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कृष्णा

कृष्णा

कृष्णा था तो पिछड़े वर्ग से किंतु ईश्वर ने उसके दिमाग में बुद्धि कूट कूट कर भरी थी। वह जितना बुद्धिमान था उतना ही सहृदयी और परोपकारी भी था। धर्मपरायणता, सुसंस्कार व मुस्कुराहट उसकी पहचान थी। श्याम वर्ण होने के कारण ही शायद उसका नाम कृष्णा रखा गया था। एक तो साँवला और दूसरा उसका भेंगापन अर्थात दुबले और दो आषाढ़ जैसा दुर्योग था उसके जीवन में। यदा-कदा लोग उसे काला कौआ कहकर चिढ़ाते तब कृष्णा सबके कटाक्ष सहजता से झेल लेता, कभी उत्तेजित नहीं होता था, जिससे लोग अक्सर चिढ़ाए जाने के बावजूद तथाकथित वांछित आनंद से वंचित ही रहते।
उसे अपने पिताजी की दी हुई सीख पर पूरा भरोसा था। पिताजी ने उसे अनेक बार समझाया था कि बेटे यदि इंसान में कोई कमी हो तो उसे कोई अन्य ऐसी खूबी या विशेषता या उपलब्धि हासिल करना चाहिए जिसके कारण लोग तुम्हारी कमियों को भूल जाएँ। फिर लता मंगेशकर, क्रिकेटर चंद्रशेखर, संगीतकार रवीन्द्र जैन जैसे अनेक लोगों के नाम उसके पिताजी गिना दिया करते थे।
तभी से कृष्णा ने इस बात की गाँठ बाँधकर अध्ययन पर पूरा ध्यान केंद्रित कर लिया था। लगातार हर वर्ष कक्षा में सर्वोच्च अंक अर्जित करता रहा और आगे बढ़ता गया। मेधावी, व्यवहार कुशल होने के बाद भी कभी-कभार लोग उसकी कमी का आईना दिखाने से नहीं चूकते थे। उसे कभी लोगों की ओछी सोच पर तरस आता, तो कभी वह अपने भाग्य को कोसता, लेकिन उसने कभी दृढ़ता को हताशा में बदलने नहीं दिया। वह लोगों की उपेक्षा का दंश सहता रहता। हृदय को आहत करने वाली बातों और कटाक्षों को हमेशा सहजता से ही लेता रहा। अपने अंतस को न समझ सकने वालों को भी वह सदैव नजर अंदाज करता रहा।
कभी कभी उसकी सोच का नजरिया बदल जाता कि उसमें यदि ये कमियाँ न होतीं तो हो सकता था कि वह परीक्षाओं में श्रेष्ठ अंक अर्जित नहीं कर पाता। उसे अध्ययन का उतना वक्त ही नहीं मिला होता। लोग उसे अपने साथ लेकर चलते, व्यस्त रखते तो क्या वह आज इतना कुछ कर पाता। हो सकता था कि वह भटक गया होता। लोगों की निगाहों और मित्र मंडली में न होने के कारण उसने हमेशा इस मिले समय का सदुपयोग किया। हमेशा ईश्वर को धन्यवाद दिया कि हे ईश्वर! यदि आपने मुझे काला रंग नहीं दिया होता, मुझे भेंगापन नहीं दिया होता तो शायद मैं घमंडी हो सकता था, या फिर एक ऐसा इंसान भी बन सकता था जो मानवीय मूल्यों का आदर ही न करता। कभी-कभी उसे लगता कि ये कमियाँ उसके लिए अभिशाप नहीं वरदान तुल्य हैं जो उसे निश्चित रूप से एक काबिल और सफल इंसान बनायेंगी। फिर सोचने लगता कि उसे अपनी सच्चाई स्वीकारने में संकोच करना ही नहीं चाहिए। वह काला है तो है। वह भेंगा है तो है। यदि लोग उसे काला कौआ बोलते हैं तो उनसे लड़ना क्यों। उनकी संतान काली होगी तब क्या होगा? उनकी एक आँख दुर्घटना में खराब होगी तब क्या होगा? बस अभी उन्हें इसकी समझ नहीं है। जिस दिन उन्हें अपनी और दूसरे की कमी का सही एहसास हो जाएगा, तब वे बाह्य नहीं आंतरिक सौंदर्य को देख पाएँगे। क्या दिव्यांगों की शादी नहीं होती? क्या गरीबों की शादी नहीं होती? जो दुनिया में आया है उसकी जोड़ी मिलती ही है, भले ही देर से मिले। फिर हम लोग कौन होते हैं जो दूसरों की कमी पर हँसें और व्यंग्य करें?
वैसे भी जब सच पर व्यंग्य किया जाता है, तब क्रोध तो आता ही है, पर सच को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता। व्यंग्य से कसमसाहट तो होती है पर विकल्प भी मिलते हैं। अक्सर विद्रूपताओं कमियों एवं अनीति पर किए गए व्यंग्य समाधान देते हैं, सचेत करते हैं और आईना भी दिखाते हैं। यही कारण है कि अब कृष्णा को काले कौए अथवा भेंगे नाम से चिढ़ नहीं होती।
- विजय तिवारी "किसलय"
जबलपुर