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मैं तो ओढ चुनरिया - 24

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय चौबीस

मरदप्रधान समाज में घर में एक मरद का होना अत्यावश्यक है । वरना घर घर जैसा नहीं लगता । इसीलिए औरतों के लिए कोई आशीर्वाद नहीं बना । उनके हिस्से में जो भी आशीर्वाद आये , वे भी उन मर्दों के लिए हैं जिन पर वह औरतें आश्रित हैं । कुमारी लङकियों को आशीष मिलती है – तेरे भाई भतीजे बने रहें । और सुहागिनों को आशीष मिलती है – तेरा सुहाग बना रहे । दूधो नहाओ , पूतो फलो । सतपुत्री हो । भगवान सात बेटों की मीँ बनाये । पूतो पोतों वाली हो आदि आदि । जैसे इन सबके बिना औरत का कोई अस्तित्व ही नहीं ।
मैं सात साल की हो चुकी थी और लोग माँ को आशीर्वाद देते देते थक चुके थे । अब औरतें माँ को किसी पीर के मजार का पता बताते । कोई किसी विशेष व्रत का विधान बता जाती । कोई कोई किसी हकीम या डाक्टर का ठिकाना सुझा जाती । माँ सबकी बात सुनती । हर मन्नत मानती । इन दिनों माँ को खासी शुरु हो गयी । खासी भी ऐसी भयंकर कि सारी सारी रात तो तक न पाती । तरह तरह के देसी नुसखों से कोई फर्क न पङता । एक वैद्य को दिखाया तो उसने बताया कि फेपङों में धूल मिट्टी गर्द जम गया है जो आसानी से नहीं जाएगा । मां जब खांसते खासते निढाल हो जाती तो अक्सर मुझे अपने साथ चिपटा लेती । रोज सौतेली माँओ की कहानियाँ सुनाती जैसे रूप बसंत , सिंड्रैला , भगत पूरन , राम बनवास और समझाने लगती – बेटा अपने पिताजी की दूसरी शादी मत होने देना । और अगर सौतेली माँ आ ही गयी तो नानी के पास चली जाना ।
ऐसे में एक दिन माँ के ताऊ की सबसे छोटी बेटी , मेरी मौसी हमारे घर आई । तोषी मौसी मेरी सबसे प्यारी मौसी थी । दोनों बहनों ने मिलकर घर का काम निपटाया । ढेर सी बातें की । अचानक मौसी ने पूछा – रानी इधर आ । तुझे बहन चाहिए या भाई । एक क्षण में ही मेरी आँखों के सामने कई बच्चे आ गये । बहे मामा की बेटी जिससे छोटे दो भाई थे । उसे कभी दूध नहीं मिल पाता था । छोटा भाई उससे फल बिस्कुट छीन कर खा जाता । मेरी सहेलियाँ जिनके घरों में भाइयों को उनसे ज्यादा ध्यान और सहूलियतें दी जाती । लङके सारा दिन खेलते रहते और वे घर के कामों में माँ का हाथ बँटाती रहती ।
मेरे मुंह से अचानक निकला – दोनों ही नहीं चाहिए । मैं तो अकेली ही ठीक हूँ ।
मौसी ने अपने माथे पर हाथ मारा – माङी किस्मत । बहन तेरी बेटी तो अकेली ही खुश है । अब क्या करें ।
वह रात और अगला पूरा दिन वे मुझे भाई होने के फायदे समझाती रही भाई होगा तो राखी बाँधेगी । भाईदूज का टीका निकालेगी । भाई ढेर सारे पैसे कमाकर लाएगा । उन पैसों से तेरे लिए चूङी लायेगा । नयी नकोर फ्राक लायेगा । तेरी डोली के साथ तेरी ससुराल जाएगा । तेरी सास ने तुझे कुछ कहा तो लङ पङेगा ... । मैं चुपचाप सिर झुकाए सुनती रही । आगे से जवाब देना तो सीखा ही नहीं था । अगर बोल पाती तो कहती कि राखी और टीका तो मैं ठाकुर जी को लगाती हूँ , वे ही मेरी ससुराल मेरे साथ जाएंगे । तुम इसकी चिंता मत करो । मौसी तीन दिन रहकर चली गयी । पर एक सवाल हमेशा के लिए मेरे दिमाग में बो गयी कि समाज में , परिवार में लङका होना क्यों जरुरी है । मैं हर घर को ध्यान से देखती – जहाँ लङकियों की जबरदस्ती शादी कर दी जाती और वे हर बार घर आती और रोती बिलखती ससुराल वापिस चली जाती । लङके शादी के दो साल के भीतर भीतर अपना चूल्हा चौंका अलग कर लेते फिर माँ बाप का हाल भी नहीं पूछते बल्कि घर में दीवारें खींच लेते । या ज्यादा करते तो कमाने केलिए किसी दूसरे शहर चले जाते फिर एक दो साल बाद बहु को भी ले जाते । बूढे माँ बाप घर में अकेले रह जाते फिर भी लङकों की माँग बनी रहती । लङकियों के पैदा होने पर मातम मना. जाता ।
