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करवट बदलता भारत - 9

’’करवट बदलता भारत’’ 9

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

समर्पण—

श्री सिद्ध गुरूदेव महाराज, जिनके आशीर्वाद से ही

कमजोर करों को ताकत मिली,

उन्‍हीं के श्री चरणों में

शत्-शत्‍ नमन के साथ-सादर

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

काव्‍य यात्रा--

कविता कहानी या उपन्‍यास को चाहिए एक संवेदनशील चिंतन, जिसमें अभिव्‍यक्ति की अपनी निजता, जो जन-जीवन के बिल्‍कुल नजदीक हो, तथा देश, काल की परिधि को अपने में समाहित करते हुए जिन्‍दगी के आस-पास बिखरी परिस्थितियों एवं विसंगतियों को उजागर करते हुए, अपनी एक नई धारा प्रवाहित करें- इन्‍हीं साधना स्‍वरों को अपने अंक में लिए, प्रस्‍तुत है काव्‍य संकलन- ‘’करवट बदलता भारत ‘’ – जिसमें मानव जीवन मूल्‍यों की सृजन दृष्टि देने का प्रयास भर है जिसे उन्‍मुक्‍त कविता के केनवास पर उतारते हुए आपकी सहानुभूति की ओर सादर प्रस्‍तुत है।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त‘’

