Nainam chhindati shstrani - 43 books and stories free download online pdf in Hindi

नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 43

43

कुछेक मिनट में जेलर वर्मा डॉक्टर को लेकर पहुँच गए | फ़र्श पर फैले रक्त को देखकर उनके चेहरे पर भी चिंता झलक उठी | डॉक्टर ने अपना दवाइयों का बक्सा खोलकर पुण्या के पैर का इलाज़ शुरू कर दिया था | काँच निकल जाने से पुण्या की आधी पीड़ा कम हो गई थी | जेलर साहब ने दामले से पूछा कि दुर्घटना कैसे हुई ? जिसका उत्तर दमले के पास नहीं था, वे स्वयं भी यही जानना चाहते थे | 

“यह मेरी वजह से हुआ है | ”समिधा के शब्दों में शर्मिंदगी थी | 

“क्या-- दीदी ! लगनी थी चोट तो लग गई –अब दर्द बहुत कम है | डॉक्टर साहब ने दवाई भी दे दी है जो थोड़ा–बहुत दर्द है, वह भी चला जाएगा | ”पुण्या ने अपनी चिरपरिचित मुस्कान अपने चेहरे पर ओढ़ ली थी | कितनी चतुरता से पुण्या ने अपनी भीतरी व बाहरी पीड़ा को ‘बाय’ कह दिल के किसी अँधेरे कोने में मुँह पर ऊंगली रख अपनी पीड़ा को चुप्पी में ढाल लिया था | 

दामले, वर्मा व यूनिट के अन्य सदस्यों के चेहरों पर पसरे प्रश्नों के उत्तर में समिधा ने बताया कि कैसे उसकी असावधानी से गिरकर टूटने वाले ग्लास के काँच का परिणाम ही पुण्या की चोट था | 

“मैडम !आज शूट कैंसिल कर दें, मुश्किल होगा | ”

“अरे नहीं मि. दामले, ठीक हो गया है पैर, दर्द बहुत कम है –और कौनसा मुझे इधर-उधर चलकर शूट करना है | एक जगह खड़े होकर ही तो बोलना है | ”

पुण्या स्वस्थ्य दिखने की चेष्टा कर रही थी और समिधा भीतर से असहज बनी हुई थी | अपराध-बोध से उसके भीतर ग्लानि भर गई थी | उसका कोई दोष नहीं था फिर भी वह स्वयं को दोषी महसूस कर रही थी | यही होता है संवेदनशील व्यक्ति के साथ ! वह अपनी गलती को जल्दी से भुला नहीं पाता | रह-रहकर उसके भीतर लहरें सी उठती रहती हैं | जब दुर्घटना के पश्चात समिधा को निन्नू मिला था तब जीजी, जीजाजी और बीबी के साथ हुई दुर्घटना का ज़िम्मेदार स्वयं को मानते हुए वह बार-बार उससे कुछ ऐसा ही कहता रहा था –

“पता नहीं, मुझे क्या हुआ था पिता जी के बाद जब बीबी मेरे साथ चलने को तैयार नहीं हुईं तब मैं, जीजी, जीजाजी को ज़बरदस्ती घर ले आया | किन्नी जीजी अमेरिका में बस ही चुकीं थीं | बड़े जीजाजी रेलवे से रिटायर हो चुके थे, उनके भी दोनों बच्चे बाहर थे | मुझे लगा बीबी अकेली रहेंगी इससे तो जीजी, जीजाजी उनके पास रहें तो अच्छा था | आप तो जानती हैं उनका स्वाभिमानी स्वभाव !किसीके पास रहने वाली तो थीं नहीं वे | ”

उसने निन्नू को दिलासा देते हुए कहा था ;

“जो होना होता है, वह तो होता ही है भैया !कौन, कब, किसी बात को होने से रोक पाया है ?कब तक अपने आपको दोषी समझते रहोगे ?” वह बार-बार निन्नू को अलग-अलग शब्दों के ज़रिए यही समझाती रही थी | पर इस समय पुण्या की चोट के लिए वह बार-बार स्वयं को दोषी मान रही थी | 

“सारी बातें किताबी लगती हैं जीजी, हम इंसान गलतियाँ करते रहते हैं पर –इतनी बड़ी गलती !जिसका प्रायश्चित ही नहीं | ” निन्नू समिधा के कंधे पर सिर रखकर रोने लगा था | अपराध-बोध से ग्रसित निन्नू के आँसु थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे | 

“निन्नू !वो गलती नहीं थी ---तुमने तो ठीक ही सोचा था | कोई भी संवेदनशील बच्चा इसी तरह से ही सोचता | कुछ चीज़ें स्वाभाविक रूप से होनी होती हैं और वे सुनिश्चित होती हैं, उन्हें तो होना ही होता है | तुम अपने आपको दोष देना बंद करो—हाँ, तुम्हारे लिए यह पीड़ा बहुत कष्टदायक है, पर दिमाग से इस भूत को उतार दो कि तुमने गलती की है | ”