और यह कहानी किसी एक घर की नहीं पूरे समाज की थी । मैंने एक दिन मौका देख कर माँ से पूछा – जिस दिन मैं पैदा हुई थी , उस दिन तुम सब रोये थे ।
माँ थाली में लेकर मूँग की दाल बीन रही थी , उन्होने हाथ वहीं रोक लिया – हम क्यों रोते हमने तो तेरे होने पर लड्डू बाँटे थे । बाकायदा सारी लङकोंवाली रसमें की थी । पंडित को बुलाकर पूजा करवाई थी । और माँ मुझे मेरे जन्म वाले दिन की कहानी सुनाने लगी थी ।

उस दिन दिन निकलने के साथ ही अस्पताल में चहल पहल शुरु हो गयी थी । साफसफाई करनेवाले कर्मचारी आ गये थे । इक्का दुक्का मरीज भी दीखने लगे थे । रवि एक कोने में बैठा था । उसका दिल बुरी तरह से धङक रहा था । घबराहट के मारे बुरा हाल था । लेबर रूम में धर्मशीला जितनी जद्दोजद कर रही थी , उतनी ही जद्दोजद इस समय उसके दिमाग में चल रही थी । वह बरामदे में इधर उधर टहल रहा था । मन ही मन सभी देवी देवताओं का स्मरण कर रहा था । पास में ही सभी पङोसनें इस समय साँस रोक कर खङी थी । एक घंटा बीत गया । एक एक पल कई युगों जैसा बीत रहा था । धीरे धीरे सात बज गये ।
अचानक आसमान में बादल छा गये । ठंडी मीठी हवा चलने लगी । मौसम सुहावना हो गया । रात की हुमस और सुबह से ही छाई हुई तपिश खत्म हो गयी । आज आषाढ की अष्टमी तिथि है । शुक्ल पक्ष की अष्टमी । जब कृष्ण पैदा हुआ तो अंधेरी अष्टमी थी । वह भी आधी रात की । तब बारह बजे का समय था । अब दिन के आठ बजने को है । थोङी देर में उसका कृष्ण आएगा या राधा ?
रवि को अपनी सोच पर शर्म आ गयी । हर बच्चा कृष्ण थोङा न होता है । वैसे भी उसने तपस्या कहाँ की । सुना है बहुत तपस्या करनी पङती है । तब देवता वरदान देते हैं । उसकी सोचों पर ब्रेक लगा । लेबररूम से बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी । ये आवाज । नहीं नहीं मेरा वहम है । तब तक सब औरतें लेबररुम के दरवाजे पर पहुँच गयी थी । सबने मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद किया । शुक्र है , बच्चा दुनिया में सही सलामत आ गया । यानि जो आवाज उसके कानों तक पहुँची थी , वह सही में उसके अपने खून की आवाज थी । उसके हाथ जुङ गये । शुक्राने में या प्रार्थना में उसे खुद नहीं पता । इतने में दरवाजा खुला और नर्स मुँह लटकाए बाहर निकली । सबके हँसते हुए चेहरे नर्स को उदास देखकर घबरा गये ।
“ सब ठीक तो है न ? “
नर्स ने इस बात को कोई जवाब नहीं दिया , अपना हाथ बढाते हुए बोली – “ तेल साबुन कपङे तौलिया जो सामान लाए हो जल्दी दो “ । झाई ने चुपचाप सामान का झोला पकङा दिया । सामान लेकर नर्स लपकती हुई फिर बंद दरवाजे के पीछे अलोप हो गयी । दरवाजा अभी बंद था एक रहस्यमयी गुफा की तरह । सब लोग उस बंद दरवाजे को ताकते हुए गुमसुम खङे रहे । आखिर चुप्पी तोङी तार ने – “ नर्स कपङे ले गयी । मतलब बच्चा तो ठीक है “ ।
“ फिर ये नर्स इतना सङी सी शक्ल बनाके क्यों घूम रही थी “ ?
