Gunaho ka Devta - 24 books and stories free download online pdf in Hindi

गुनाहों का देवता - 24

भाग 24

चन्दर ने विचित्र हृदय-हीन तर्क को सुना और आश्चर्य से बुआ की ओर देखने लगा।....बुआजी बकती जा रही थीं-

''अब कहते हैं कि बिनती को पढ़उबै! ब्याह न करबै! रही-सही इज्जत भी बेच रहे हैं। हमार तो किस्मत फूट गयी...'' और वे फिर रोने लगीं, ''पैदा होते काहे नहीं मर गयी कुलबोरनी… कुलच्छनी...अभागिन!''

सहसा बिनती छत से उतरी और आँगन में आकर खड़ी हो गयी, उसकी आँखों में आग भरी थी-''बस करो, माँजी!'' वह चीखकर बोली, ''बहुत सुन लिया मैंने। अब और बर्दाश्त नहीं होता। तुम्हारे कोसने से अब तक नहीं मरी, न मरूँगी। अब मैं सुनूँगी नहीं, मैं साफ कह देती हूँ। तुम्हें मेरी शक्ल अच्छी नहीं लगती तो जाओ तीरथ-यात्रा में अपना परलोक सुधारो! भगवान का भजन करो। समझी कि नहीं!''

चन्दर ने ताज्जुब से बिनती की ओर देखा। वह वही बिनती है जो माँजी की जरा-जरा-सी बात से लिपटकर रोया करती थी। बिनती का चेहरा तमतमाया हुआ था और गुस्से से बदन काँप रहा था। बुआ उछलकर खड़ी हो गयीं और दुगुनी चीखकर बोलीं, ''अब बहुत जबान चलै लगी है। कौन है तोर जे के बल पर ई चमक दिखावत है? हम काट के धर देबै, तोके बताय देइत हई। मुँहझौंसी! ऐसी न होती तो काहे ई दिन देखै पड़त। उन्हें तो खाय गयी, हमहूँ का खाय लेव!'' अपना मुँह पीटकर बुआ बोलीं।

''तुम इतनी मीठी नहीं हो माँजी कि तुम्हें खा लूँ!'' बिनती ने और तड़पकर जवाब दिया।

चन्दर स्तब्ध हो गया। यह बिनती पागल हो गयी है। अपनी माँ को क्या कह रही है!

''छिह, बिनती! पागल हो गयी हो क्या? चलो उधर!'' चन्दर ने डाँटकर कहा।

''चुप रहो, चन्दर! हम भी आदमी हैं, हमने जितना बर्दाश्त किया है, हमीं जानते हैं। हम क्यों बर्दाश्त करें! और तुमसे क्या मतलब? तुम कौन होते हो हमारे बीच में बोलने वाले?''

''क्या है यह सब? तुम लोग सब पागल हो गये हो क्या? बिनती, यह क्या हो रहा है?'' सहसा डॉक्टर साहब ने आकर कहा।

बिनती दौडक़र डॉक्टर साहब से लिपट गयी और रोकर बोली, ''मामाजी, मुझे दीदी के पास भेज दीजिए! मैं यहाँ नहीं रहूँगी।''

''अच्छा बेटी! अच्छा! जाओ चन्दर!'' डॉक्टर साहब ने कहा। बिनती चली गयी तो बुआ जी से बोले, ''तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। उस पर गुस्सा उतारने से क्या फायदा? हमारे सामने ये सब बातें करोगी तो ठीक नहीं होगा।''

''अरे हम काहे बोलबै! हम तो मर जाईं तो अच्छा है...'' बुआजी पर जैसे देवी माँ आ गयी हों इस तरह से झूम-झूमकर रो रही थीं...''हम तो वृन्दावन जाय के डूब मरीं! अब हम तुम लोगन की सकल न देखबै। हम मर जाईं तो चाहे बिनती को पढ़ायो चाहे नचायो-गवायो। हम अपनी आँख से न देखबै।''

उस रात को किसी ने खाना नहीं खाया। एक विचित्र-सा विषाद सारे घर पर छाया हुआ था। जाड़े की रात का गहन अँधेरा खामोश छाया हुआ था, महज एक अमंगल छाया की तरह कभी-कभी बुआजी का रुदन अँधेरे को झकझोर जाता था।

सभी चुपचाप भूखे सो गये...