प्‍यार में बदलो----

समय अच्‍छा जभी होता, पत्‍थर बोलते दिखते।

नदियां गीत नव गातीं, लगैं ज्‍यौं कोई हौं रिश्‍ते।।

जिन्‍हें हम बे-वफा समझे, निकले बावफा बोई-

हमे भटका गए यौं ही, जुनूनी बख्‍त के रिश्‍ते।।

हमारी समझ मे, लकवा लगा था कोई तो ऐसा-

जिन्‍हें हम देवता समझे, निकले बोई फरिश्‍ते।।

लबो पै अब तो आना चाहिए,इजहार की भाषा,

प्‍यार की राह अपनाओ, छोड़कर दुश्‍मनी रिश्‍ते।।

हुनर अपना तो, तरासो आंधियों के दौर में-

तोड़ना छोड़ो, बनाओ आशियाने रिश्‍ते।।

क्‍या समझ रखे है तुमने, जिंदगी के चार दिन-

जिसको दिल-सुकूं जीलो, बना कर सुकूं के रिश्‍ते।।

थक न जाएं राह में, इंशान की कमजोरियां-

बढ़ाकर हाथ अपना ही, बनाओ दोश्‍ती रिश्‍ते।।

बख्‍त के मानिंद चलना, सीखना है हमसफर-

जोड़ना तुमको ही होंगे, बख्‍त के रिश्‍ते।।

हम तुम्‍हारे हैं अभी, मनमस्‍त यह भूलो नहीं-

प्‍यार में बदलो तो साथी, मौत के रिश्‍ते।।

बदलता मौसम--

इस कदर मौसम बदलता क्‍यों गया।

हाथ का, क्‍यों हाथ यहां दुश्‍मन भया।।

वे हवाएं, राह क्‍यों बदलीं दिखीं-

नेह का परिचम, पुराना कहां गया।।

आज वे जंगल, बुलाते क्‍यों नहीं-

रूप उनका यह भयावह, क्‍यों भया।।

चीखती क्‍यों आज है, कोई रोशनी-

कौन सा रावण यहां, पैंदा भया।।

उन सितारों को छुपाने, आज फिर-

बादलों का घेरा यह, कैसा भया।।

हो आवारा, टूटते क्‍यों सितारे-

आसमां किस रंग में, डूबा भया।।

लग रहा, हम पिट रहे हैं कहीं तो-

आज का व्‍यवहार क्‍यों, चौसर भया।।

चीत्‍कारों का समर क्‍यों, दिख रहा-

हास क्‍यों, परिहास में बदला गया।।

घूमती आवारगी, क्‍यों रात दिन-

मनमस्‍त सुख का साज, कहां ओझिल भया।।

अपनों को क्‍यों खो रहा है-

कितना घना-सा, धुआं हो रहा है।

कोई तो बेजार होकर, रो रहा है।।

ये कैसी है दुनिया, समझ में न आता-

अपना ही, अपनों को, यहां खो रहा है।।

रोशनी ही बनी क्‍यों, कैदी यहां पर-

गुलशन में आकर के, खार बो रहा है ।।

छाया हुआ, हर गली में कुहां-सा-

इससे ही सारा, राजपथ रो रहा है।।

दुनियां नहीं, तब दौलत हो किसको-

कैसी जमी पर, आज- सो रहा है।।

चिंता नहीं क्‍यों, तुमको है भाई-

अपने ही द्वारे-अपनी धो रहा है।।

कहीं भी लगे आग-तूं ना बचेगा-

मनमस्‍त अपनों को, क्‍यों खो रहा है।।

हम तो वोटर रहे--

रोटियां सैंकते क्‍यों, जिगर पर रहे।

कैसे तुम्‍हारे हैं, ये कह-कहे।।

बार-सहसों कहीं, एक ही बात को-

सबको कपड़ा मिले, न कोई नंगा रहे।।

झोंपड़ी के दिना, बे गुजर से गए-

नहीं चिंता करो, महल चंगा रहे।।

कब तक बनते रहेंगे, हवाई किले-

बात सच्‍ची कहो, हमरे आंसू बहें।।

तुमरी बातों से-बेजार, कितने हुए-

हमरे बच्‍चों के साए के, दिन ना टरे।।

ढोंग कितना रचा,टी.बी. बहरीं भई-

अब तक शिक्षा के कोई ना, झरना झिरें।।

आस मुरझा गई, स्‍वांस थमती दिखीं-

जिंदगी के किले के, कमूरे हिले।।

बहुत हो गया, अब ना बकबक करो-

हम तो वोटर बने, मनमस्‍त जिंदे रहें।।

तिजोरी को भर लीजिए---

जो भी शिर को उठाए-कुचल दीजिए।

देर करना मती-अब यही कीजिए।।

बख्‍त देने की भूलें, न करना कभी-

बख्‍त आया है, उसको भुंना लीजिए।।

देखते भी रहो-जागते भी रहो-

गर उठे कोई कदम, तोड़ दीजिए।।

प्रश्‍न कर दो खड़े ऐसे, उलझें सभी-

चैन से बैठ-निश्चिंत, जाम पीजिए।।।

भय इतना बढ़ा दो-न बोले कोई-

पत्‍ता खड़के नहीं, ऐसी हवा दीजिए।।

धड़कनों की भी धड़कन, यहां बंद हो-

आया थोड़ा समय-इतिहास मोड़ दीजिए।।

जो कुछ करना करो, भूल सब कुछ यहां-

लोकतंत्र है दुधारू, जी-भर दुह लीजिए।।

छोड़ चिंता सभी, मनमस्‍त होकर जियो-

खाली अपनी तिजोरी को, भर लीजिए।।

सुनामी दौर---

चौपाल आज देखलो-सियासत लगा रही।

शासन की नीति दौड़़ती, किस तरफ जा रही।।

