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मैं तो ओढ चुनरिया - 31

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय 31

अब स्याही और सोंफ की पुङिया बनाने का काम बंद हो गया था पर टाफियों पर रैपर लपेटने काकाम बदस्तूर जारी था । कढाई के काम में मैंने महारत हासिल करली थी । कुछ कढाई मैंने पहले ही माँ से सीख ली थी बाकी मझली मामी ने सिखा दी । मामी की शेड इतनी खूबसूरत होती थी कि कोई यह न समझ पाता था कि कौन सा धागा कहाँ से शुरु होकर कहाँ खत्म हुआ । कई कई शेड के गुलाबी धागे लेकर वह गुलाब के फूल काढती कि देखने वाला देखता ही रह जाता । इन मामी के बाल बेहद लंबे और घने थे जिनसे वह अलग अलग हिरोइनों के स्टाइल में बङे प्यारे केशविन्यास बनाती । मामी बहुत शांत और विनम्र स्वभाव की थी । धीरे धीरे बोलती तो सुननेवाले के कानों में मिश्री घुल जाती । इन मामी से मैंने चिकन शैडो , शेड , साटिन स्टिच और सिंधी कढाई सीखी ।
शाम को क्लिनिक पर बैठने और पिताजी की मदद करने का काम तो चल ही रहा था । माँ ने कढाई का काम पकङना शुरु कर दिया । तो स्कूल से आने के बाद वह करना भी जरुरी था । समय पर काम पूरा करने का बहुत दबाव होता । एक बार माँ ने एक साङी पर गोटा और सितारे का जाल बनाने का काम पकङ लिया । पूरे सौ रुपये मिलना तय हुआ । उस जमाने में सौ रुपये बहुत ज्यादा होते थे । एक महीने और पाँच दिन बाद उस लङकी की बारात आनी थी । अब शुरु हुआ सुई धागे से युद्ध । हर रोज तीन घंटे लगाये मैंने उस साङी पर । साङी बङी खूबसूरत बन रही थी । हर रोज काम शुरु करने से पहले और साङी लपेट कर रखने से पहले दोनों बार में साङी लपेटकर दरपन के सामने खङी हो जाती औऱ अपनी छवि पर मुग्ध हुई रहती । ऐसा करते बाईस दिन बीत गये । साङी अभी आधी भी न निकल पायी थी । माँ ने देखा तो कहा – कल इतवार है , कल सारा दिन निकालना । कुछ तो काम पूरा होगा । इतवार को सुबह दो परौंठे खाकर काम शुरु किया । रात तक कमर टेढी हो गयी पर साङी अभी भी पौन तक ही पहुँची । अब क्या हो , अगले दिन से माँ खुद सुईधागा लेकर सितारे टांकने बैठी पर अभ्यास न था । जल्दी ही उनकी उँगलियाँ थक गयी । और वे मैदान छोङ गयी । अब लङकी की भाभी और माँ सुबह शाम चक्कर काटने लगे । शादी में दस दिन रह गये थे । वे सुबह शाम आती और तकादा करके चली जाती । मन में एक अजीब सा डर बैठ गया था । अगर समय पर काम न हुआ तो सारी मेहनत बेकार हो जाएगी । आखिरी दिनों में तो मेरा स्कूल जाना भी छूट गया । दिन रात साङी ही नजर आती । फ्रेम हाथ में पकङे मैं साङी पर गोटा किनारी जङ कर सितारे टांकती रहती । आखिर शादी का दिन आ गया । मेरी साङी तो पूरी हो गयी पर अभी पल्ले के चारों ओर किरण लगानी बाकी थी । सुबह से लगकर दोपहर तीन बजे जब साङी पूरी करके उनको थमाई तो मेरे और माँ के चेहरे पर तो सुकून था ही , उन भाभी और दुल्हन के चेहरे की खुशी देखते ही बनती थी । शाम को दुल्हन ने वही साङी जयमाला में पहनी तो उसका रूप साङी की झिलमिल में दमक रहा था । मुझे मौसी ने सौ रुपये के साथ दस रुपये इनाम के तौर पर और ढेर सारी मिठाई दी पऱ सबसे बङा फायदा यह हुआ कि अब मुझे इस तरह के काम सिर्फ गरमी या सरदी की छुट्टियों में ही करने होते थे । बाकी टाईम छुटपुट काम पढाई के साथ साथ चलते रहे ।
