Nainam chhindati shstrani - 47 books and stories free download online pdf in Hindi

नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 47

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विलास व इंदु का विवाह बिना किसी टीमटाम के आर्य समाज रीति से संपन्न हो गया | विलास व उसकी माँ पहले ही स्पष्ट कर चुके थे की वे लड़की को अपने घर केवल पहने हुए कपड़ों में ही लेकर आएँगे | विलास की माँ अपने स्मृद्ध पिता की दौलत छोड़कर अचानक पड़ी विपदा को सहते हुए पति की अनुपस्थिति में अपने पैरों पर खड़े रहकर पूरे सम्मान के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रही थीं | उन्होंने अपनी शिक्षा का सही उपयोग अपने घर व समाज को बेहतरीन बनाने में किया था | ऐसे वातावरण की उपज विलास में भी माँ के चरित्र की स्वाभाविक गरिमा तथा सहज सोच स्वाभाविक रूप से विकसित हुई थी | 

इंदु के पिता का मन कुछ बुझ सा गया| स्वाभाविक था, इंदु उनकी एकमात्र लाड़ली पुत्री थी, उसके विवाह के सुंदर पलों की कल्पना में उनके हृदय धड़कते रहे थे | वे पति-पत्नी आपस में बिटिया के विवाह की चर्चा करते रहते थे | परंतु उन्हें जब अपनी गुणी बिटिया के लिए विलास पसंद आ गया तब विलास की माँ का गरिमामय तथा स्वाभिमानपूर्ण सहज, सरल व्यक्तित्व देखकर उन्होंने अपने मन को समझा लिया था | 

धन खर्च करने के और भी शुभ मार्ग हो सकते हैं, समाज के किस वर्ग की ज़रूरतों को थोड़ा–बहुत पूरा करने में श्रम सिंचिंत धन का सही उपयोग किया जा सकता है ? यह बाद में सोचा जा सकता था | उन्होंने अपने मन को मना लिया था और बिटिया का विवाह करके पूरे मन से संबंधों को स्वीकार किया था | इंदु की माँ लक्ष्मी इतना अच्छा, शिक्षित, सभ्य परिवार देखकर पहले ही प्रभावित हो चुकी थीं | 

गर्ज़ यह कि विलास व इंदु के ‘प्रेम-विवाह’ में केवल चंपा माँ के अतिरिक्त कोई अप्रसन्न व पीड़ित नहीं था | इंदु को देखकर वे अपने साथ घटी दुर्घटना में एक बार फिर से लौट चली थीं | जैसे किसी फ़िल्म का फ़्लैश-बैक ! विलास इस बात से बहुत दुखी होता | उसने इंदु के साथ चंपा माँ के दुखी जीवन की सारी सच्चाई बाँटी थी और इंदु ने उसकी बात को समझा था| कुछ ही समय में इंदु ने अपने पारदर्शी तथा सुंदर व्यवहार से अपनी सास के साथ चंपा माँ का दिल भी जीत लिया | चंद्रमा की शीतल छाँह सी इंदु ने सब पर अपने गुणों का ऐसा जादू चलाया कि चंपा माँ के घाव भी बहुत जल्दी रिसने बंद हो गए | वे कुछ समय में स्वयं ही इंदु के गुणगान करने लगीं | 

शहर के डिगरी कॉलेज ने विलास तथा इंदु को हाथों-हाथ लिया | इतने योग्य अध्यापकों का होना कॉलेज के लिए गर्व की बात थी | इंदु संस्कृत विभाग में थी और विलास अंग्रेज़ी विभाग में !यह इस शहर का पहला डिगरी कॉलेज था जिसमें लड़के, लड़कियाँ संयुक्त रूप से शिक्षा प्राप्त करने लगे थे | यह कॉलेज शायद इन दोनों के ही भाग्य से इस वर्ष खुला था | दोनों को माँ के पास रहने का सुअवसर प्राप्त हो गया और माँ के पास उनका बेटा सूद सहित वापिस आ गया | 

कैसे होते हैं न ये रिश्ते भी !ज़िंदगी की चौखट को लाँघते हुए ये रिश्ते कभी मुख पर मुस्कान ले आते हैं तो कभी पीड़ा की परत चढ़ा देते हैं | बहुत अजीब व तहों में लिपटी हुई होती है रिश्तों की यह ज़िंदगी !संवेदनाओं व भावनाओं के कुहरे में लिपटी जिंदगी का कोई अता –पता कहाँ होता है ? उलझनों, गुलझनों के बीच लिपटती, निकलती इस पहेली का अता-पता कौन जानता-समझता है ?फिर भी यह अपने खेल दिखाती हुई कभी घिसटती तो कभी दौड़ती, कभी थमती -कभी रुकती, कभी खिलखिलाती-मुस्कुराती तो कभी कसमसाती, कभी जमती तो कभी पिघलती मनुष्य को आयु के अंतिम चरण तक ले ही जाती है | 

क्या तमाशा है ज़िंदगी भी ! अनगिनत रंग, अनगिनत मोड़, अनगिनत बातें ! विलास की माँ के मन में बहुधा ज़िंदगी को लेकर ऐसे प्रश्न तैरते रहते जिनके उत्तर किसी के पास भी नहीं थे | 

