मैं तो ओढ चुनरिया - Novels
by Sneh Goswami
in
Hindi Fiction Stories
कोई भूखा मंदिर इस उम्मीद में जाय कि उसे एक दो लड्डू या बूंदी मिल जाय तो रात आराम से निकल जाएगी और वहाँ से मिले मक्खन मलाई का दोना तो जो हालत उस भूख के मारे बंदे की ...Read More, बिल्कुल वैसी ही हालत इस समय मेरे माता पिता का थी । मागा था एक लड्डू । न सही लड्डू , मलाई का दोना तो मिला । शुक्र करते बार बार सिरजनहार का ।
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय एक कोई भूखा मंदिर इस उम्मीद में जाय कि उसे एक दो लड्डू या बूंदी मिल जाय तो रात आराम से निकल जाएगी और वहाँ से मिले मक्खन मलाई ...Read Moreदोना तो जो हालत उस भूख के मारे बंदे की होगी , बिल्कुल वैसी ही हालत इस समय मेरे माता पिता का थी । मागा था एक लड्डू । न सही लड्डू , मलाई का दोना तो मिला । शुक्र करते बार बार सिरजनहार का । मेरे जन्म का स्वागत मेरे माँ – बाबा ने खुले दिल से किया था । करते
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय दो अगले दिन सूरज उगने से पहले मैं उठ बैठी तो माँ की नींद भी खुल गयी । मेरे रोकर बताने पर भी माँ शायद समझ नहीं पाई थी , मेरा बिस्तर ...Read Moreहो गया था और मैं पैर पटककर सबको बुला रही थी । अम्मा ने दौङकर मुझे उठाया , मेरे कपङे बदलवाकर माँ को पकङा दिया । मुझे दूध पिलाते पिलाते माँ की नजर सतिए (स्वास्तिक) की चौकी पर रखी बही पर गयी । उसका वह पन्ना , रात में हवा के वेग से या किसी चमत्कार से पलट गया था
अध्याय तीन अगले छ: दिन सुख – शांति से बीत गये । सातवें दिन सुबह सुबह पूरा घर धोया - पोंछा गया । चादरें बदलकर नयी चादरें बिछा दी गयी । पुरानी धुलने के लिए डाल दी ...Read More। मुझे पहले तेल से नहलाया गया फिर दही और पानी से । नये कोरे कपङे में लपेट कर धूप में लिटा दिया गया । तब तक मुझे भूख लग आई थी । मैंने पुकारा – माँ । शायद यहाँ किसी को मेरी भाषा समझ नहीं आई । कहीं से कोई उत्तर नहीं मिला । मैंने ध्यान खींचने के लिए
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय चार आषाढ बीत गया। सावन आ गया । दोपहर ढलते ही हवा में थोङी ठंडक घुलने लगी थी । कहीं आसपास ही बारिश हो रही होगी । माँ ...Read Moreमुझे इतना कस कर तौलिए में लपेट लिया कि मेरा साँस घुटने लगा था । घबराहट के मारे मेरा बुरा हाल हो गया । मन कर रहा था कि यह तौलिया पैर मार - मारकर कहीं दूर फेंक दूँ और ये औरतें मुझे कपङों से लादती जा रही थी । मेरा हर विरोध बेकार हुआ जा रहा था । झाई ने मुझे
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय पाँच शाम होते ही दोनों मामा ,मां और दो संदूकों के साथ रिक्शा में बैठकर हम सब चल पङे हैं । माँ ने मुझे दुपट्टे में छिपा रखा है । ...Read Moreतरह तरह की आवाजें आ रही हैं और मैं इन्हें बिलकुल नहीं देख पा रही । यह अहसास मुझे उन दिनों की याद करवा रहा है ,जब मेरा जन्म नहीं हुआ था । माँ कहीं बाजार जाती , तब भी मैं सिर्फ सुन पाती थी । कुछ दिखाई नहीं देता था । तब मैं कितना डर जाती थी और पैर पटकती
