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आधार - 22 - आत्म-निर्माणजीवन का प्रथम सोपान है।

आत्म-निर्माण
जीवन का प्रथम सोपान है।

संसार में उपस्थित समस्त प्राणी अपने अस्तित्व को संरक्षित करते हुए अपने विकास के मार्ग पर अग्रसर रहते हैं। बौद्धिक विश्लेषण की दुर्लभ शक्ति होने के कारण मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ माना जाता है। यही कारण है कि आत्म-निर्माण की सर्वाधिक आवश्यकता मानव जाति को ही है। जैसे-जैसे आत्म-निर्माण की प्रक्रिया पूर्ण होती जाती है, मनुष्य सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचने को अग्रसर हो जाता है। आत्म-निर्माण के द्वारा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आपके व्यक्तित्व का प्रभाव परिलक्षित होता है और आप सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से विकास के मार्ग पर आगे बढ़ चलते हैं।
अनंत काल से हमारे श्रद्धेय ऋषियों, मुनियों और गुरुओं द्वारा मानव समाज को शिक्षित किए जाने का प्रयास किया जा रहा है। परंतु यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम आज भी पूर्ण रूप से शिक्षित कहलाने लायक ना हो सके हैं। यदि हम संसार का उद्धार या कल्याण करना चाहते हैं, समाज को आदर्श समाज के रूप में देखना चाहते हैं, मनुष्य के व्यक्तित्व को निखारना चाहते हैं तो हमें अपने आप से प्रारंभ करना होगा। हमें आत्म-निर्माण करना होगा। हमें सर्वप्रथम अपने आप को सुधार कर समाज के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। अपने को सुधारना अधिक सरल व संभव प्रक्रिया हो सकती है। समाज व संसार कोई अलग वस्तु नहीं है। हम जैसे व्यक्तियों का समूह ही समाज या संसार का निर्माण करता है। एक-एक कर जब हम सभी अपने आपको सुधार लेंगे तो समाज स्वयं ही सुधर जाएगा।
दूसरे व्यक्ति हो सकता है आपका कहना माने या ना माने। आप के बताए रास्ते पर चले या ना चले। परंतु इसमें लेश मात्र भी संशय नहीं कि आपका स्वयं पर तो पूर्ण नियंत्रण है। आप स्वयं को तो अपनी मर्जी से चला सकते। इसलिए विश्व निर्माण का यह कार्य आत्म-निर्माण से ही प्रारंभ किया जाना चाहिए।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अपने प्रभाव को समाज में साझा करता है। जिस प्रकार एक बुरा व्यक्ति अपनी बुराइयों को समाज में फैलाता है, उसी प्रकार अच्छा व्यक्ति अपनी अच्छाइयों से ना केवल स्वयं लाभान्वित होता है बल्कि पूरे समाज को सुख-शांति और समृद्धि देने में सहायक होता है। दोनों प्रकार के व्यक्ति अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप अपने गुणों और अवगुणों को समाज में वितरित करते रहते हैं। यदि प्रत्येक मनुष्य अपने सुधार में लग जाए तो वह संसार का बहुत भारी सुधार कर सकता है।
दुर्गुणों को अंगीकार कर व गलत रास्ते पर चलकर मनुष्य क्षणिक लाभ तो अर्जित कर सकता है परंतु जीवन के किसी न किसी मोड़ पर उसे लोक-निंदा, अविश्वास, असंतोष, राजदंड, घृणा एवं पतन का मुंह अवश्य देखना पड़ता है। इसके विपरीत लोक कल्याण के लिए कार्य करने वाला सच्चरित्र, कर्तव्य-परायण एवं उद्धार व्यक्ति दूसरों के दिलों में अपना स्थान बनाने में सफल रहता है। परिणाम स्वरूप आत्म-संतोष का सुख उसे जीवन पर्यंत प्राप्त होता है।