दूसरे दिन बिनती उठी और महराजिन के आने के पहले ही उसने चूल्हा जलाकर चाय चढ़ा दी। थोड़ी देर में चाय बनाकर और टोस्ट भूनकर वह डॉक्टर साहब के सामने रख आयी। डॉक्टर साहब कल की बातों से बहुत ही व्यथित थे। रात को भी उन्होंने खाना नहीं खाया था, इस वक्त भी उन्होंने मना कर दिया। बिनती चन्दर के कमरे में गयी, ''चन्दर, मामाजी ने कल रात को भी कुछ नहीं खाया, तुमने भी नहीं खाया, चलो चाय पी लो!''

चन्दर ने भी मना किया तो बिनती बोली, ''तुम पी लोगे तो मामाजी भी शायद पी लें।'' चन्दर चुपचाप गया। बिनती थोड़ी देर में गयी तो देखा दोनों चाय पी रहे हैं। वह आकर मेवा निकालने लगी।

चाय पीते-पीते डॉक्टर साहब ने कहा, ''चन्दर, यह पास-बुक लो। पाँच सौ निकाल लो और दो हजार का हिसाब अलग करवा दो।...अच्छा देखो, मैं तो चला जाऊँगा दिल्ली, बिनती को शाहजहाँपुर भेजना ठीक नहीं है। वहाँ चार रिश्तेदार हैं, बीस तरह की बातें होंगी। लेकिन मैं चाहता हूँ अब आगे जब तक यह चाहे, पढ़े! अगर कहो तो यहाँ छोड़ जाऊँ, तुम पढ़ाते रहना!''

बिनती आ गयी और तश्तरी में भुना मेवा रखकर उसमें नमक मिला रही थी। चन्दर ने एक स्लाइस उठायी और उस पर नमक लगाते हुए बोला, ''वैसे आप यहाँ छोड़ जाएँ तो कोई बात नहीं है, लेकिन अकेले घर में अच्छा नहीं लगता। दो-एक रोज की बात दूसरी होती है। एकदम से साल-भर के लिए...आप समझ लें।''

''हाँ बेटा, कहते तो तुम ठीक हो! अच्छा, कॉलेज के होस्टल में अगर रख दिया जाए!'' डॉक्टर साहब ने पूछा।

''मैं लड़कियों को होस्टल में रखना ठीक नहीं समझता हूँ।'' चन्दर बोला, ''घर के वातावरण और वहाँ के वातावरण में बहुत अन्तर होता है।''

''हाँ, यह भी ठीक है। अच्छा तो इस साल मैं इसे दिल्ली लिये जा रहा हॅँ। अगले साल देखा जाएगा...चन्दर, इस महीने-भर में मेरा सारा विश्वास हिल गया। सुधा का विवाह कितनी अच्छी जगह किया गया, मगर सुधा पीली पड़ गयी है। कितना दु:ख हुआ देखकर! और बिनती के साथ यह हुआ! सचमुच यह जाति, विवाह सभी परम्पराएँ बहुत ही बुरी हैं। बुरी तरह सड़ गयी हैं। उन्हें तो काट फेंकना चाहिए। मेरा तो वैसे इस अनुभव के बाद सारा आदर्श ही बदल गया।''

चन्दर बहुत अचरज से डॉक्टर साहब की ओर देखने लगा। यही जगह थी, इसी तरह बैठकर डॉक्टर साहब ने जाति-बिरादरी, विवाह आदि सामाजिक परम्पराओं की कितनी प्रशंसा की थी! जिंदगी की लहरों ने हर एक को दस महीने में कहाँ से कहाँ लाकर पटक दिया है। डॉक्टर साहब कहते गये...''हम लोग जिंदगी से दूर रहकर सोचते हैं कि हमारी सामाजिक संस्थाएँ स्वर्ग हैं, यह तो जब उनमें धँसो तब उनकी गंदगी मालूम होती है। चन्दर, तुम कोई गैर जात का अच्छा-सा लड़काढूँढ़ो। मैं बिनती की शादी दूसरी बिरादरी में कर दूँगा।''

बिनती, जो और चाय ला रही थी, फौरन बड़े दृढ़ स्वर में बोली, ''मामाजी, आप जहर दे दीजिए लेकिन मैं शादी नहीं करूँगी। क्या आपको मेरी दृढ़ता पर विश्वास नहीं?''

