे चंदा वसूलने आए हैं । उन्होंने सीधे पूछ " लिया आप कितना चंदा चाहिए? " कुछ लोगों ने पूछा " आप किस पार्टी से हैं ? " मेवालाल को लगने लगा कि ये किसी मकड़ी के जाले में उलझते जा रहे हैं । जितने अधिकारी उतने बातें शर्मा जी बोले " मेवालाल जी आपके इस काम के लिए बड़ा पर चंदा चाहिए । हमारी सीट तो कमाई वाली है नहीं । आप वर्मा जी के पास क्यों नहीं जाते ?" वर्मा जी बोले " देखिए हमने मंत्री जी को लंबा पैसा दिया है तब यह सीट मिली है । नेताओं ,पत्रकारों और ऊपर के अधिकारियों का हिस्सा निकालकर हमारे पास शर्मा जी से कम बचता है । आप शर्मा जी के पास क्यों नहीं जाते ? " एक अधिकारी तो गिड़गिड़ाने लगे " मेवालाल जी आपका परिचय तो ऊपर तक होगा । हमारा स्थानांतरण करवा दीजिए । हम आपकी योजना और आपकी पूरी सेवा के लिए तैयार है । " मेवालाल ऑफिसों में घूमती फाइल की तरह इधर से उधर भटकते रहे । वे निराश होने वालों में से तो थे नहीं । उन्होंने सोचा शायद कोई समाज सेवी संगठन इस काम के लिए आगे आए । अब ऐसे संगठनों के स्वयंभू अध्यक्षों और सचिवों से मिलकर अपनी योजना समझाने लगे एक अध्यक्ष ने पूरी योजना ध्यान से सुनी फिर बोले " मेवालाल जी बजट बनाया है क्या ? मेवालाल जी ने "न " में मुंडी हिला दी । वे बोले " खैर .... बजट कुछ भी हो हम अपने लोगों को दोगुना करके बता देंगे । बस शहर भर में चंदा होगा । आयोजन की सफलता की गारंटी हमारी । मुख्य अतिथि भी हमारे नेता जी होंगे । अधिकारी कर्मचारियों की तो आप हम पर छोड़ दो इनकी तो हम नस-नस से वाकिफ है । बस आप यह बताओ आप क्या करना चाहते हो । मेवालाल जी बोले "सामूहिक विवाह.....।" अध्यक्ष बोले "अरे...आप समझे नहीं इस सेवा के मेवे के रूप में आपको क्या चाहिए?" मेवालाल उनका मुंह देखते रहे । बाकी अध्यक्ष और सचिव इस काम के लिए तैयार थे लेकिन अपने-अपने अर्थशास्त्री विवेचना के साथ किसी को पद की, किसी को मान की और किसी को माया की बिसात पर ही सेवा दिख पा रही थी । मेवालाल की सेवा के इस कुरूक्षेत्र में अपने आप को अकेला पा रहे थे । हर किसी को सेवा के लिए मेवा चाहिए । समाज में कोई भी किसी भी काम को शायद निस्वार्थ भाव से करना भूलता जा रहा है । अब जब दो व्यक्ति मिल रहे होते हैं तो वास्तव में वह दो व्यक्ति न हो कर दो स्वार्थ होते हैं जो अपनी अपनी भाषा में अपने ही लिए काम कर रहे होते हैं । इन परिस्थितियों में मेवालाल जैसे लोगों को भी शक की नजरों से न देखें तो क्यों ?
आलोक मिश्रा " मनमौजी"