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मैं तो ओढ चुनरिया - 33

मैं तो ओढ चुनरिया

33

इस घटना के बाद दस बारह दिन शांति से बीत गये । एक दिन मैं क्लिनिक में बैठी जार से कफसिरप छोटी शीशियों में डाल रही थी । एक दिन की , तीन दिन की , पाँच दिन की खुराकें तैयार हो रही थी कि वह आदमी लपकता हुआ आ टपका – सुन , मेरी दवाई मिली ?
हमारे यहाँ दिल की दवाई नहीं मिलती । तुम किसी स्पैस्टलिस्ट के पास जाकर दिखा आओ वरना तकलीफ बढ जाएगी तो मुश्किल में पङ जाओगे ।
वह कुछ अजीब तरीके से मुस्कराया – पर मुझे तो तुम से ही इलाज करवाना है । मेरी डाक्टर तो तुम हो – और वह बोलते ही फिर भाग गया ।
मुझे बहुत गुस्सा आया – ये क्या बात हुई । पंद्रह दिन से बीमार है और किसी वैद्य , डाक्टर से दवा ही नहीं ली । और ये बात करते करते भाग क्यों जाता है । हमेशा उस समय आता है जब पिताजी नहीं होते । उनके सामने आये तो कोई दवा मिल भी सकती है ।
मैं सोचती रही पर पिताजी आये तो मैंने इसका जिक्र पिताजी से नहीं किया । जाने क्यों , मैं उनसे यह बात छिपा गयी । फिर आठ दिन बीत गये । एक दिन कपङे सूखने डालने छत पर गयी तो क्या देखती हूँ , दो गली छोङकर बने तिमंजिला मकान की छत पर खङा कोई चिङिया के पंखों की तरह दोनों बाहें फैलाये अजीब अजीब से इशारे कर रहा था । मैंने ध्यान से देखा – यह तो वही दिल का मरीज था पर यह कर क्या रहा है । मन में घबराहट सी हुई तो कपङों की बाल्टी वही छोङकर नीचे उतर गयी । नीचे जाकर हैंडपंप से ठंडा पानी निकाला और दो गिलास पानी पी गयी ।
कुछ देर ठहर कर साँस लेकर दोबारा छत पर गयी तो वह छत पर नहीं था । मैंने फटाफट कपङे सूखने के लिए फैलाए और बाल्टी लेकर भागती हुई नीचे आ गयी जैसे थोङी देर और छत पर बनी रही तो वह अपनी बाहें फैलाकर मुझे पकङ लेगा । उस दिन अजीब सी परेशानी से पूरा दिन घिरी रही । उस रात उसका चेहरा बार बार आँखों के सामने आता रहा । मैं पूरी रात सो नहीं पायी । समझ नहीं आ रहा था , ये सब क्या है । किससे बात करूँ , किसे बताऊँ , कुछ समझ नहीं आ रहा था ।
उसके बाद मैं क्लिनिक में बैठने से टलने लगी । शाम होते ही अपनी किताबें लेकर पढने बैठ जाती कि अब बङी पढाई है , बहुत सारा गृहकार्य मिला है , ढेर सारा पाठ याद करके जाना है आदि आदि । कोई मरीज आवाज लगाता तो जाना पङता पर कोशिश यही रहती कि न जाना पङे ।
मेरे पङोस में एक नया घर बना था । ये लोग जाति से बढई थे । पलंग , कुर्सियाँ आदि बनाया करते थे । बाजोरिया स्कूल के सामने उनकी दुकान थी । उनके चार बच्चे थे । उन्हें मैं मामाजी ही कहती । उनकी बीबी रामकटोरी सीधी सादी भारतीय महिला थी । चौबीस घंटे घूंघट में लिपटी घर गृहस्थी के कामों में उलझी रहती । इनकी सबसे बङी लङकी लगभग मेरे बराबर की ही थी । नाम था इंदुबाला पर सब उसे बाला ही कहते थे । ये लङकी छठी में फेल होकर पढाई छोङ चुकी थी । आजकल अपने पिताजी के दुकान पर जाते ही अपने एक साल के भाई बबलू को चिपकाये घर घर घूमती रहती या अपनी माँ से लङती रहती । हमारे घर इसके रोज के दो तीन चक्कर लग ही जाते थे । जब मैं कोई काम न कर रही होती तो बाला के साथ गीटे , लूडो या कैरम खेल लेती थी । वरना ये चुपचाप बैठी मुझे देखती रहती और पंद्रह बीस मिनट बाद उठकर चली जाती ।
उस दिन बाला आई तो मैंने विस्तार से सारी समस्या बताई । सुनकर वह हँसना शुरु हुई तो लगातार हँसती ही चली गयी । यहाँतक कि ङँसते हँसते उसकी आँखों में आँसू आ गये । बङी मुश्किल से उसकी हँसी रुकी – अरी बावली बूच , वो तेरे प्यार में पागल हो गया है । हीरोइन हो गयी री तू ।
हट ऐसा भी कभी होता है ।
मैं समझ नहीं पा रही थी – बाला ऐसा क्यों कह रही है । बाला गाना गाने लगी थी – मरी री मेरी माँ ... । पर मेरे तो कहीं दर्द नहीं हुआ ,न अभी हो रहा है ।
बाला अपने घर चली गयी, तब भी मैं उसकी बात के मायने ढूँढती रही और जब कुछ समझ नहीं आया तो चादर ओढकर सो गयी ।
अगले दिन जब मैं पढकर घर लौट रही थी तो लगा कोई मेरा पीछा कर रहा है – मैं सायर तो नहीं ... । चाँद सी महबूबा हो मेरी .. । मैने पीछे मुङकर देखा तो वही था जो एक फासला बनाकर गीत गाता हुआ चल रहा था । मेरा चेहरा लाल हो गया , कुछ गुस्से से कुछ शरम से । फिर तो यह रोज का काम हो गया । छुट्टी होते ही जैसे ही हम सङक पर आते , वह न जाने कहाँ से निकल कर पीछे पीछे ये दोनों गीत अपनी बेसुरी आवाज में गाता हुआ पीछे पीछे चल पङता । हम लोग गरदन झुकाये तेज तेज चलते घर पहुँच जाते तो वह आगे बढ जाता । एक दिन छोटे मामा ने आकर अभी साइकिल टेढी लगाई ही थी कि वह अपनी धुन में गाता हुआ वहाँ से गुजरा । मामा ने उसे अपने पास बुलाया और कस कर दो झापङ रसीद कर दिये । वह मामा के कसरती हाथ का थप्पङ बरदाशत नहीं कर पाया था और वहीं सङक पर गिर गया था । उसके घुटने और कोहनियाँ बुरी तरह से छिल गयी थी । मामा ने कालर पकङकर उठाते हुए कहा – ओ मजनू की औलाद , दोबारा इस सङक पर नजर आ गया तो जान ले लूँगा । समझा ।
उसे वहीं छोङ मामा अंदर आ गये । मुझे लगा , अब मेरी शामत आई कि आई । मामा ने मुझसे कुछ पूछा तो मैं क्या जवाब दूँगी । पर मामा ने मुझसे कुछ नहीं पूछा । न माँ या पिताजी से कोई बात की । मैंने चाय बनायी । वे चाय पीकर इधर उधर की बातें करते रहे फिर चले गये । तो मेरी साँस में साँस आई ।
उसके बाद वह कभी दिखाई नहीं दिया । अगले हफ्ते उसने कमरा छोङ दिया और किसी और इलाके में रहने चला गया । इस तरह एक प्रेमकहानी का अंत हो गया ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...