''क्यों नहीं, बेटी! अच्छा, जब तक तेरी इच्छा हो, पढ़!''

दूसरे दिन डॉक्टर साहब ने बुआजी को बुलाया और रुपये दे दिये।

''लो, यह पाँच सौ पहले खर्चे के हैं और दो हजार में से तुम्हें धीरे-धीरे मिलता रहेगा।''

दो-तीन दिन के अन्दर बुआ ने जाने की सारी तैयारी कर ली, लेकिन तीन दिन तक बराबर रोती रहीं। उनके आँसू थमे नहीं। बिनती चुप थी। वह भी कुछ नहीं बोली, चौथे दिन जब वह सामान मोटर पर रखवा चुकीं तो उन्होंने चन्दर से बिनती को बुलवाया। बिनती आयी तो उन्होंने उसे गले से लगा लिया-और बेहद रोयीं। लेकिन डॉक्टर साहब को देखते ही फिर बोल उठीं-''हमरी लड़की का दिमाग तुम ही बिगाड़े हो। दुनिया में भाइयौ अपना नै होत। अपनी लड़की को बिया दियौ! हमरी लड़की...'' फिर बिनती को चिपटाकर रोने लगीं।

चन्दर चुपचाप खड़ा सोच रहा था, अभी तक बिनती खराब थी। अब डॉक्टर साहब खराब हो गये। बुआ ने रुपये सँभालकर रख लिये और मोटर पर बैठ गयीं। समस्त लांछनों के बावजूद डॉक्टर साहब उन्हें पहुँचाने स्टेशन तक गये।

बिनती बहुत ही चुप-सी हो गयी थी। वह किसी से कुछ नहीं बोलती और चुपचाप काम किया करती थी। जब काम से फुरसत पा लेती तो सुधा के कमरे में जाकर लेट जाती और जाने क्या सोचा करती। चन्दर को बड़ा ताज्जुब होता था बिनती को देखकर। जब बिनती खुश थी, बोलती-चालती थी तो चन्दर बिनती से चिढ़ गया था, लेकिन बिनती के जीवन का यह नया रूप देखकर पहले की सभी बातें भूल गया। और उससे फिर बात करने की कोशिश करने लगा। लेकिन बिनती ज्यादा बोलती ही नहीं।

एक दिन दोपहर को चन्दर यूनिवर्सिटी से लौटकर आया और उसने रेडियो खोल दिया। बिनती एक तश्तरी में अमरूद काटकर ले आयी और रखकर जाने लगी। ''सुनो बिनती, क्या तुमने मुझे माफ नहीं किया? मैं कितना व्यथित हूँ, बिनती! अगर तुमको भूल से कुछ कह दिया तो तुम उसका इतना बुरा मान गयीं कि दो-तीन महीने बाद भी नहीं भूलीं!''

''नहीं, बुरा मानने की क्या बात है, चन्दर!'' बिनती एक फीकी हँसी-हँसकर बोली, ''आखिर नारी का भी एक स्वाभिमान है, मुझे माँ बचपन से कुचलती रही, मैंने तुम्हें दीदी से बढक़र माना। तुम भी ठोकरें लगाने से बाज नहीं आये, फिर भी मैं सब सहती गयी। उस दिन जब मंडप के नीचे मामाजी ने जबरदस्ती हाथ पकड़कर खड़ा कर दिया तो मुझे उसी क्षण लगा कि मुझमें भी कुछ सत्व है, मैं इसीलिए नहीं बनी हूँ कि दुनिया मुझे कुचलती ही रहे। अब मैं विरोध करना, विद्रोह करना भी सीख गयी हूँ। जिंदगी में स्नेह की जगह है, लेकिन स्वाभिमान भी कोई चीज है। और तुम्हें अपनी जिंदगी में किसी की जरूरत भी तो नहीं है!'' कहकर बिनती धीरे-धीरे चली गयी।

अपमान से चन्दर का चेहरा काला पड़ गया। उसने रेडियो बन्द कर दिया और तश्तरी उठाकर नीचे रख दी और बिना कपड़े बदले पम्मी के यहाँ चल दिया।