स्कूल में एक बङा सा कमरा पिछले कुछ समय से बंद पङा था । एक दिन अचानक खुल गया । बरफी दादी , जलेबी दादी दोनों चपरासिनें मुँह सिर लपेट जुट गयी उसकी साफ सफाई में । दो दिन में सारा कमरा चकाचक कर दिया गया । हम सब लङकियाँ जब भी उसके पास से गुजरती , भीतर झांकने की कोशिश करती । भीतर आङी तिरछी ,टेढी मेढी ढेर सारी अलमारियाँ पङी थी । बाप रे इत्ती सारी अलमारी ।
फिर शायद बुधवार का दिन था । प्रार्थना सभा में बङी दीदी ने स्टेज से बताया कि तुम लोगों की लाइब्रेरी दीदी आ गयी हैं । इनका नाम है राजकरणी । दो चार दिन में तुम लोग पुस्तकालय जाकर मन पसंद किताबें पढ सकोगे । ये राजकरणी दीदी बेहद दुबली पतली नाजुक सी सांवली सलोनी लङकी थी । हमें उनमें कुछ खास आकर्षण नहीं दिखा । अगले दिन उन्होंने हम सभी प्रिफैक्टस को पहली घंटी बजते ही पुस्तकालय कहे जाने वाले उस कमरे में बुलाया - देखो बहनों , ये हैं बाईस अलमारियाँ । इनमें भरी हैं दस हजार किताबें । मुझे इन सबको रजिस्टर में नोट करना है और साफ करके अलमारियों में फिर से सजाना है । अकेले करूँगी तो कई साल लगेंगे । तुम सब साथ दोगी तो यह काम एक हफ्ते में हो सकता है । बोलो करना चाहोगी ।
जी दीदी , हम करेंगे । सबने जोश में भर कर कहा ।
तो ठीक है । आज से ही काम शुरु कर लेते हैं । तुम लोग अपनी कक्षाएँ उसी तरह लगाओगी । खाली कालांश में एक राउंड भी पहले की तरह ही लगाना है । उसके बाद यहाँ आकर अपनी अलमारी सैट करनी है । तुम लोग अपनी अपनी अलमारी चुन लो । सबने अपनी अलमारी चुन ली । मैंने हिंदी साहित्य की अलमारी चुनी थी ।
अब तुम लोग यह तय करो कि कौन लङकी किस पीरियड में यहाँ आएगी । एक समय में चार से ज्यादा लङकियाँ यहाँ नहीं होंगी । तो हर लङकी का समय भी तय हो गया । मेरा समय छठा कालांश था । पूरा दिन कैसे बीता , यह तो बताना नामुमकिन है । पाँचवे कालांश के खत्म होते ही मैं पुस्तकालय भागी । मेरे साथ पुनीत थी । हम दोनों को हजार के आसपास किताबें सैट करनी थी । हमने फटाफट काम शुरु किया । सबसे पहले ऊपर वाला खाना खाली कर किताबें बङी मेज पर ढेर कर दी । फिर एक एक किताब को अच्छे से कपङे से झाङ कर साफ किया । तब तक बरफी दादी ने अलमारी का खाना अच्छी तरह से साफ कर दिया था । तब तक घंटी बज गयी । दीदी ने कहा – भई अब तुम लोग कक्षा में जाओ । आज इन किताबों को यहीं मेज पर रहने दो । इन्हें हवा लग जाएगी । कल आकर बाकी काम कर लेना ।
हमारा कक्षा में जाने का कोई मन नहीं था पर जाना तो था ही इसलिए बेमन से पुस्तकालय से निकले और कक्षा में पहुँचे । कक्षा में बैठे कान पढाई सुन रहे थे पर मन वहीं किताबों के आसपास घूम रहा था । घर आकर भी वे किताबें मेरे मन में घूम रही थी ।

बाकी कहानी अगली कङी में...