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय छ: घर आते ही माँ ने सामान सम्हाल कर रखते हुए शगुण में मिले पैसे गिने । कुल जमा तीन सौ रुपए हुए नोट और सिक्के मिलाकर । इतनी बङी ...Read More! माँ पुलकित हो उठी । सगन काफी थे ,इसका अनुमान था उसे पर इतने निकलेंगे ऐसा तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था । पूरा दिन वह जोङतोङ और कतरव्योंत में लगी रही । क्या करे वह इतने रुपयों का । हैरान हो रहे हो न आप यह सब सुनकर । आज तो पैसे की कीमत ही नहीं है
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय सात साढे चार बजे के अंधेरे में बसअड्डे से निकली बस ने इधर फगवाङा पार कर होशियारपुर की सङक पर पैर रखा , उधर सूरज ने अपने कंबल से थोङा सा मुँह ...Read Moreनिकाला । होशियारपुर पहुँचते ही सूरज अपनी रश्मि के साथ सैर पर चल पङा था । ड्राइवर ने बस एक ढाबे पर लगाई – भई दस मिनट रुकेंगे यहाँ । थोङी नींद की खुमारी उतार लें । तुम लोग भी मुँह हाथ धो लो । चाय पी लो पर सही दस मिनट में सीट पर बैठे मिलना । लोग आधे
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय आठ रात मंदिर से सटी एक धर्मशाला में बङे से हाल में कटी । कोठारी ने दरियां झङवाकर बिछवा दी थी । रात को तुलाइयां और कंबल भी दे गया ...Read Moreलोग खुश हो गये ,- “ देखा महामाई सबकी फिकर खुद करती है । इन पंडित के मन में कैसे माया भर दी वरना आजकल कोई किसी की परवाह करता है क्या ? “ सोने जा रहे लोगों के बीच फिर से बातों का दौर चल पङा – लोग माता के चमत्कार की दंतकथाएं सुनाने लग पङे । यहीं ज्वालामुखी मंदिर
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय नौ टेढी मेढी पगडंडियों वाली सर्पाकार सङकें , जो ग्रामवधु की तरह घूँघट में से झांक कर फिर दामन की ओट में हो जाती हैं । एक तरफ पहाङ , ...Read Moreओर कई किलोमीटर गहरी खाइयाँ । हर तरफ हरियाली । आम और लीची के पेङ , लौकाट और अखरोट के पेङ । लहराती हुई मक्का की फसल । एक तरफ प्रकृति अपना मरकत का खजाना खोले मणियाँ बिखेर रही थी । दूसरी ओर गहरी खाई यमराज की सहेली लगती । जरा सी असावधानी से बस गहरी खाई में समा सकती थी
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय दस बुआ के जाने के दसवें दिन बुआ का पत्र मिला । एक पोस्टकार्ड जिस पर लिखा कम गया था । काट पीट ज्यादा की गयी थी । हर लाईन ...Read Moreकाट दी गयी थी । फिर आगे किसी फिल्म की कहानी लिखी थी और अंत में अनुरोध कि इस छोटी बच्ची का नाम सेवारानी नहीं सुलोचना या सुरैया ऐसे ही ढेरों सिने तारिकाओं के नाम थे और साथ ही ताकीद की गयी थी कि जल्दी जलदी मिलने के लिए बुलवा लिया करें । माँ कितनी देर तक उस पोस्टकार्ड को सीने
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 11 उस दिन के बाद से माँ और पिताजी के बीच तनाव आ गया था । पिताजी का अहम उनको झुकने नहीं दे रहा था । माँ दोनों वक्त रोटी ...Read Moreऔर चुपचाप थाली पिताजी के सामने रख देती । पिताजी चुपचाप रोटी खाते और काम पर चले जाते । माँ सारी रात मुझे आँचल में लिए रोती रहती । मैं उस दर्द को महसूस कर रही थी पर क्या करती ।कुछ करना चाहती थी ,पर एक दस महीने की बच्ची के मन की बात कौन सुनता । इसी माहौल में तीन