मनुष्य का एक स्वभाव होता है। जब वह दूसरे पर दया करता है तो वह चाहता है कि याचक पूरी तरह विनम्र होकर उसे स्वीकार करे। अगर याचक दान लेने में कहीं भी स्वाभिमान दिखलाता है तो आदमी अपनी दानवृत्ति और दयाभाव भूलकर नृशंसता से उसके स्वाभिमान को कुचलने में व्यस्त हो जाता है। आज हफ्तों के बाद चन्दर के मन में बिनती के लिए कुछ स्नेह, कुछ दया जागी थी, बिनती को उदास मौन देखकर; लेकिन बिनती के इस स्वाभिमान-भरे उत्तर ने फिर उसके मन का सोया हुआ साँप जगा दिया था। वह इस स्वाभिमान को तोड़कर रहेगा, उसने सोचा।

पम्मी के यहाँ पहुँचा तो अभी धूप थी। जेनी कहीं गयी थी, बर्टी अपने तोते को कुछ खिला रहा था। कपूर को देखते ही हँसकर अभिवादन किया और बोला, ''पम्मी अन्दर है!'' वह सीधा अन्दर चला गया। पम्मी अपने शयन-कक्ष में बैठी हुई थी। कमरे में लम्बी-लम्बी खिड़कियाँ थीं जिनमें लकड़ी के चौखटों में रंग-बिरंगे शीशे लगे हुए थे। खिड़कियाँ बन्द थीं और सूरज की किरणें इन शीशों पर पड़ रही थीं और पम्मी पर सातों रंग की छायाएँ खेल रही थीं। वह झुकी हुई सोफे पर अधलेटी कोई किताब पढ़ रही थी। चन्दर ने पीछे से जाकर उसकी आँखें बन्द कर लीं और बगल में बैठ गया।

''कपूर!'' अपनी सुकुमार अँगुलियों से चन्दर के हाथ को आँखों पर से हटाते हुए पम्मी बोली और पलकों में बेहद नशा भरकर सोनजुही की मुस्कान बिखेरकर चन्दर को देखने लगी। चन्दर ने देखा, वह ब्राउनिंग की कविता पढ़ रही थी। वह पास बैठ गया।

पम्मी ने उसे अपने वक्ष पर खींच लिया और उसके बालों से खेलने लगी। चन्दर थोड़ी देर चुप लेटा रहा, फिर पम्मी के गुलाबी होठों पर अँगुलियाँ रखकर बोला, ''पम्मी, तुम्हारे वक्ष पर सिर रखकर मैं जाने क्यों सबकुछ भूल जाता हूँ? पम्मी, दुनिया वासना से इतना घबराती क्यों है? मैं ईमानदारी से कहता हूँ कि अगर किसी को वासनाहीन प्यार करके, किसी के लिए त्याग करके मुझे जितनी शान्ति मिलती है, पता नहीं क्यों मांसलता में भी उतनी ही शान्ति मिलती है। ऐसा लगता है कि शरीर के विकार अगर आध्यात्मिक प्रेम में जाकर शान्त हो जाते हैं तो लगता है आध्यात्मिक प्रेम में प्यासे रह जाने वाले अभाव फिर किसी के मांसल-बन्धन में ही आकर बुझ पाते हैं। कितना सुख है तुम्हारी ममता में!''

''शी!'' चन्दर के होठों को अपनी अँगुलियों से दबाती हुई पम्मी बोली, ''चरम शान्ति के क्षणों को अनुभव किया करो। बोलते क्यों हो?''