दुष्कर्म व पाप मनुष्य की प्रगति के सबसे बड़े बाधक हैं। उन्हें जितनी जल्दी अपने जीवन से हटाया या मिटाया जाए उतनी ही जल्दी ज्ञान की ज्योति हमारे भीतर प्रज्वलित होगी। जिस ज्योति के प्रभाव से जीवन का प्रत्येक पहलू प्रकाशमान हो जाएगा। इसलिए हमें जल्द से जल्द अपने व्यक्तित्व को निर्दोष, निर्मल एवं निष्कलंक बनाने का प्रयत्न प्रारंभ कर देना चाहिए।
आत्म-निर्माण का प्रथम सूत्र है कि प्रत्येक भली या बुरी परिस्थितियों का उत्तरदायी हम अपने आप को मानें। समस्त बाहरी समस्याओं का समाधान, हम अपने भीतर ढूंढें। जिस प्रकार का परिवर्तन हम दूसरे व्यक्तियों में देखना चाहते हैं, उसी के अनुरूप अपने गुण-धर्म और स्वभाव में परिवर्तन उत्पन्न करें। हमारे व्यक्तित्व का भीतरी सुधार, समाज की बाहरी समस्याओं को सुधारने में सबसे बड़ा व प्रभावशाली उपाय सिद्ध होता है। संसार में बुरे लोग हैं और उनमें विभिन्न प्रकार की बुराइयां भी है। उनकी गलतियां और बुराइयां हमें क्षणिक रूप में परेशान करती हैं और हमारी प्रगति के मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं भी उत्पन्न करती हैं, इसमें लेश मात्र भी संशय नहीं है। विज्ञान कहता है कि समान प्रकृति की वस्तुएं परस्पर एक दूसरे को आकर्षित करती हैं। यदि हम सकारात्मक सोच व आदर्श व्यक्तित्व के व्यक्तियों के समूह को विस्तारित कर दें, तो यह समाज के नकारात्मक सोच के बुरे व्यक्तियों को स्वतः ही प्रतिकर्षित कर देगा। सामाजिक बुराइयां, सजातीय व अनुकूल परिस्थितियों पाकर ही पनपती हैं। जब बुराइयों को अपना रूप प्रकट करने का अवसर प्राप्त नहीं होगा तो वे स्वतः ही नष्ट हो जाएंगी।
बुराइयां वहीं पनपती है जहाँ सदाचार का पक्ष दुर्बल होता है, दरिद्रता आलसी व्यक्ति के घर ही आती है, बीमारियां असंयमी व्यक्ति के घर प्रवेश करती हैं और भय हमेशा डरपोक को सताता है। यदि व्यक्ति का व्यक्तित्व सच्चा व खरा है, तो बाहरी विकृतियां उल्टे पांव वापस लौट जाती हैं। यदि अपना पक्ष पहले से ही उज्जवल व साफ़ रखा जाए तो सारे संसार के दोष मिल कर भी सज्जन व्यक्ति का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। चंदन के पेड़ पर लिपटे रहने वाले अनेकों विषैले सांप, चंदन के पेड़ को विषैला नहीं बना सकते हैं। दुष्ट व्यक्तियों की दुष्टता सज्जन व्यक्ति को कुछ पल के लिए विचलित तो अवश्य कर सकती है परंतु उन्हें परास्त नहीं कर सकती। इतिहास साक्षी है कि सज्जनता और दुर्जनता के युद्ध में सदा सर्वदा सज्जनता की जीत होती है और दुर्जनता को परास्त होना पड़ता है।
सज्जन व्यक्ति भाग्य पर विश्वास नहीं करते। वे परिस्थितियों का गुलाम बन कर नहीं रहते। वे प्रत्येक कार्य को अपनी क्षमता और विवेक के माध्यम से पूर्ण करते हैं। दुर्भाग्यवश, आंशिक विफलता होने पर विफलताओं का श्रेय लेते हुए स्वयं का पुनर्विशलेषण करते हैं और अपनी गलतियों को भविष्य में न दोहराने का संकल्प लेते हैं। यदि व्यक्ति विकृत मनोवृत्ति का है तो उसको बाधाओं से लड़कर प्रगति का मार्ग प्रशस्त करने में कठिनाई का अनुभव होता है। वह सफलता के पथ पर आने वाली कठिनाइयों की कल्पना व आशंका मात्र से ही भयग्रस्त होकर अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। इसका परिणाम होता है कि ऐसे व्यक्ति अपनी सफलताओं को वास्तविकता में परिपक्व होते हुए नहीं देख पाते। अंततः हताशा और निराशा के शिकार हो जाते हैं।