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 12 माँ ने हर खुली खिङकी और हर आधे खुले आधे भिङे दरवाजे को श्रद्धा और प्यार से देखा और दोनों हाथ जोङ दिये । कुछ बूढी औरतें अपने घरों ...Read Moreबाहर आकर माँ से मिली । घूँधट निकाल कर दामाद को आशीष दी । मुझे गोद में लेने को हाथ बढाया पर मैं माँ से चिपक गयी थी । माँ ने सामान रिक्शा पर ही लदा रहने दिया और अन्दर अम्माजी के पास चली गयी । थोङी ही देर बाद अम्माजी नीचे उतरी और माँ का हाथ पकङे माथे तक घूँघट
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय - 13 सहारनपुर मुसलमानों का शहर । सहारनपुर रिफ्यूजी शरणार्थियों का शहर । शहर के बीचोबीच मुसलमानों के मौहल्ले । और शहर से बाहर शरणार्थियों के कैंप । ...Read Moreसहारनपुर आकर मेरी दिनचर्या ही बदल गयी । सुबह बङे मामा अपने अखाङे जाने के लिए निकलते तो इधर से होकर ही निकलते । मेरी अठन्नी पक्की थी जो वे आते ही चुपचाप मेरी हथेली पर टिका देते । अगर मैं नहाकर नाश्ता कर चुकी होती तो अपने साइकिल के डंडे पर बिठाकर अपने अखाङे ले जाते । जहाँ एक लंबी दाढी और भगवा
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय - चौदह अभी तक आप पढ रहे थे , मेरे होने के बाद माँ की जिंदगी में व्यवस्था आने लगी थी कि अचानक पिताजी की नहर वाली नौकरी में ...Read Moreशुरु हो गयी । एक महीना तो जैसे तैसे निकल गया पर बकरे की माँ कब तक खैर मनाती । जिस दिन पगार मिली , उसी दिन काम पर से जवाब मिल गया । कुछ दिन जमा पुंजी से काम चला पर यह लंबे समय तक चलने वाला नहीं था इसलिए दम्पति ने फैसला किया कि एक बार फिर से सहारनपुर जाकर
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय पन्द्रह नियत समय पर सबने मिलकर बेबे को नहलाया । नये भगवा रंग के कपङे पहनाये , उन्हें पालथी मार कर बैठाया और उन्हे कहीं ले गये । मुझे समझ ...Read Moreआ रहा था कि नानी कहीं चली गयी है तो ये सब इतना रो क्यों रहे हैं । जब उनका मन करेगा , वे लौट आयेंगी जैसे हम फरीदकोट जाते हैं फिर वापिस आ जाते हैं वैसे ही । फिर धीरे धीरे समझ आई कि बेबे अब नहीं आयेगी । वह भगवान के पास चली गयी है । ऊपर आसमान में
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय -16 पाठशाला में दो चीजें मुझे बहुत अच्छी लगती , एक तो तख्ती सुखाना । हम घर से एक तरफ वर्णमाला और दूसरी तरफ गिनती लिखकर लाते । बहनजी हर ...Read Moreको बुलाकर उसकी तख्ती देखती फिर तख्ती पोचने भेज देती और हम पाठशाला के इकलौते नल पर बैठे अपनी बारी का इंतजार करते । बारी मिलती तो इतना खुश होते मानो कारुं का खजाना मिल गया हो । फिर घिस घिस कर तख्ती साफ करते , फिर गचनी या मुलतानी मिट्टी से तख्ती पर लेप लगाते । इसके बाद तख्ती धूप
