Nainam chhindati shstrani - 51 books and stories free download online pdf in Hindi

नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 51

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समिधा के जीवन में जो खालीपन आ गया तब उस स्थान को केवल काम ही नहीं भर सकता था | कुछ रिश्ते, कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो ताउम्र मस्तिष्क की दीवार पर चिपकी रह जाती हैं | आँखें बंद करती तो माँ, पापा के साथ बिताए चंद खूबसूरत दिन उसकी पलकों पर तैरने लगते और वह अपने बिस्तर पर पड़े खाली तकिये को आँखों पर रखकर फफक पड़ती | 

कई दिनों तक बोस दंपति ने उसे उसके घर में अकेले नहीं सोने दिया था, ज़िद करके दोनों उसे अपने साथ अपने घर में ही सुलाते थे | खाने-पीने से लेकर खरीदारी तक उसका माँ के द्वारा छूट गया सारा काम निबेड़िता भाभी ने करवाया था | कुछेक दिनों में उसकी पहचान कुछ सहकर्मियों से हो गई थी | इनमें एक ईसाई लड़की रोज़ी भी थी जो तकनीकी विभाग में उसके पड़ौसी प्रबीर बोस के साथ कार्यरत थी और कभी-कभी बोस के घर आती थी | वह भी दूरदर्शन के कैंपस में ही क्वार्टर में रह रही थी | 

वह तीखे नाक-नक्श वाली सांवली पर बेहद आकर्षक लड़की केरल की थी | मित्रता होने के बाद रोज़ी ने समिधा को बताया कि जब वह केवल पाँच वर्ष की थी उसके माता-पिता एक कार-दुर्घटना में चल बसे थे | उसकी सौतेली चाची ने उसे बड़ा करने में न जाने कितने और कैसे-कैसे ज़ुल्म उस पर ढाए थे | फिर भी उसे बड़ा तो होना ही था न, वह बड़ी हो गई | उसे सदा यही महसूस होता रहा कि उसके माता-पिता की दुआएँ सदा उसके साथ बनी रही हैं | 

समय कभी टिककर कहाँ बैठता है और न किसिकों एक स्थान पर टिककर रहने देता है | रोज़ी की कहानी सुनकर समिधा को लगा कि यही जीवन है | जी घटना होता है, वह घटता ही है | इसीको ‘होनी’ कहते हैं और यह होनी कब, किसके साथ, कैसे-कैसे खेल दिखा जाए, कोई नहीं जानता | रोज़ी बहुत हँसमुख थी, सब उससे मित्रता करना चाहते लेकिन वह सबसे एक सीमा में रहकर दोस्ती रखती थी | 

रोज़ी से मिलकर समिधा ने इस तथ्य को स्वीकारा कि उसे तो उसकी माँ ने पूरा बचपन दिया था, बचपन से वह माँ के पास रही, हर परिस्थिति में माँ ने उसे संभाला, जीवन जीना सिखाया और एक व्यवहारिक इंसान बनाकर दुनिया के मंच पर खड़ा कर दिया | पापा तो अपनी पत्नी व बेटी के साथ अधिक रह भी नहीं पाए, जो दो-चार दिन उन्होंने परिवार का सुख देखा, वह केवल उसी सुख के अधिकारी थे क्या?प्रारंभ में आर्थिक कारणों से उनका रहना आवश्यक था ---परंतु बाद में जब साथ रहने का समय आया तब ?

जो होना होता है, वही होता है | जो स्थिति सामने आती है उसी स्थिति में दृढ़ बनकर ही रहना होगा | वह रोज़ी व निबेड़िता भाभी के संसर्ग में बहुत जल्दी अपनी वर्तमान परिस्थिति में सहजता ओढ़ने का यत्न करने लगी थी| वैसे बम्बई ने उसे बहुत स्नेह से अपनाया था परंतु यह भी कटु सत्य था कि इसी बम्बई ने उससे उसकी माँ को दूर किया था | 

प्र्बीर तथा निबेदिता ने समिधा के अकेलेपन को बाँट लिटा था | हाँ, दिल्ली से बंबई का सफ़र समिधा के लिए कठिन वह अशज तो था ही ---बार-बार उसे लगता कि माँ क्या यहाँ प्राण त्यागने ही आईं थीं ?मनुष्य का मन बहुत अस्थिरहोता है, वह जितनी बातों को भूलने का प्रयास करता है, उतना ही बातें किसी न किसी बहाने उससे चिपट जाती हैं, लौटफिरकर फिर उसी बिन्दु पर लाकर खड़ा कर देती हैं जहाँ से पीछा छुड़कर आदमी बड़ी कठिनाई से भागा होता है | 