रवि के कलेजे में हूक सी उठी – धम्मो । नहीं नहीं । ये अंदर से कोई बाहर आये तो कुछ पता चले । करीब दस मिनट बाद फिर से दरवाजा खुला । अम्मा जवाई के हाथों में गुलाबी तौलिये में लिपटा छोटा सा खिलौना था । उसने लाकर रवि के सामने कर दिया – ले पकङ भाई । रवि झेंप गया । चाहते हुए भी उसके हाथों ने बाहर निकलने से इंकार कर दिया । आखिर बङों का लिहाज भी कोई चीज है । इस बच्चे ने तो सारी जिन्दगी उनके साथ ही रहना हुआ । तब तक आगे बढकर झाई ने बच्चे को गोद में उठा लिया ।
रवि ने सवालिया नजरों से नर्स और अम्मा को देखा ।
“ बेटी हुई है “।
“ सच में “ ?
नर्स ने हाँ में सिर हिलाया ।
रवि का चेहरा गुलाब हो गया । उसने जेब से पाँच पाँच के दो नोट निकाले और एक अम्मा को और एक नर्स को थमा दिया ।
नर्स ने अविश्वास और हैरानी से रवि को देखा । आजतक लङका होने पर भी एक या दो कलदार ही बधाई में मिलते थे । वह भी लङके की नानी या नाना होते तो दे देते । कभीकभार कोई दादी या दादा भी । पर किसी बाप ने पहली बार दिए थे । वह भी बेटी के होने पर और वह भी कङकता हुआ पाँच का नोट । रवि ने उनके अचरज को देखा ही नहीं । वह धम्मो को बारे में सुनना चाहता था पर कैसे पूछे , शर्म और संकोच की दीवार बीच में थी । इतने में डाक्टर आती दिखाई दी । रवि ने आगे बढकर डाक्टर के पैर छू लिए ।
“ बधाई हो । बेटी हुई है । बङी खूबसूरत है । सामान्य केस रहा । मरीज बिल्कुल ठीक है । शाम को माँ बेटी को घर ले जा सकते हो । थोङी कमजोर है , खास ख्याल रखना पङेगा “ ।
रवि ने आगे की बातें तो सुनी ही नहीं । वह दौङ गया । चंद मिनटों में ही लड्डू लेकर लौट आया । लड्डुओं का लिफाफा उसने ताई को पकङाया – “ ले ताई सबका मुँह मीठा करवा दे “।
झाई ने धीरे से कहा –“ बेचारा लङकी होने की बात सुनकर पगला गया है “ ।
अम्मा ने सबको सुना कर कहा – “ पगलाएगा क्यों ? आज आँधी आ गई है , कल बादल भी आएंगे । और परिवार में बेटा बेटी दोनों होने चाहिएं । बेटियों के बिना त्योहार कैसे बनेंगे । कन्यादान का पुन्न कैसे मिलेगा “ ।
“ सही है अम्मा । जिनके घर बेटी नहीं होती । त्योहार पर सूने बैठे रहते हैं “ ।
“ कन्यादान के बिना तो घर की देहली पवितर ही नहीं होती “ ।
“ बेटियाँ ही माँ का दर्द बटाती है । बेटों के बस का नहीं होता माँ बाप का दुख समझना “ ।
सबको बातों में मग्न देख रवि धीरे से खिसकने लगा ।
“ ओए! तू कहाँ चला “ ?
“ माँ को लेने “ और तेरे पिताजी तेरी दादी को लेने कोटकपूरा चले गये थे । अब बता – तेरे होने पर कोई क्यों रोता । अच्छा उस दिन की मौसी की बात अब तक सोच रही है । पगली एक भाई बहन और होगा तो तू उसे खिलाना । वह तेरी गोदी में खेलेगा तो तेरा मन लगा रहेगा । है न ।
छोटे भाई बहन को गोद में खिलाने की कल्पना से मैं पुलकित हो गयी ।

बाकी अगली कङी में ...