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय -17 पिताजी माँ की बात टाल गये । लेकिन माँ को जुनून सवार था इसलिए सुबह उठते ही उसने फिर से मकान बनाने की बात छेङी । पर पिताजी को काम ...Read Moreजाना था और मुझे पढने सो बात बीच में ही रह गयी । समस्या पैसों की थी । मकान बनाना कोई गुङिया की शादी रचाना नहीं था । पर माँ की लगन का क्या करते । माँ मौके बेमौके मकान शुरु करने की बात ले बैठती । आखिर हार कर पिताजी नींव बनाने के लिए मान गये । माँ की खुशी का
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 18 कई दिन तक केसरादेई और उसकी कहानी मेरे दिमाग पर हावी रही । कैसे एक माँ अपने स्वार्थ के चलते किसी दूसरे की बेटी की जिंदगी बर्बाद कर सकती है । और एक ...Read Moreसाल की लङकी ने माँ बाप की इज्जत और धर्म के नाम पर अपनी पूरी जिंदगी लुटा दी बिना शिकवा शिकायत किये । कितना सहना पङा होगा उस तेरह साल की बच्ची को । फिर आदि होती चली गयी होगी इस जिंदगी की । एक दम गोरी चिट्टी रंगत में जैसे गुलाब और केसर का चूर्ण मिलाकर विधाता ने
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय -19 रजनी और रेखा से अगला घर था लाजवंती मामी का जिनके चार लङके और दो बेटियाँ थी । मामा की साईकिल के पंक्चर लगाने की दुकान थी बेहट बस अड्डे पर ...Read Moreतो बङे दोनों भाई भी हर छुट्टी वाले दिन दुकान पर चले जाते और दिनभर साईकिलों में पंक्चर लगाया करते । मामी को हर रोज कोई न कोई मारी लगी रहती तो बङी रानी घर को सारे काम करती । इतने बङे परिवार के कपङे दो कनस्तरों में उबालकर सिर पर लाद लाती रजबाहे पर और रजबाहे में लकङी का
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय बीस नींव की खुदाई शुरु हो गयी । दो मजदूर सुबह आठ बजते ही आ जाते और मन लगाकर नींव की खुदाई करते । मैं स्कूल से लौटती तो माँ प्लाट में ...Read Moreके लिए तैयार मिलती । मुझे कपङे बदलवाकर वे मुझे लगभग घसीटते हुए तपती हुई सङक पर लगभग भागती हुई चलती । माथे से पसीना टपक रहा रहा होता । गरमी और धूप से मैं बेहाल हो जाती । प्यास से मेरा गला सूख रहा होता पर माँ तो अपनी ही धुन में चलती चली जाती । मैं रुआसी हो
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय इक्कीस बीस दिन की अनथक मेहनत के बाद नींव बन कर तैयार हो गयी । उस दिन हमने घर आकर पैसों की थैली निकाली और पैसे गिने । अभी भी ...Read Moreपिचानवें रुपये पङे थे । माँ ने दो बार सिक्के गिने फिर मुझे गिनने को दिये । वाकयी पूरे पिचानवे रुपए बाकी थे यानि नींव और भरत का सारा काम सिर्फ चार सौ रुपये में निपट गया था । रात को रोटी खाने के बाद माँ ने वह थैली पिताजी के सामने रख दी । मैंने भी अपनी गुल्लक निकाली और
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय बाईस औरत की जिंदगी भी क्या है , दिन रात चूल्हे चौंके में खपो । बाल बच्चे संभालो । रात में मन हो या न हो , थकान के मारे बदन बेशक ...Read Moreकर रहा हो पर मरद का पहलू गरम करो । मरद का जब मन करे लाड लडाये और जब मन करे लातो घूस्सों से धुन कर रख दे । इस माधव नगर मौहल्ले की औरतें ऐसा ही अभिशप्त जीवन जीने को विवश थी । उस पर बात बेबात में घर भर के लोगों से गाली गलौज सुनना उनकी नियति थी