बचपन से समिधा छिपकली से बहुत डरती थी, डरती क्या थी, छिपकली देखकर उसे मितली सी चढ़ती थी | यदि वह खाना खाते हुए छिपकली देख लेती तो चाहे कितनी भी दूर क्यों न हो, खाना भी छोड़कर भाग जाती | ऐसे में माँ बहुत हँसतीं| 

“क्या करेगी मेरी सुममी अगर उसे छिपकली भागणी पड़ी –“

आज जब बंबई में सुममी को कमरे में छिपकली दिखाई दी, वह बेसाख्ता चिल्ला उठी ---

“माँ, छिपकली ---!”वह इतनी ज़ोर से चिल्लाई कि पड़ौसन बोस भाभी जी दौड़ी चली आईं | 

“सोमिधा, दरवाज़ा खोलो न –किया बात हो गया है ?”

पत्नी के पीछे-पीछे प्रबीर बोस भी दरवाज़े पर आ पहुँचे थे | क्षण भर बाद जब समिधा को अपनी स्थिति का भान हुआ, वह शर्मिंदगी से भर उठी | 

“वैरी सॉरी भाभी जी---“वह दरवाज़ा खोलते हुए बोली थी | 

श्रीमती व श्री बोस अंदर आ चुके थे | उसके दिल्ली से आने के बाद तो दोनों पति-पत्नी उसके सगे भाई-बहन बन गए थे | 

“ कठिन समय में जो काम आए, वही अपना वरना अपने में क्या विशेष होता है !” माँ अक्सर कहा करती थीं | समिधा को अपना वर्तमान और बीता हुआ कल याद आता रहता | माँ के गुज़र जाने की ख़बर सुनकर राजवाती बीबी कहाँ रुक सकीं थीं | वे निन्नू को लेकर दिल्ली उसके पास पहुँच गईं और पाँच दिनों तक उसके साथ बनी रहीं थीं | दया के साथ बिताए दिनों को याद करते हुए उनकी आँखें पल-पल पटनाला बन जातीं | सुममी को ही उन्हें संभालना पड़ा था| कितनी मुश्किल से उसने बीबी को वापिस भेजा था | उनका दूध का काम था जो वे नौकरों पर छोड़कर आईं थीं | आखिर, उनसे क्या रिश्ता था ? फिर भी ताउम्र उस बेनामी रिश्ते की डोर संबंधों की पतंग में बंधी रही थी | 

पापा की उदासी से फ़ोन पर बात होती रहती | दूरदर्शन की फ़ोन की सुविधा का लाभ समिधा को मिल रहा था | वैसे तो पापा काफ़ी समय अकेले ही रहे थे पर अब माँ के बाद उनकी आवाज़ में दमखम नहीं रहा था | समिधा को लगता मानो किसी अंधे कूएँ से उनकी आवाज़ उभरकर उसके कानों में फुसफुसा रही है | पंद्रह-बीस दिनों वे उसके पास आ जाते, दो-चार दिन रह जाते पर वह महसूस कर रही थी कि उनकी उदासी बढ़ती जा रही थी | माँ का न रहना पापा को भीतर से खोख्ला कर रहा था | 

बंबई में समिधा के पास काम के अतिरिक्त भी बहुत समय बचा रहता था जो बेकार ही पुरानी स्मृतियों के पीछे खींचकर पीड़ा देता या फिर पापा के बारे में सोचते हुए उसे भीतर से कमज़ोर बनाता रहता | दूरदर्शन का पुस्तकालय बड़ा समृद्ध था | पढ़ने की शौकीन समिधा वहाँ से बहुत से पत्र-पत्रिकाएँ लाकर पढ़ती | बहुत पहले से उसकी आगे अध्ययन करने की इच्छा[ थी जो माँ के अचानक न रहने से भीतर कहीं दब गई थी | 

“ज़िंदगी में मनुष्य को अपने सामने कोई न कोई लक्ष्य अवश्य रखना चाहिए “माँ के कहे शब्द समिधा को याद आते | वह स्वयं तो चाहती ही थी अपने जीवन में डूबकर खूब ज्ञान अर्जित कर सके, उपरांत माँ की इच्छा ने शिक्षा के प्रति उसकी रुचि और भी विलसित की थी | समय भी था और इच्छा भी अत: मारग भी मिल गया | 