विलास की पी. एचडी का थोड़ा काम ही रह गया था | यह वो ज़माना था जब कॉलेज जब के अध्यापकों के लिए पी.एचडी होना अनिवार्य नहीं होता था | कॉलेज में अभी तक कोई पी.एचडी प्राध्यापक नहीं थे सो योग्यता में विलास पंक्ति के शीर्ष पर थे | कॉलेज ने अनुरोध किया कि विलास कभी भी छुट्टियों में अपना काम पूरा कर सकते थे पहले वे कॉलेज में अपने पद पर प्रतिष्ठित हो जाएँ | इन्दु को भी संस्कृत विभाग में बहुत आदर के साथ बुला लिया गया था | इस प्रकार दोनों पति-पत्नी एक ही साथ कॉलेज जाने लगे | कॉलेज में खूब उमंग से दोनों का स्वागत किया गया | कॉलेज के वातावरण में मानो एक सुवास भर उठी | इन्दु इतनी खूबसूरत थी मानो हाथ लगाओ तो मैली हो जाएगी | इसके उपरांत एक अदृश्य सीमा –रेखा थी जिसको पार करने का साहस कोई नहीं करता था | 

विवेक की माँ इस शहर में बरसों से रहती थीं और सब उनका बहुत सम्मान करते थे | विवेक के अपने गुणों के कारण, इंदु के गुणों के कारण ! और सबसे बड़ी बात विवेक की माँ के गुणों के कारण इस परिवार की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता था | ऊपर से चंपा माँ के चरित्र की छाप का भी प्रभाव लोगों पर था | 

उन्होंने उस छोटे से शहर में स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रचार-प्रसार के लिए अपने-आपको समर्पित कर दिया था | वे भारद्वाज परिवार की ही सदस्या बन गईं थीं | कॉलेज में बहुत से लड़के आस-पास के गाँवों से पढ़ने के लिए आते थे | इस कॉलेज के खुल जाने से शिक्षण में लड़कों की रुचि बढ़ गई थी | लड़कों के मन में लड़कियों के साथ कक्षा में बैठने का आकर्षण दिन दूना, रात चौगुना बढ़ता जा रहा था और कॉलेज के छात्रों में उत्तरोत्तर वृद्धि !

इस वर्ष छुट्टियों में विलास व इंदु ने इलाहाबाद जाकर विलास का पी. एचडी का काम पूरा करके शोध-प्रबंध जमा कर दिया था | बस, अब मौखिक परीक्षा ‘वायवा’ की प्रतीक्षा थी | कॉलेज का काम ठीक प्रकार चल रहा था, ज़िंदगी खूबसूरत थी, प्रेम की बेलें पींगें बढ़ा रहीं थीं | दो माँओं की ममता की स्नेहिल बौछार में युवा युगल अलौकिक आनंद को हर पल महसूसता | शनै: शनै:इंदु के गुणों का पिटारा खुलकर पूरे शहर में चर्चित हो रहा था | 

विलास की माँ इस शहर में आने के बाद बहुत पहले से ही समाज-कल्याण के काम में लगी हुईं थीं | लोगों की सोच बदलना कहाँ आसान होता है ? वही सबसे महत्वपूर्ण भी होता है | बासी सोच ठहरे हुए पानी की भाँति दुर्गंध पैदा करती है | इस ठहरी हुई सोच के दूषित पानी को शुद्ध करने का काम यह परिवार कर रहा था | सोने में सुहागा इंदु के आगमन से हो गया था | घर की तीन स्त्रियाँ अपने –अपने क्षेत्रों में पूरी श्रद्धा से काम करने में निमग्न थीं | 

मौखिक परीक्षा के पश्चात विलास की पी. एचडी उसके हाथों में थी | शहर का पहला पी.एचडी !डॉ. विलास कुमार भारद्वाज !कॉलेज ने क्या धूमधाम से उत्सव मना डाला था उसके पी.एचडी मिलने पर !दो वर्ष कहाँ शीतल बयार की भाँति बीत गए कुछ पता ही नहीं चला | समय मानो पंख लगाकर उड़ रहा था | कॉलेज की लड़कियों के बहुत इसरार करने पर इंदु ने माँ की आज्ञा लेकर शाम के समय उन्हें कत्थक नृत्य का शिक्षण देना शुरू कर दिया | 

समय में इतनी तेज़ी से बदलाव सबको रास नहीं आता | जहाँ इस परिवार के प्रशंसक व हितैषी थे, वहीं दूसरी ओर आलोचना करने वाले लोग भी कम न थे| जिनकी आँखों में यह परिवार काँटे की तरह चुभता था | पीठ पीछे शहर के तथाकथित सम्मानीय समाज के ठेकेदार इंदु को ‘फ़िरंगन’ कहकर आपस में मखौलबाज़ी करते पर मन ही मन उस पर लट्टू रहते | उन बेहूदों के मन में तो इंदु एक ऐसी मिठाई थी जो उनके सामने रखी थी पर वे उसका स्वाद नहीं ले सकते थे| 

समाज की इस नब्ज़ से परिवार के सब सदस्य वाकिफ़ थे लेकिन सोच बदलने की पहल किसीको तो करनी होती है | समाज के बिलाऊ ठेकेदारों के गलों में घंटी बाँधे बिना बदलाव संभव नहीं था | इस परिवार के सदस्यों के विचारों में सोच व समझदारी के साथ क्षमता की त्रिवेणी बह रही थी | परिवार के सभी सदस्यों में समाज की बेहतरी के लिए पाखण्डों व अंधविश्वासों की बेड़ियाँ खोलने का एक जुनून भर उठा था | अत: जो लोग समझदार थे वे शनै: शनै: धीमी गति से ही सही पर इनके चलाए गए जागृति के यज्ञ में आहुती देने के लिए जुड़ने लगे | 

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