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय तैंतीस बचपन बचपन ही होता है । एकदम भोला और मासूम । दुनिया जहान की फिक्रों से बेखबर । सीधा और सच्चा । इसकी बात यूँ याद आई कि मैं चौथी ...Read Moreमें पढती थी । मेरी कक्षा में मेरे साथ तीस लङकियाँ और पढती थी । सब अलग अलग जातियों से । उसी कक्षा में चार कुम्हारों की लङकियाँ भी पढती थी । पुष्पा , शीला , दया और क्षमा । एक बार ये चारों लङकियाँ कक्षा से अनुपस्थित रहने लग गयी । एक दिन । दो दिन । तीन दिन । एक
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय चौबीस मरदप्रधान समाज में घर में एक मरद का होना अत्यावश्यक है । वरना घर घर जैसा नहीं लगता । इसीलिए औरतों के लिए कोई आशीर्वाद नहीं बना । उनके हिस्से में ...Read Moreभी आशीर्वाद आये , वे भी उन मर्दों के लिए हैं जिन पर वह औरतें आश्रित हैं । कुमारी लङकियों को आशीष मिलती है – तेरे भाई भतीजे बने रहें । और सुहागिनों को आशीष मिलती है – तेरा सुहाग बना रहे । दूधो नहाओ , पूतो फलो । सतपुत्री हो । भगवान सात बेटों की मीँ बनाये । पूतो
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय पच्चीस उन्हीं दिनों हमारे परिवार पर दुखों का पहाङ टूटा । बङे मामा जी डाक विभाग में बङें बाबू हो गये थे । तार का कोर्स करके आने के बाद उनकी प्रमोशन ...Read Moreक्लर्क के तौर पर हो गयी । उसके बाद उन्हें उपडाकघर का चार्ज देकर एक छोटे डाकखाने का प्रभारी बना दिया गया । अब वे सुबह साढे आठ बजे घर से जाते और देर रात गये वापिस आते । इन्हीं दिनों उनका ट्रांसफर बेहट हो गया । यह एक छोटा सा कस्बा था । मुस्लिम बहुल इलाका । छोटा सा
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 26 उम्मीद तो यह थी कि रात को दिये इंजैक्शन से भरपूर नींद लेने के बाद मामाजी एकदम तरोताजा होकर उठेंगे और बिल्कुल ठीक हो जाएंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ । ...Read Moreसुबह पाँच बजे दहाङते हुए उठे । उठते ही सामने रखी प्लेट मुक्का मार कर टेढी की फिर मोङकर तह कर दी । एक पीतल का तीन पाव दूधवाला गिलास तोङ दिया । फिर अपना पहना हुआ कुर्ता फाङा और भयानक हँसी हँसते हुए घर से बाहर दौङ गये । नानी और मामी ने शोर मचाया तो अङोस पङोस के
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय – सत्ताइस मामा का पागलपन थमने का नाम ही नहीं ले रहा था । हर रोज वे अपने पागलपन में किसी को पकङ कर पीट देते । घर में तोङफोङ करते या ...Read Moreखुद को ही चोट पहुँचा लेते । इस बीच उन्होंने दो बार आत्महत्या की कोशिश भी की पर हर बार बचा लिये गये । बेचारी नानी और छोटे मामा , जहाँ भी कोई बताता , वहीं उन्हें ले जाते । कोई मंदिर , कोई गुरद्वारा , कोई मजार उन्होंने नहीं छोङा । हर रोज नया गंडा ताबीज उनके गले और