इत्तेफ़ाक ही था कि दूरदर्शन से कुछ ही दूरी परएक महिला कॉलेज था जिसमें प्रवेश लेकर प्राइवेट परीक्षा दी जा सकती थी | वहाँ उसके जैसे विद्यार्थियों के लिए शनिवार व रविवार को कक्षाएँ भी होतीं थीं | कॉलेज में भी एक समृद्ध पुस्तकालय था और कुछ ही दूरी पर ‘ब्रिटिश इंटरनेशनल लाइब्रेरी’ भी थी | समिधा के हाथ मानो अल्लाउद्दीन का खज़ाना लग गया जो पुस्तक वह पढ़ना चाहे, वही हाज़िर !कहीं न कहीं उसे मिल ही जातीं पुस्तकें !

रोज़ी तथा निबेड़दिता भाभी से विचार-विमर्श के बाद समिधा ने अँग्रेज़ी साहित्य में एम.ए करने का निश्चय कर लिया | इस प्रकार ज़िंदगी में एक सकारात्मक मोड़ आया | समिधा को पापा का बिखरता जीवन देखकर दुख होता था | वह स्वयं भी इतनी प्रौढ़ तो नहीं थी कि अपने साथ पापा को भी संभाल पाती | जीवन कभी-कभी हमें ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है कि हमें अपने लिए सुलभ मार्ग खोजना कठिन हो जाता है | 

समिधा अपनी व पापा दोनों की ज़िंदगी में ताल-मेल नहीं बैठा पा रही थी | भुरभुरी रेत या पानी के बुलबुले सा जीवन केएसएचएन भर में ही न जाने कहाँ-कहाँ की सैर करा देता है | कभी लगता, यह जीवन एक ऐसी ही पतंग है जो सामने वाले पेड़ पर अटकी पड़ी है –

“आओ, और उतार लो मुझे –“

लेकिन कोई कुछ कर पाता है क्या ? पता नहीं डोरी किसके हाथ में होती है ? परंतु वह खिंचती रहती है—आगे-पीछे, ऊपर-नीचे ! मनुष्य नाचता रहता है, हाथ-पैर मारता है | यही है ज़िंदगी का फलसफ़ा जो उसकी छोटी सी बुद्धि ने समझा था | सच तो यह है कि छोटा-बड़ा ज़िंदगी में कुछ होता ही नहीं है, या तो होता है या फिर नहीं होता | यूँ हर पल कुछ न कुछ तो घटित होता ही रहता है | कोई भी पल ऐसा हो ही नहीं सकता जो शून्य हो, जिसमें कुछ भी घटित न हो | अब वह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह ‘घटित होना’ अथवा कोई पल मनुष्य पर कितना और कैसा प्रभाव डालते हैं ?

जीवन की सच्चाई को, वास्तविकता को सम्झना पड़ता है | हम ताउम्र सच्चाई से मुँह छिपकर नहीं बैठ सकते और यदि बैठने का प्रयास करें तो इतने अशज हो जाते हैं कि ज़िंदगी हमें चिढ़कर फिर से अपनी वास्तविकता से बाबस्ता करा ही देती है | सो, बेहतर यही है कि हम जीवन –नदिया के साथ सरलता, सहजता से ऐसे ही बहते रहें जिधर हमें जीवन की लहरें बहाकर ले जाएँ | 

बहने लगी थी समिधा जीवन के बहाव के साथ बिना किसी प्रश्नचिन्ह को अपने सामने रखे | सो, क्रमश : धीमी गति से ही सही जीवन-गाड़ी पटरी पर चलने लगी | माँ बीटा कल बन गईं पर वो जो अपने संस्कार, अपना आचरण देकर गईं, वह जीवन की बहुमूल्य थाती सा उसे अपनी छाया में समेटे रहा | वह हर पल माँ को अपने भीतर महसूसती! उनकी बातें, उनकी ममता, उनका स्नेहिल स्पर्श और सबसे महत्वपूर्ण उनका संस्कारयुक्त चिंतन उसकी जीवन-शैली में इस कदर समाया हुआ था कि उसे माँ के न रहने का ध्यान तब आता जब माँ जैसी कोई भोली हरकत कर बैठती |