जो व्यक्ति अपने स्वभाव व दृष्टिकोण को सुधारने हेतु निरंतर सचेत रहता है, अपनी त्रुटियों को ढूंढने और उनके समाधान के लिए प्रयासरत रहता है, बुद्धिमान और दूरदर्शी कहलाता है। आहार- विहार को संयम कर, रहन-सहन को व्यवस्थित कर, नकारात्मक विचारों पर नियंत्रण कर, दिनचर्या को सुव्यवस्थित कर, आलस्य को छोड़कर और जीवन के प्रतिक्षण को उत्पादक कार्यों में लगा कर व्यक्तित्व को निखारा जा सकता है।
मानसिक दृष्टि से अगणित व्यक्ति चिंता, भय, शोक, क्षोभ, आवेश, उत्तेजना, ईर्ष्या, द्वेष, निराशा, आशंका आदि से ग्रस्त होकर दुखमय जीवन बिताते हुए नारकीय यातनाएं झेलते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज से तिरस्कृत होकर कभी-कभी आत्महत्या जैसी कठिन निर्णय लेने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों की परिस्थितियों का यदि सूक्ष्म मूल्यांकन किया जाए तो हम यह पाते हैं कि उनकी समस्याएं इतनी जटिल नहीं होती हैं कि जिनका समाधान ना निकाला जा सके, परंतु उतावलेपन और आवेश में आकर वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं और अपनी विवेकशीलता खो बैठते हैं परिणाम स्वरूप वह कर गुजरते हैं जो करने लायक नहीं होता है।
यदि मनुष्य ऐसी विपरीत स्थितियों की गंभीरता को समझे और अपने धैर्यवान, गंभीर, विचारशील और हंसमुख व्यवहार द्वारा काटने की आदत डाल ले, तो निश्चित ही उसका मन सदा संतुलित और प्रसन्न रहेगा। समस्याओं और कठिनाइयों को लेकर कुढ़ने की अपेक्षा उनका हल निकालने की प्रवृत्ति उत्पन्न करना बेहतर विकल्प साबित होता है। मन को संतुलित किए जाने वाले प्रयत्नों से जीवन के स्वरूप को बदला जा सकता है। खेल की भावना से जिंदगी की कठिनाइयों का सामना करें। समस्याओं पर सकारात्मक दृष्टिकोण रखें। अपनी सोच के दायरे को सकारात्मक रखें। दूसरे व्यक्तियों की सफलताओं पर प्रसन्नता व्यक्त करें। बुराई में से भलाई और निराशा में से आशा की किरणें ढूंढने का प्रयास करें। ऐसा कर आप ना केवल अपनी समस्याओं का हल ढूंढ लेंगे वरन् पड़ोसियों और संबंधियों के लिए भी प्रसन्नता, आशा एवं प्रेरणा का केंद्र बन जाएंगे। समाज निर्माण का कार्य आत्म-निर्माण से प्रारंभ होता है। समस्त संसार को शिक्षित कर सकने का कार्य कठिन है परंतु अपने को संवारना आसान है। अतः स्वयं के उद्धार का प्रयास करें।
अंत में परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि वह हमारे भीतर धैर्यता, गंभीरता, विचारशीलता, सहनशीलता, कर्मशीलता, सज्जनता, आध्यात्मिकता, दूरदर्शिता और जनकल्याण जैसी भावनाओं का उदय कर हमारे आत्म-निर्माण की प्रक्रिया को सुगम और सफल बनाने का आशीर्वाद प्रदान करें।
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