चन्दर चुप हो गया। चुपचाप लेट रहा।

पम्मी की केसर श्वासें उसके माथे को रह-रहकर चूम रही थीं और चन्दर के गालों को पम्मी के वक्ष में धड़कता हुआ संगीत गुदगुदा रहा था। चन्दर का एक हाथ पम्मी के गले में पड़ी इमीटेशन हीरे की माला से खेलने लगा। सारस के पंखों से भी ज्यादा मुलायम सुकुमार गरदन से छूटने पर अँगुलियाँ लाजवन्ती की पत्तियों की तरह सकुचा जाती थीं। माला खोल ली और उसे उतारकर अपने हाथ में ले लिया। पम्मी ने माला लेने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि गले के बटन टच-से टूट गये...बर्फानी चाँदनी उफनकर छलक पड़ी। चन्दर को लगा उसके गालों के नीचे बिजलियों के फूल सिहर उठे हैं और एक मदमाता नशा टूटते हुए सितारों की तरह उसके शरीर को चीरता हुआ निकल गया। वह काँप उठा, सचमुच काँप उठा। नशे में चूर वह उठकर बैठ गया और उसने पम्मी को अपनी गोद में डाल लिया। पम्मी अनंग के धनुष की प्रत्यंचा की तरह दोहरी होकर उसकी गोद में पड़ रही। तरुणाई का चाँद टूटकर दो टुकड़े हो गया था और वासना के तूफान ने झीने बादल भी हटा दिये थे। जहरीली चाँदनी ने नागिन बनकर चन्दर को लपेट लिया। चन्दर ने पागल होकर पम्मी को अपनी बाँहों में कस लिया, इतनी प्यास से लगा कि पम्मी का दीपशिखा-सा तन चन्दर के तन में समा जाएगा। पम्मी निश्चेष्ट आँखें बन्द किये थी लेकिन उसके गालों पर जाने क्या खिल उठा था! चन्दर के गले में उसने मृणाल-सी बाँहें डाल दी थीं। चन्दर ने पम्मी के होठों को जैसे अपने होंठों में समेट लेना चाहा...इतनी आग...इतनी आग...नशा...

''ठाँय!'' सहसा बाहर बन्दूक की आवाज हुई। चन्दर चौंक उठा। उसने अपने बाहुपाश ढीले कर दिये। लेकिन पम्मी उसके गले में बाँहें डाले बेहोश पड़ी थी। चन्दर ने क्षण-भर पम्मी के भरपूर रूप यौवन को आँखों से पी लेना चाहा। पम्मी ने अपनी बाँहें हटा लीं और नशे में मखमूर-सी चन्दर की गोद से एक ओर लुढ़क गयी। उसे अपने तन-बदन का होश नहीं था। चन्दर ने उसके वस्त्र ठीक किये और फिर झुककर उसकी नशे में चूर पलकें चूम लीं।

''ठाँय!'' बन्दूक की दूसरी आवाज हुई। चन्दर घबराकर उठा।

''यह क्या है, पम्मी?''

''होगा कुछ, जाओ मत।'' अलसायी हुई नशीली आवाज में पम्मी ने कहा और उसे फिर खींचकर बिठा लिया। और फिर बाँहों में उसे समेटकर उसका माथा चूम लिया।

''ठाँय!'' फिर तीसरी आवाज हुई।

चन्दर उठ खड़ा हुआ और जल्दी से बाहर दौड़ गया। देखा बर्टी की बन्दूक बरामदे में पड़ी है, और वह पिंजड़े के पास मरे हुए तोते का पंख पकडक़र उठाये हुए है। उसके घावों से बर्टी के पतलून पर खून चू रहा था। चन्दर को देखते ही बर्टी हँस पड़ा, ''देखा! तीन गोली में इसे बिल्कुल मार डाला, वह तो कहो सिर्फ एक ही लगी वरना...'' और पंख पकड़कर तोते की लाश को झुलाने लगा।

''छिह! फेंको उसे; हत्यारे कहीं के! मार क्यों डाला उसे?'' चन्दर ने कहा।

''तुमसे मतलब! तुम कौन होते हो पूछने वाले? मैं प्यार करता था उसे, मैंने मार डाला!'' बर्टी बोला और आहिस्ते से उसे एक पत्थर पर रख दिया। रूमाल निकालकर फाड़ डाला। आधा रूमाल उसके नीचे बिछा दिया और आधे से उसका खून पोंछने लगा। फिर चन्दर के पास आया। चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर बोला, ''कपूर! तुम मेरे दोस्त हो न! जरा रूमाल दे दो।'' और चन्दर का रूमाल लेकर तोते के पास खड़ा हो गया। बड़ी हसरत से उसकी ओर देखता रहा। फिर झुककर उसे चूम लिया और उस पर रूमाल ओढ़ा दिया। और बड़े मातम की मुद्रा में उसी के पास सिर झुकाकर बैठ गया।

''बर्टी, बर्टी, पागल हो गये क्या?'' चन्दर ने उसका कन्धा पकड़ाकर हिलाते हुए कहा, ''यह क्या नाटक हो रहा है?''