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 28 “ फिर उसने जंगल में जाकर पुकारा माँ “ ? हाँ , पुकारा न । अगले दिन मोहन ने जंगल में पहुँचते ही पुकारा – गोपाल भैया । कोई उत्तर ...Read Moreमिला । उसने फिर पुकारा । मोहन लगातार गोपाल को पुकारता रहा । पेङ पौधे भी उसके साथ पुकारते – गोपाल भइया । पुकारते पुकारते उसका गला सूख गया तो भगवान प्रकट हुए । भाई मैं गाय चराने दूर निकल गया था । अभी किसी ने बताया कि तुम पुकार रहे हो तो दौङा चला आया । चलो तुम्हें पाठशाला पहुँचा
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 29 मैंने भी उस साल बारहवां साल पूरा कर लिया था और तेरहवें साल में आ गयी थी । अब मैं नौवीं कक्षा में हो गयी थी । मैं मैडीकल ...Read Moreलेकर डाक्टर बनना चाहती थी पर नहीं बन सकी । उसके कई कारण थे – पहला कारण तो समाज था । तब तक समाज में लङकियाँ तभी तक पढती थी जब तक उनके लिए कोई योग्य दूल्हा नहीं मिलता था । पढाई ठीकठाक पढा लिखा वर पाने की गारंटी थी । जिस दिन कोई वर ठीक कर दिया जाता , उसी
अध्याय 30 मेरी क्लास में सबसे पीछे की सीट जो कक्षा के कमरे के एक कोने में रखी रहती , हमेशा रिजर्व रहती थी । जहाँ बाकी सब लडकियाँ अपनी अपनी सीट के लिए भागती दौड़ती आती ...Read Moreलेट हो जाने पर अक्सर सीट छिन जाती , वहां वह कुर्सी हमेशा आने वाली का इन्तजार करती खाली पड़ी रहती । जब सब लड़कियां अपने बैग अपनी कुर्सी पर टिका कर प्रार्थना के लिए चली जाती , तब वह डरते डरते क्लास में आती । चुपके से कुर्सी पर बैठकर बस्ता गोद में लेती और पूरा दिन चुपचाप वहीं
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 31 अब स्याही और सोंफ की पुङिया बनाने का काम बंद हो गया था पर टाफियों पर रैपर लपेटने काकाम बदस्तूर जारी था । कढाई के काम में मैंने महारत ...Read Moreकरली थी । कुछ कढाई मैंने पहले ही माँ से सीख ली थी बाकी मझली मामी ने सिखा दी । मामी की शेड इतनी खूबसूरत होती थी कि कोई यह न समझ पाता था कि कौन सा धागा कहाँ से शुरु होकर कहाँ खत्म हुआ । कई कई शेड के गुलाबी धागे लेकर वह गुलाब के फूल काढती कि देखने वाला
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 32 रातभर किताबें अलग अलग आकार प्रकार में मेरी आँखों के सामने नाचती रही । ढेर की ढेर किताबें । जरा सा आँख लगती कि वे किताबें मेरे सामने नाचने ...Read More। मैं उन्हें पकङना चाहती तो वे गायब हो जाती । मैं उन्हें पकङने के लिए भाग दौङ करने में पसीना पसीना हो जाती तो मेरी नींद खुल जाती । सारी रात किताबों से मेरी आँखमिचोली चलती रही । इससे पहले माँ ने मुझे पाठ्यपुस्तकों के अलावा केवल व्रतकथा की पुस्तकें ही पकङाई थी जिनका पाठ मुझे पङोस की औरतों को
मैं तो ओढ चुनरिया 33 इस घटना के बाद दस बारह दिन शांति से बीत गये । एक दिन मैं क्लिनिक में बैठी जार से कफसिरप छोटी शीशियों में डाल रही थी । एक दिन ...Read More, तीन दिन की , पाँच दिन की खुराकें तैयार हो रही थी कि वह आदमी लपकता हुआ आ टपका – सुन , मेरी दवाई मिली ? हमारे यहाँ दिल की दवाई नहीं मिलती । तुम किसी स्पैस्टलिस्ट के पास जाकर दिखा आओ वरना तकलीफ बढ जाएगी तो मुश्किल में पङ जाओगे । वह कुछ अजीब तरीके से मुस्कराया – पर मुझे