समिधा ने निन्नू का सिर स्नेह से सहलाते हुए कहा था | ’पता नहीं, इन आदिवासियों के मन में भी कभी कोई अपराध-बोध होता होगा या नहीं ? ये भी तो मनुष्य हैं, इनके भी तो सारी संवेदनाएँ आम आदमी जैसी ही हैं | रिश्तों के मर जाने का अपराध इनको भी तो झकझोरता होगा --’समिधा ने सोचा | 

रिश्तों को ताक पर रखकर मनुष्य कहाँ जी पाता है | रिश्ते ही तो खून को पानी बनाने से बचाते हैं | जीवन है तो कोई न कोई रिश्ता उसके साथ लगा ही हुआ है | ये आदिवासी भी रिश्तों में इसी प्रकार बंधे हुए हैं परंतु न जाने रिश्तों में कहाँ गुलझट पड़ जाती हैं कि वे उलझने लगते हैं, संवेदनाएँ मरने लगती हैं, उलझी ऊन से रिश्ते जिन्हें आकार देने में पूरी उम्र गुज़र जाती है, वे टूटकर बिखरने लगते हैं | बात कहीं की भी हो, किसी की भी हो जन्म और मृत्यु के बीच में आकर सिमट जाती है | दो छोटे-छोटे शब्द ! जिनके सहारे जीव-यात्रा का आरंभ भी होता है और अंत भी | विश्व में समस्त जीवों से ही ये दो शब्द जुड़े हैं फिर इनके बीच फ़ासले इतने कैसे उलझ जाते हैं ?

जन्म-मृत्यु के मध्यान्ह में मनुष्य कितनी बेबसी व लाचारी से होकर गुज़रता है कि वह छोटी सी ज़िंदगी को संभाल नहीं पाता | कोई भूख के कारण, तो कोई धन के, कोई अहं के, कोई जाति के तो कोई भाषा के कारण ! चाहे कोई भी क्यों न हों, रिश्ते मजबूरी की गठरी बनकर एक कोने में पटके जाते हैं | अपराध होते हैं, भूख बढ़ती जाती है| वो भूख पेट की हो, ईर्ष्या-बैर की हो, लोलुपता की हो, सैक्स की हो—यदि सीमा पार कर जाती है तो कोई भी भूख क्यों न हो, किसीको सामान्य नहीं रहने देती और जब मनुष्य सामान्य नहीं रह पाएगा तो जीवन किस प्रकार सामान्य रह सकता है ?

पुण्या साहसी निकली जो अपनी लड़ाई लड़कर न जाने किन-किन रास्तों के बीहड़ बन पार करके अपने आपको उस नरक से खींचकर बाहर निकल आई थी | खुरदुरे निशान उसके मनोमस्तिष्क पर, उसकी आत्मा पर सदा के लिए छाप छोड़ गए थे, घाव भरने लगते हैं धीरे-धीरे –पर, खरोंचों की टीस रह जाती है जो कभी-कभी ताउम्र बनी रहती है | बेमानी हो जाति है ज़िंदगी !गुबार से भरी, धुंध में अटकी, मानो मकड़ी के जालों में फँसी हुई ज़िंदगी बेतरतीब हो साँसें भरती अपने न किए गए उन गुनाहों के बारे में सोचती रहती है जिनका परिणाम उस आत्मा को भोगना पड़ता है जिसे अपना गुनाह मालूम ही नहीं होता | 

आत्मा कहाँ कुछ भोगती है, भोगता तो शरीर है | जीवन इतना उलझा हुआ है कि मनुष्य इसकी भँवर में गोल-गोल घूमता ही रहता है, उसे इससे निकालने का कोई मार्ग सुझाई ही नहीं देता | पता नहीं क्या होता है यह वर्तमान जन्म और बीता हुआ जन्म ?हम कहानियों में उलझे रहते हैं, ख़्वाबों में, सोचों में, गुबारों में—घूमते –भटकते अपना पूरा जीवन समाप्त कर देते हैं | पता ही नहीं चलता जीवन-कगार पर कब जा खड़े होते हैं ?जीवन का अंत कब आ पहुँचता है ?

समिधा को पुण्या के लिए अफ़सोस भी था और उस पर गर्व भी ! वह हारी नहीं थी, उसने परिस्थितियों को हराया था और एक शेरनी की भाँति अपनी अस्मिता को संभाले वह उस गलीज किचकिचाहट से बिना छींटे पड़े अपने आपको बचाकर, संभालकर निकाल आई थी |