बर्टी ने आँखें खोलीं और चन्दर को भी हाथ पकडक़र वहीं बिठा लिया और बोला, ''देखो कपूर, एक दिन तुम आये थे तो मैंने तोता और जेनी दोनों को दिखाकर कहा था कि जेनी से मैं नफरत करता हूँ, उससे शादी कर लूँगा और तोते से मैं प्यार करता हूँ, इसे मार डालूँगा। कहा था कि नहीं? कहो हाँ।''

''हाँ, कहा था।'' चन्दर बोला, ''लेकिन क्यों कहा था?''

''हाँ, अब पूछा तुमने! तुम पूछोगे 'मैंने क्यों मार डाला' तो मैं कहूँगा कि इसे अब मर जाना चाहिए था, इसलिए इसे मार डाला। तुम पूछोगे, 'इसे क्यों मर जाना चाहिए?' तो मैं कहूँगा, 'जब कोई जीवन की पूर्णता पर पहुँचा जाता है तो उसे मर जाना चाहिए। अगर वह अपनी जिंदगी का लक्ष्य पूरा कर चुका है और नहीं मरता तो यह उसका अन्याय है। वह अपनी जिंदगी का लक्ष्य पूरा कर चुका था, फिर भी नहीं मरता था। मैं इसे प्यार करता था लेकिन यह अन्याय नहीं सह सकता था, अत: मैंने इसे मार डाला!''

''अच्छा, तो तुम्हारे तोते की भी जिंदगी का कोई लक्ष्य था?''

''हरेक की जिदगी का लक्ष्य होता है। और वह लक्ष्य होता है सत्य को, चरम सत्य को जान जाना। वह सत्य जान लेने के बाद आदमी अगर जिन्दा रहता है, तो उसकी यह असीम बेहयाई है। मैंने इसे वह सत्य सिखा दिया। फिर भी यह नहीं मरा तो मैंने मार डाला। फिर तुम पूछोगे कि वह चरम सत्य क्या है? वह सत्य है कि मौत आदमी के शरीर की हत्या करती है। और आदमी की हत्या गला घोंट देती है। मसलन तुम अगर किसी औरत के पास जा रहे हो या किसी औरत के पास से आ रहे हो। और सम्भव है उसने तुम्हारी आत्मा की हत्या कर डाली हो...''

''ऊँह! अब तुम जल्दी ही पूरे पागल हो जाओगे?'' चन्दर ने कहा और फिर वह पम्मी के पास लौट गया। पम्मी उसी तरह मदहोश लेटी थी। उसने जाते ही फिर बाँहें फैलाकर चन्दर को समेट लिया और चन्दर उसके वक्ष की रेशमी गरमाई में डूब गया।

जब वह लौटा तो बर्टी हाथ में खुरपा लिये एक गड्ढï बन्द कर रहा था। ''सुनो, कपूर! यहाँ मैने उसे गाड़ दिया। यह उसकी समाधि है। और देखो, आते-आते यहाँ सिर झुका देना। वह बेचारा जीवन का सत्य जान चुका है। समझ लो वह सेंट पैरट (सन्त शुकदेव) हो गया है!''

''अच्छा, अच्छा!'' चन्दर सिर झुकाकर हँसते हुए आगे बढ़ा।

''सुनो, रुको कपूर!'' फिर बर्टी ने पुकारा और पास आकर चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर बोला, ''कपूर, तुम मानते हो कि नहीं कि पहले मैं एक असाधारण आदमी था।''

''अब भी हो।'' चन्दर हँसते हुए बोला।

''नहीं, अब मैं असाधारण नहीं हूँ, कपूर! देखो, तुम्हें आज रहस्य बताऊँ। वही आदमी असाधारण होता है जो किसी परिस्थिति में किसी भी तथ्य को स्वीकार नहीं करता, उनका निषेध करता चलता है। जब वह किसी को भी स्वीकार कर लेता है, तब वह पराजित हो जाता है। मैं तो कहूँगा असाधारण आदमी बनने के लिए सत्य को भी स्वीकार नहीं करना चाहिए।''

''क्या मतलब, बर्टी! तुम तो दर्शन की भाषा में बोल रहे हो। मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी हूँ, भाई!'' चन्दर ने कौतूहल से कहा।