पंचों में आकर बैठते, परमेश्‍वर थे जहां-

अन्‍याय कांपता था, न्‍याय-नीति जहां रही।।

संसद-में टालें ठोकते, सांसद यहां खड़े-

मदहोश-राजनीति ने, सब कुछ ही तो कही।।

नीति के ठौर पर-यहां, जामों का दौर है-

जलसा मनाते वे दिखे, है दर्द नहीं-कहीं।।

बातें नहीं हैं पेट कीं, प्रश्‍नों के दौर में-

जितना कहा, जो कहा, वे बुनियाद ही सही।।

दिखतीं नहीं उनको कभी-बस्‍ती वे मातमी-

ऐसे तमाशगीरों की, बस्‍ती यहां रही।।

लगता हमें कोई यहां, सुनामी का दौर है-

मनमस्‍त समय थोड़ा, अब मान लो, सही।।

कुछ नया दौर--

कुर्बानियां देकर भी वे, कुर्बान ना हुए।

जिनने किया कुछ भी नहीं, स्‍वर्गे वतन छुए।।

लेकर मशालें जो खड़े, आंधी के दौर में-

पाते खिताबें बे रहे, खेले थे जो जुए।।

कुर्बान उनको कह दिया, खुदकुशी जिनने की-

उठते हैं प्रश्‍न बहुत कुछ, रहे जो अनछुए।।

इतिहास जिनने नही पढ़ा, वे प्रश्‍न पूंछते-

कैसा अजूबा दौर है, अंधे क्‍या सब हुए।।

मुक्‍ते वतन के वास्‍ते, गुजरे जो देशहित-

ऐसे परिन्‍दे अब कहां, गायब कहां हुए।।

है जमीं पैर नीचे, क्‍या सोचते कभी-

क्‍यों खड़े रोज तम्‍बू को, तानते हुए।।

कितना उड़ोगे गगने, लौटोगे क्‍या नहीं-

सपनों के जाल भटके, सब जानते हुए।।

लौटे हैं सभी भू पर, आखिर में हारकर-

मनमस्‍त जरा संभलो, कुछ मानते हुए।।

एक नई दुनियां--

जग जाए जिससे बस्‍ती, वो गीत गाइए।

औरों को खुश करने, नित मुस्‍कराइए।।

टूटे जहां की चुप्‍पी, ऐसा तो कुछ करो-

ज्‍यादां नहीं तो, थोड़ा कुछ गुनगुनाइए।।

कितना बताएं तुमको, बहरीं निजाम हैं,

ऐसा अजूबा कुछ भी, कानों पै गाइए।।

घावों से भरे कितने, अजीबो-गरीब जो-

दर्दे ए दिलों में उनके, कुछ नया लाइए।।

बस्‍तीं हुईं हैं सूनी, खण्‍डहर का देश है-

उसमें रंगीन नए से, कुछ गुल खिलाइए।।

घेरे हुए सभी को, दीवारें जो खड़ीं-

उनको हटा के कोई, नया पथ बनाइए।।

कितना हुआ है गूंगा, दौरे ए न्‍याय का-

इसको जुबान देकर, सत-पथ दिलाइए।।

ऐसा ही करो सब कुछ, दिल-दिल में न्‍याय हो-

ऐसी नयी एक दुनियां, मनमस्‍त बना जाइए।।

चुप्‍पी तोड़ो--

कोटर में बैठे यौं, कब तक रहोगे।

दिए पंख उड़ने को, अब क्‍या करोगे।।

पेटो में आग जलती, तो उड़ना पड़ेगा-

औरों की मर्जी पर, कब तक जियोगे।।।

तनिक आंख खोलो, तो सब कुछ दिखेगा-

दिखेगा तो, खुद से कुछ कहने लगोगे।।

पांवों की हस्‍ती को, जाने नहीं तुम।

बौनों की बस्‍ती में, कब तक रहोगे।।

दया पर जिए, तो जिंदा नहीं हो-

जीवन-समर को, कैसे ढहोगे।।

खुद को तो परखो, तौलो औ बोलो-

चुप्पी को-तोड़ो, तो मनमस्‍त रहोगे।।

आदमी तो वही--

आदमी तो वही, जो बंटता नही है।

पूरा होकर कभी, जो घटता नहीं है।।

होती नहीं जिनको, पहिचान खुद की।

कौमों में मानव तो, बंटता नहीं है।।

बांटते हैं तुम्‍हें जो, शैंतान होते।

रवि विन कुहां सा, छटता नहीं हैं।।

प्रकृति ने कभी, बांटना ना सिखाया-

सबका यही, आसमां क्‍या नहीं है।।

बटते नही राग, रंग और रंगत-

सबके लिए, क्‍या अनिल ना वही है।।

छोड़ोगे कब, बटवारों की रस्‍में-

मानव बनो, तुम मानव नहीं हैं।।

आंगन बटाए औ धरती भी बांटी-

मनमस्‍त, नीयत क्‍या हल्‍की नहीं है।।

पिछली कहानी--

विजयी बनोगे और कैसे चलोगे।

सभी काम होंगे, जो मिलकर रहोगे।।

तोड़ना तो नहीं, जोड़ना ही तो सीखो-

मानव कहाओ औ दूधों नहोगे।।

भलां काम उनका, तोड़ना ही रहा हो-

मगर हम तो, उनको जोड़ते ही रहेंगे।।

दिशाएं बदलने का, है काम उनका-

मगर पांव उनके तो, हम मोड़ देंगे।।।

हक की लड़ाई को, हक से लड़ेंगे-

अपने हैं, अपनों को, नहीं छोड़ देंगे।।

आएंगी आंधियां, पर हम ना डरैंगे-

तूफां के साए को, हम तोड़ देंगे।।

पुराने नए मिलके, होंगे खड़े जब-

पिछली कहानी, सभी छोड़ देंगे।।