मैं तो ओढ चुनरिया - 34 उस आदमीनुमा लङके का दिखाई देना तो बंद हो गया पर सवाल अपनी जगह कायम थे कि उस दिल के मरीज लङके ने किसी अच्छे डाक्टर को दिखाया या नहीं । ...Read Moreदिल की दवा मिली या नहीं । तभी किसी पङोसन के हार्ट अटैक से मरने की खबर मिली तो ये बेचैनी और बढ गयी । उन्हीं दिनों बाबी पिक्चर थियेटर में लगी । ऋषि और डिंपल के इश्क के चर्चे आम हो गये । अब सङकों पर लङके जोर जोर से मैं शायर तो नहीं और हम तुम इक कमरे
मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 35 कुरुक्षेत्र एक ऐतिहासिक , धार्मिक और सांस्कृतिक शहर है । कुरुक्षेत्र वही जगह है, जहां भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। कौरवो और पांडवों के ...Read Moreहस्तिनापुर के राज सिंहासन की लड़ाई इसी जगह हुई थी, जिसे महाभारत के युद्ध के नाम से जाना जाता है। ब्रह्म कुंड को हिंदुओं द्वारा पवित्र माना जाता है और यह अविश्वसनीय रूप से सुंदर है। अल बरूनी के लेखन में इस पवित्र जलाशय का उल्लेख भी किया गया है। सूर्य ग्रहण पर यहां स्नान मेले में हजारों की भीड़ उमड़ती
मैं तो ओढ चुनरिया 36 हमारी गली में हमारे घर से चार घर छोङ कर रहती थी मेरी सहेली संतोष । उसकी एक बहन थी कमली और एक भाई चंदन । उसके बाऊजी को मैं ...Read Moreकहती और माँ को मामी । मामाजी सीधे सादे सज्जन थे । सब्जी की रेहङी लगाते । जो भी बचता , उसी से घर का गुजारा चलता । तीनों भाई बहन पाँचवी तक पढे थे । उसके बाद पढने की गुंजाइश ही नहीं थी । दोनों बहने सलाइयां और ऊन या कोई तकिया लेकर माँ से नमूना सीखने आ जाती ।
मैं तो ओढ चुनरिया 37 धीरे धीरे मेरी सारी सहेलियाँ शादी करवा कर अपनी ससुराल चली गयी थी और येन केन प्रकारेण अपनी ससुराल में सैट होने की कोशिश में लगी थी । यह वह समय था ...Read Moreलङकियों की शादी पंद्रह साल से अट्ठारह साल के बीच कर दी जाती थी । वर का मात्र कुल गोत्र देखा जाता था या खानदान की प्रतिष्ठा । वर की आयु , आय या शिक्षा का कोई महत्त्व्र न था । यह मान लिया जाता था कि खानदानी लोग है । वहाँ लङकी को खाने पहनने की कोई कमी
मै तो ओढ चुनरिया 38 विजय दीदी की शादी के बाद सात महीने बीते होंगे कि उनसे चार साल छोटी मनोरमा जीजी की शादी भी तय हो गयी । परिवार बहुत अच्छा था और जीजाजी संस्कारी । ...Read Moreका मुहुर्त एक महीने बाद का ही निकला और एक सादे से समारोह के बाद यह जीजी भी दुल्हन बन कर अपनी ससुराल जा बसी । अब माँ को मेरी शादी की चिंता सताने लगी । वे अक्सर अपने भाइयों से मेरी शादी पर बात करती नजर आती । अक्सर वे किसी न किसी मामा के साथ भावी वर को
मैं तो ओढ चुनरिया 39 चाचाजी की सगाई ठीकठाक निपट गयी और हम सहारनपुर अपने घर लौट आये । अब शादी में दो महीने बाकी थे तो पिताजी जोरशोर से शादी की तैयारी में जुट गये । ...Read Moreदो महीने तो नाचते गाते तैयारियाँ करते बीत गये । पिताजी इस शादी के लिए अतिरिक्त उत्साही थे । होते भी क्यों न आखिर इकलौते भाई की शादी की बात थी । माँ इन दिनों चिंता में डूबी नजर आती । पिताजी ने अपनी नौकरी छोङ दी थी । आजकल बाहर की बैठक में मरीज देखा करते । काम कोई